“स्लट” होने की जरूरत क्यों ?
लीजिए
भई पूनम पांडे ने फिर एक सनसनीखेज खुलासा किया है कि वे अपने फैन्स के लिए जल्द ही
पूरे कपड़े उतार देगी |यह वही पूनम हैं,जो दावा करती हैं कि सोशल नेटवर्किंग साइट्स
जैसे “फेसबुक”और “ट्यूटर”पर उनके १५ लाख से ज्यादा प्रशंसक हैं |निश्चित रूप से
पूनम ना तो कोई फिल्म स्टार हैं, ना ही प्रतिभा के किसी क्षेत्र में विशेष नाम
|हाँ,उनके पास एक युवा शरीर है,जिसके नंगे प्रदर्शन से उन्हें कोई गुरेज नहीं
|उनका यह मानना है कि “उनके बोल्ड जिस्म ने भारतीय लड़कियों में गजब का आत्मविश्वास
पैदा किया है |”यह बड़बोलापन या देह के प्रति अति-आत्मविश्वास “देह की आजादी”के इस
युग में अविश्वसनीय नहीं है,पर खतरनाक जरूर है |जिस देश की स्त्रियाँ अभी तक अपने
हक की लड़ाई में सम्मलित नहीं हो सकी हैं ,जो गरीबी,भूखमरी,कुपोषण और असमय के
गर्भाधान में अपने प्राकृतिक सौंदर्य और देह को गला रही हैं,वे पूनम जैसी
देह-यष्टि पाने के लिए पैसों का अपव्यय करें और फिर उस देह का प्रदर्शन करें,ताकि
उन्हें मॉडलिंग या फिर फिल्मों में काम मिल सके,क्योंकि यही वह छोटा रास्ता
है,जिसपर चलकर कम उम्र में दौलत और शोहरत कमाई जा सकती है|पर कितनों को यह क्षेत्र
भी रास आता है ?बिना प्रतिभा के किसी भी क्षेत्र में स्थाई पहचान नहीं बन सकती | पूनम
जैसी स्त्रियाँ भारतीय लड़कियों में आत्मविश्वास नहीं,आत्मघात की प्रवृति ही भर
सकती हैं |उनके नसीहतों पर चलकर क्या कोई लड़की धूप-धूल खाएगी या समाज सेवा का
रास्ता अपनाएगी ?क्या कोई मदर टेरेसा,इंदिरा गांधी ,सरोजिनी नायडू ,महादेवी वर्मा
बन पाएगी ?नहीं !हाँ,उच्च-मध्यवर्ग की कान्वेंट में पढ़ी कुछ लड़कियाँ,जिनके जीवन का
लक्ष्य पैसा और शोहरत है,इस रास्ते भले ही अपना करियर बना लें|पर ये लड़कियाँ
स्त्रियों का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकतीं |
यह
सच है कि देह-प्रदर्शन के शार्ट-कट से कई स्त्रियों ने जल्द ही सफलता पाई है,पर यह
स्थाई रास्ता नहीं है |वैसे अनावृत स्त्री-देह आज कोई हौवा नहीं रह गया है |मात्र
अंत:वस्त्रों वाली अनावृत स्त्री-देह सौंदर्य के प्रदर्शन और प्रदर्शन के व्यवसाय
में दिखती है,जिसका यह समाज अभ्यस्त होता जा रहा है,पर आम स्त्री को इस रूप में
देखना समाज को पसंद नहीं |
एक
बात और कभी-कभी स्त्री का नग्न प्रदर्शन समूचे समाज की नंगई को उघाड़ता है|उस समय
यह स्त्री के प्रतिरोध का हथियार बन जाता है|अभी कुछ समय पूर्व दिल्ली में स्लट-वाक
का आयोजन हुआ,जो एक प्रतिरोध था |इस आयोजन के प्रचार से यह लग रहा था कि स्त्रियाँ
उलटे-सीधे,अधनंगे वस्त्र पहन कर मार्च करेंगी| मुझे खुशी है कि इस “स्लट
वाक’‘का आयोजन शालीन कपड़ों में संपन्न हुआ|
‘स्लट वाक ’स्त्री
प्रतिरोध का अंतिम शस्त्र हो सकता है,पर उसे प्रथम शस्त्र के रूप में अपनाया जाना
स्त्री को सदियों पुरानी असहाय स्त्री के कठघरे में खड़ा कर रहा था |प्रश्न था कि
क्या आज की सक्षम स्त्री भी इतनी विवश है कि उसे “बेशर्मी मोर्चा”नाम से
अपनी की देह का तमाशा करना पड़े?क्या
इस प्रदर्शन से स्त्री के प्रति दृष्टि बदल जाती ?बलात्कार बंद हो जाते ?या उस
पर ड्रेस-कोड का लबादा नहीं लादा जाता ?वह
पुरूषों की तरह स्वतंत्र-सक्षम व शक्तिशाली हो जाती ?मुझे लगता था,ऐसा कुछ भी नहीं हो पाता?वह और भी हंसी की पात्र बन जाती|हाँ,आयोजकों को क्षणिक
प्रचार और रसिक जनों को मुफ्त का मनोरंजन अवश्य मिलता |यह अच्छी बात थी कि युवा-वर्ग
समाज में स्त्रियों पर होने वाले अत्याचारों से नाराज था और उसके खिलाफ आवाज उठाना
चाहता था,इसमें शामिल युवतियां भी स्त्री-समाज पर हो रहे अन्याय के खिलाफ थीं |यह
नाराजगी,यह विरोध स्वागत-योग्य था,क्योंकि विरोध हर जीवित चेतना की निशानदेही है|विसंगतियों
के खिलाफ उठ खड़ा होना हमारा दायित्व है,पर अति उत्साह में कुछ ऐसा कर जाना भी उचित
नहीं था कि स्थिति और भी बिगड़ जाए|इस आंदोलन की शुरूवात कनाडा में एक पुलिस-अधिकारी
के इस बयान के वजह से हुई थी कि _”लड़कियों
को बलात्कार से बचाने के लिए “स्लट”जैसे कपड़े नहीं पहनने चाहिए|”जिस लड़की को यह कहा गया था,उसने विरोध में “स्लट-वाक”का आयोजन किया और फिर इसकी आग दुनिया के दूसरे हिस्सों में
भी फैल गयी थी |आखिर में उसने भारत में भी कदम रखा |भारत में उन दिनों बलात्करों
की बाढ़ आई हुई थी |राजधानी दिल्ली भी इससे अछूती नहीं थी,ऐसे में इस आंदोलन को और
भी बढावा मिल रहा था,पर दिक्कत यही थी कि इस आंदोलन से जुड़ने वाली स्त्रियाँ भी एक खास वर्ग की स्त्रियाँ थीं,जो पूरी स्त्री-जाति
का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं,न ही उन पर अत्याचार हो रहे थे |ऐसे में इस आंदोलन का
ऐसे हाई-फाई व उच्च वर्ग की युवतियों का आंदोलन मात्र बन जाने का खतरा था,जिनके
कपड़े पहले से ही छोटे और अत्याधुनिक थे |लोगों का विचार था कि यह “वाक’ “कैटवाक” जैसा होकर रह जायेगा और जिन मानसिक रोगियों के लिए यह आयोजन
था ,उन पर कोई फर्क नहीं पड़ता,पर ऐसा नहीं हुआ |हर वर्ग की स्त्रियों ने अपने
शालीन प्रदर्शन से यह सिद्ध कर दिया कि देह-प्रदर्शन उनका शौक नहीं,अन्याय के खिलाफ
प्रदर्शन ही उनका उद्देश्य है |
स्त्री का निर्वस्त्र-प्रतिरोध आज की बात नहीं
है|पहले भी ऐसा होता रहा है|हाँ,पहले ऐसा करने वाली स्त्री को अच्छा नहीं माना
जाता था |”काम-सूत्र” में एक ऐसी वेश्या का जिक्र है,जो राज-दरबार में नंगी आ जाती
है |राजा द्वारा पूछे जाने पर वह कहती है-“इस दरबार का कोई पुरूष मुझे संतुष्ट
नहीं कर सकता,इसलिए सभी मेरे लिए बालक के समान हैं और बालक से कैसी शर्म?”वेश्या का
यह दुस्साहस ‘काम-सूत्र” का कारक बनता है |
७ जुलाई,२००७ में राजकोट की पूजा
चौहान भी अंत:वस्त्रों में सड़क पर निकल आई थी,अपनी बात सुनवाने के लिए और अपनी
पीड़ा को सामाजिक स्वीकृति का आवरण पहनाने के लिए|पूजा चौहान दहेज के लिए ससुराली-जनों
से लगातार प्रताड़ित हो रही थी |जब उसने एक बेटी को जन्म दिया,तो उसकी यातना और बढ़
गयी |जब पानी सर के ऊपर से गुजर गया,तो उसे संस्कारिक सोच में व्याप्त बेशर्मी के
विरूद्ध अपनी नारी-सुलभ लज्जा को तिलांजलि देनी पड़ी| पूजा चौहान ने बार-बार उजागर
होती एक सामाजिक विकृति को मात्र एक नई आक्रोश शैली में फिर से उजागर किया|जिस
सामाजिक विकृति और वस्तु को उजागर किया,नयापन उसमें नहीं है,जिस ढंग से उजागर
किया,उसमें था|प्रकारांतर से एक औरत की गहरी विवशता और लाचारी अंत:वस्त्रों में
सड़क पर उतरी थी,पूजा नहीं |पूजा स्लट नहीं थी,पर दिखने पर मजबूर हुई थी |
मेरे पहले कहानी-संग्रह की पहली ही
कहानी ‘अथ मेलाघुमनी कथा’की मेलाघुमनी ‘स्लट’’ कही जाती थी|वस्त्र,चाल-ढाल,जुबान,क्रियाकलाप
और चरित्र सबसे|उसे शालीन,सलज्ज स्त्री से स्लट बनाने वाला उसका ही पति और पुरुष
समाज था,पर हर बात में स्त्री को ही दोषी ठहराने की भारतीय परम्परा के अनुसार बुरी
व दोषी सिर्फ उसे ही माना जाता था,तो उसने भी ‘स्लट’ जैसा
ही जीवन अपना लिया,पर अब वह जो करती थी,उसमें उसकी मर्जी थी|क्यों उसकी देह के
मालिक दूसरे हों ? क्यों
उसकी वेशभूषा,रहन-सहन और आचरण उनके हिसाब से हो,जो स्लट भी बनाते हैं और गालियां
भी देते हैं|मेलाघुमनी काल्पनिक पात्र नहीं थी|कस्बे में मेरे घर के पास ही रहती
थी|आज से ३० वर्ष पूर्व [–मेरे
बचपन में] ही उसने वह हंगामा बरपाया था,जो कनाडा से कई देशों को चपेट में लेता हुआ
दिल्ली तक आ पहुंचा था|जो इसे विदेश से आया समझ रहे थे ,क्या वे यह बता सकते हैं
कि मेलाघुमनी किस देश की थी ?’स्लट वाक
में लड़कियाँ कम व भदेस कपड़ों में मार्च करती हैं,पर मेलाघुमनी तो भीड़ में भी अपनी
साड़ी सिर तक उठा लेती थी|ऐसा उसने मर्दों की मारपीट से बचने के लिए शुरू किया,जो
बाद में उसका शस्त्र बन गया|
प्रश्न यह है कि आखिर क्यों स्त्री
के पहरावे,जीने के तरीके व आजादी पर इतनी बंदिशें हैं?क्यों उनके साथ बलात्कार हो रहे हैं ?क्यों उनकी वेशभूषा को बलात्कार का कारण माना जा रहा है? देश में प्रतिदिन जाने कितने बलात्कार होते हैं,जिनमे
ज्यादातर अबोध बच्चियां होती हैं,जिन्हें ड्रेस-सेन्स तक नहीं होता,तो क्या यहाँ
भी पहरावा ही बलात्कार का कारक है ? दरअसल
ये सब बहाने हैं|स्त्री विरोधी तत्व इस बहाने अपनी काली करतूतों को सही व शिकार
स्त्री को ही दोषी करार देना चाहते हैं,पर अब यह सब नहीं चलेगा|स्त्रियाँ अब
समझदार व संगठित हो रही हैं|वे मेलाघुमनी या पूजा की तरह मजबूर नहीं कि अपनी ही
देह का तमाशा बनाने के लिए मजबूर हों |ना ही पूनम पांडे उनकी आदर्श है कि अपनी ही
देह की परिधि में घूमती रहें और उसका लाभ भुनाएँ |
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