Friday, 8 June 2012

विभक्त स्त्री



अक्सर हम स्त्रियाँ पुरूषों की दोहरी मानसिकता का रोना रोती हैं,पर गहराई से देखे तो अधिकाँश स्त्रियाँ भी दोहरी मानसिकता में जीती मिलेंगी |उनके सिद्धांत और व्यवहार,कथनी और करनी,मन की चाहत और तन की प्रतिक्रिया में अंतर मिलेगा |हाँ,यह सब पुरूष की तरह सज्ञानता और अहंकार के कारण नहीं होगा,बल्कि उनके जिंस के कारण होगा |स्त्री के जिंस में ही ऐसे संस्कार हैं,जो उसके व्यक्तित्व को दुहरा बना देते हैं |स्त्री कितनी भी आधुनिका क्यों ना हो जाए,अक्सर पुरूष-प्रेम में पारम्परिक हो जाती है |वह अपना एक घर,पति व बच्चा चाहती है |यह उसके व्यक्तित्व का अनिवार्य हिस्सा बन चुका है,जिससे वह चाहकर भी मुक्त नहीं हो सकती |यह संस्कार,उसके जिंस में है और सृष्टि के प्रारम्भ से है|सभ्यता के शीर्ष पर पहुँचकर आज स्त्री आत्म-निर्भर,स्वतंत्र और प्रगतिशील जरूर हुई है,पर वह संस्कार उसके रक्त में आज भी प्रवाहित हो रहा है |यही कारण है कि स्त्री के अंदर-बाहर की स्त्री में लगातार संघर्ष की स्थिति बनी रहती है |इस कारण से कभी-कभी वह निर्णय लेने में कठिनाई महसूस करती है |पुरूष अगर अनुकूल हो और परिस्थिति सामान्य,तो सब ठीक रहता है,पर अगर पुरूष प्रतिकूल और स्थितियां असहनीय हुई,तो वह निर्णय नहीं कर पाती कि एक मनुष्य होने के नाते व अपने स्त्रीत्व के सम्मान के लिए ऐसे पुरूष को छोड़ दे या अपने संस्कार के कारण अलग होकर भी उसके नाम की माला जपती रहे | स्त्री की जागृत चेतना जहाँ पुरूष के समान हक चाहती है,वहीं परम्परा  उसे पति को अपने से उच्च समझने का संस्कार देती है |ऐसी स्थिति में उसके व्यक्तित्व का दो हिस्सों में विखंडन हो जाता है |वह समझ नहीं पाती कि सही क्या है?यह असमंजस आज की स्त्री के साथ ही नहीं है |सदियों से स्त्री का आदर्श रही सीता भी वनवास के समय दो तरह की बात करती है |अपने परित्याग से तिलमिलाकर वह राम के नाम जो संदेश भेजती है,उसमें वह पहले राम की भर्त्सना करती है,पर अंत में कहती है –‘मुझे हर जन्म में राम जैसे ही पति मिलें |’ हमारा पौराणिक इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है |
आधुनिक शिक्षित स्त्री की बात करें,तो मुझे एक स्त्री याद आती है-रखमा बाई |१८८७ में रखमा बाई ने ना केवल भारतीय समाज को,बल्कि अंग्रेजी सत्ता को भी झकझोर दिया था |एक ऐसे समय में,जब स्त्रियों का मुँह खोलना अपराध था,वे दमित तथा तमाम रूढियों के मकड़-जाल में कैद थीं,रखमा ने एक ऐसे मुद्दे की लड़ाई लड़ी,जो १०० साल बीतने के बाद भी अधर में लटकी हुई है,कानून और समाज उसे आज भी स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं | यह लड़ाई है –“स्त्री का अपनी देह पर पूर्ण अधिकार|” अर्थात स्त्री किससे सहवास करेगी,यह वह स्वयं तय करेगी,कोई बाहरी सत्ता नहीं |रखमा बाई का कहना था कि वे अपने विवाह के समय बालिग़ नहीं थीं और न ही इसमें उनकी सहमति ली गयी थी,इसलिए ऐसे विवाह को वे विवाह नहीं मानती | पति के साथ सहवास करने से भी उन्होंने इंकार कर दिया था |यह एक अजीब-सी बात थी,क्योंकि तब बाल-विवाह व अनमेल-विवाह मान्य था और इस आधार पर कोई स्त्री अपने पति से अलग नहीं हो सकती थी कि विवाह में उसकी मर्जी नहीं थी |रखमा बाई पर भी माँ,नाना,परिवार-समाज सबका दबाव पड़ा कि वे पति के पास वापस चली जाएँ,पर वे हार नहीं मानी|यहाँ तक कि जेल जाने तथा अपनी संपत्ति तक दांव पर लगाने को तैयार हो गईं |उनके अनुसार यह एक नैतिक प्रतिरोध था और इसका संबंध लड़की होने के नाते गुलाम बना दी गईं असंख्य स्त्रियों से था |यह वह समय था,जब ब्रिट्रेन में नारी-मुक्ति का मसला उभार पर था |रखमा जानती थीं कि उनके जीत की संभावना नहीं है,फिर भी वे अन्याय के खिलाफ हार मानने को तैयार नहीं थीं |वे जिस चीज को गलत समझ रही थीं,उसे मानने के पक्ष में नहीं थीं|उनका संघर्ष अंतत: रंग लाया और उन्हें सिर्फ भारत ही नहीं,ब्रिटेन के जागरूक लोगों तथा पत्रों का साथ मिला और वे विजयी हुईं |विजय के बाद जब वे डॉक्टरी पढ़ने ब्रिटेन जाने लगीं,उसी समय पति ने दूसरा विवाह कर लिया |
रखमा ब्रिटेन से लौट कर सूरत के एक अस्पताल में काम करने लगीं |यहाँ तक रखमा के जागृत व्यक्तित्व का एक अनुकरणीय पक्ष था,जिसकी कोई मिसाल नहीं |नारी-मुक्ति के इतिहास में वे अमर हैं,पर वही तेजस्विनी,अपराजिता रखमा पति की मृत्यु का समाचार पाकर विधवा का रूप धर लेती हैं और उसी रूप में अपना पूरा जीवन गुजार देती हैं|उनके क्रांतिकारी विचार संस्कार का हिस्सा क्यों बन गए,यह अध्ययन का विषय है |मेरे हिसाब से उनके संस्कारों की स्त्री उनकी जागृत स्त्री पर हावी हो गयी होगी |

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