प्रेम क्या है यह बताना
लगभग असम्भव है |कारण यह गूंगे का गुड़ है| देह,मन,आत्मा का ऐसा आस्वाद है जिसे
बताने में इंद्रियां चूक जाती हैं अलसा जाती हैं |वे प्रेम के आस्वाद का अनुभव तो
करती हैं पर उसी रूप में व्यक्त नहीं कर पातीं |यही कारण है कि आज भी प्रेम
अपरिभाषित है ,नव्य है,काम्य है |जीव-जगत का ऐसा कौन सा प्राणी होगा जिस पर इसका
जादू नहीं चढ़ता |अबोध हो या सुबोध ,अज्ञ या विज्ञ किसी भी जाति ,धर्म
सम्प्रदाय,क्षेत्र ,देश का आदमी हो ,उसकी अपनी बोली-बानी कुछ भी हो,वह प्रेम की
भाषा समझता है |प्रेम का स्पर्श देह मन आत्मा को छू लेता है |पेड़-पौधे तक इस
स्पर्श को समझते हैं |प्रेम ही सृष्टि का आधार है और उसी के कारण सृष्टि बनी हुई
है |सिर्फ बनी हुई ही नहीं सुंदर है |रसपूर्ण, आनंददायक और जीवंत है |यह प्रेम
सिर्फ स्त्री-पुरूष के रिश्ते तक सीमित नहीं है, उसका विस्तार 'वसुधैव कुटुम्बकम' है
|प्रकृति के कण-कण तक है|पेड़-पौधे ,जीव-जन्तु और पूरी मानव जाति तक है |वह प्रेम
ही है जो ईश्वर को जरा -से छाछ के लिए ग्वालिनों के सामने नाचने पर मजबूर कर देता
है |मीरा को मूर्ति जीवित पुरूष से ज्यादा प्यारी लगती है |राधा सारे रिश्ते-नाते
भूल जाती है |प्रेम बंधन सीमा मर्यादा नहीं मानता |वह स्वयं स्वतंत्र है और सबको
स्वतंत्र करता है |बांधना प्रेम का स्वभाव नहीं |प्रेम सुवासित झोके की तरह आता है
और तन मन आत्मा को महका कर कहीं और चला जाता है टिकता नहीं बांधते तो रिश्ते हैं
|रिश्ते जो प्रेम की वजह से बनते तो हैं पर बाद में बंधन बन जाते हैं |इस बंधन में
स्थायित्व तो है पर ताजगी नहीं |उत्फुल्लता नहीं आनंद नहीं |वहाँ जरूरत है
निर्भरता है नियम है परम्परा है जिसे न चाहते हुए भी मनुष्य को निभाना पड़ता है |वहाँ
अक्सर प्रेम देह तल ही रहता है |देह से चलकर मन तक और फिर आत्मा या ईश्वर तक नहीं
पहुँचता |प्रेम के तीन स्तरों तक विरला ही पहुँच पाता है और जो पहुँचता है परम
आनंद को प्राप्त कर लेता है यह प्रेम का आनंद है |
इस दुनिया में जो प्रेम दीखता
है उसमें अंतर्विरोध बहुत है |विशेषकर स्त्री के प्रेम को लेकर |पंजाब में एक
कहावत प्रसिद्ध है -हीर लोकां दे घरा बिच पैदा हौंण मेरे नई |’हीर सौंदर्य का मानक
है |लोग दुआ करते हैं कि बेटियाँ हीर की तरह सुंदर हों लेकिन वह उनके घर में न
जन्में ,क्योंकि उसने प्रेम के लिए बलिदान दिया था |यह है सामंती सोच |स्त्री को रीतिकालीन
नजरिएँ से देखना | इस नजरिए में देह का भूगोल ही सब कुछ है, दिल का काव्य नहीं
|हालाँकि हरित क्रांति के बाद आई खुशहाली और सफलता ने इस मिथक को काफी हद तक तोड़
दिया है और इश्क न देखे जाति की नई परम्परा धीरे-धीरे वहाँ आकार ले रही है |
कभी इस देश में स्त्री शरीर
का कोई अंग खुला रह जाने पर गर्दनें उतार दी जाती थीं ,अब यहाँ अघोषित आजादी है
|एक-दो अपवादों को छोड़ दिया जाए तो जात-पात भी नहीं देखा जाता |
प्रेम प्रकृति की ऐसी देन
है जो किसी मर्यादा को नहीं मानता |लिंग,आयु,अनुभव,अमीर-गरीब यहाँ तक कि आदमी-जानवर
के बीच की सीमाएं भी कोई अहमियत नहीं रखती |प्रेम का स्वभाव मासूम होता है ‘चित्त
प्रेम ,पट पैसा’ |
विडम्बना है तो यह की आज की युवा पीढ़ी
रहन-सहन से आधुनिक हैं लेकिन आधुनिकता बोध उनमें नहीं है |आधुनिकता का दम भरने
वाले युवा प्राचीन रूढियों से नहीं उबरे हैं |एक ओर वे प्रेम को खेल
मानते हैं वहीं समाज इसे गलत मानता है |यदि कोई प्रेम का दुस्साहस करता है तो समाज
के ठेकेदार उसके रास्ते में बाधाएं खड़ी कर देते हैं और परिणति दुखांत अध्याय के
रूप में होती है |
प्रेम अब रोग है |प्रेम
इतिहास से भूगोल बन रहा है |अगर प्रेम नहीं होता तो सृष्टि की संरचना ही असम्भव थी
परन्तु अब प्रेमी इतिहास और भूगोल में ज्यादा दिलचस्पी लेने लगे हैं |राधा-कृष्ण
,पृथ्वीराज-संयोगिता ,हीर-रांझा ,सोहनी-महिवाल,देवदास-पारो जैसे प्रेम भरे इतिहास
वाले इस देश में प्रेम की प्रेरणा १४ फरवरी ,२६९ को रोम के राजा क्लाडियस सेकेण्ड
द्वारा शहीद करा दिए गए संत वेलेन्टाईन से मिलने लगी है जिनके बारे में
प्रेमियों को शायद ही पता हो ,परन्तु बाजारवाद ने परिभाषाएँ ही नहीं ,प्रेरणा के
श्रोत और प्रतीक तक बदल डाले |प्रेम निजता की जगह अखबारी विज्ञापन बनते जा रहे हैं
|प्रेम फैशन की तरह पढा जाने लगा है |मदनोत्सव में प्रेमियों को रूचि नहीं |हीर के
लिए नहीं अब उतनी पीर |
को बीनै प्रेम लागौ
मैं प्रेम के नशे में पड़ गई
हूँ अब किसे फुरसत है कि वह जगत-प्रपंच की ओर ध्यान दे |लोग सांसारिक उपलब्धियों
को ही सर्वस्व मान लेते हैं |एक-एक पाई को
पुत्र की तरह महत्व देते हैं इसलिए बनाने के प्रति उनका आकर्षण बना रहता है |
मैं घर जारा आपना,लिए
लुकाठा हाथ
जो घर फूके आपना,सो चले
हमारे साथ
हमारी परम्परा –'आत्म दीपो
भव 'है
आजकल दो तरह की प्रेम
कविताएँ लिखी जा रही हैं
छुई मुई नैतिकता वाली
सब कुछ छूट की मांसभक्षी
दोनों छोरों के बीच मानवीय
रूप में होता है प्रेम|वह हवा-हवाई नहीं होता वह मनुष्य के मनुष्य बने रहने की
गवाही है |सच्चा प्रेमी प्रेम भी करता है प्रेम कविताएँ भी लिखता है उसे व्यक्त करने का साहस भी
रखता है |
This comment has been removed by the author.
ReplyDelete"
ReplyDeleteसचमुच एक एक बिंदु पर आपने प्रकाश डाला है, आप एक ऐसी साहित्यकार हैं जो सत्यता को शब्दों से प्रमाणित करती हैं, बहुत कम लोगों को प्रकृति ऐसी योग्यता देती है, मैं बहुत शुभकामनायें आपको प्रदान करता हूँ, अग्रसर रहें सदा। "
बहुत सुन्दर
ReplyDelete