आजादी के इतने सालों में स्त्री को सशक्त बनाने
की दिशा में काफी काम हुआ |ढेर
सारी सरकारी योजनाएँ और विधिक प्रबंध किए गए जिनमें स्त्री शिक्षा ,आर्थिक
स्वावलंबन ,राजनीति
में सहभागिता ,स्त्री
को दिए गए कानूनी अधिकार और स्त्री के निर्णय लेने के अधिकार को विशेष महत्व दिया
गया ,जिसका
परिणाम है कि आज स्त्री शिक्षा ,राजनीति
,सामाजिक ,आर्थिक ,धर्म एवं
संस्कृति के साथ साथ विज्ञान,
प्रौद्योगिकी,
सूचना तंत्र,ज्ञान
तथा हवाई सेवा ,शोध
जैसे कई क्षेत्रों में काम कर रही है |तकनीकी शक्ति के रूप में भी उसकी कई क्षेत्रों में तेज रफ्तार से
प्रगति हो रही है |
और करीब करीब यह मान लिया गया कि स्त्री सशक्त होने के करीब है| यह सच है कि
स्त्रियॉं के प्रगति के सपने सफल हो रहे हैं पर इस लंबे पथ पर उसे जो सफलता मिल
रही है ,उसके लिए
उसे निरंतर संघर्ष करना पड़ रहा है क्योंकि स्त्री सशक्तिकरण की दिशा में किए गए प्रयास अपर्याप्त हैं और उसका कारण यह
है कि मात्र योजनाओं और विधिक प्रबंधों से स्त्री सशक्त नहीं होती बल्कि इसके लिए
सामाजिक एवं मानसिक वातावरण में परिवर्तन की जरूरत होती है |कानून निर्णय
लेने का अधिकार प्रदान कर सकता है लेकिन स्वयं स्त्री में निर्णय लेने का बल और
पितृसतात्मक समाज में वह निर्णय स्वीकारने का औदार्य नहीं पैदा कर सकता |इसके लिए तो
पारंपरिक मानसिकता की उस दीवार को ध्वस्त करना होगा ,जो स्त्री की
स्वतंत्र सोच में बाधक बनी हुई है |उस
वातावरण का गठन करना पड़ेगा जो स्त्री में यह साहस भर दे |
उल्लेखनीय है 20 मार्च ,2001 को
केंद्र सरकार ने जिस ‘राष्ट्रीय
स्त्री उत्थान नीति’
“की घोषणा की ,उसका
फोकस इस बात पर रहा कि ‘देश
में स्त्री के लिए ऐसे वातावरण का निर्माण करना जिसमें वह सामाजिक
आर्थिक ,राजनीतिक ,शैक्षिक
रूप से सक्षम होकर व्यवस्था में बराबर की भागीदार बन सके |’महिलाओं के
उत्थान हेतु गठित समिति को भी आखिर यह स्वीकारना पड़ा कि कानून लागू करने से
महिलाओं की स्थिति में बदलाव नहीं आएगा |इसके लिए पूरक वातावरण और मानसिकता को बनाना पड़ेगा |तभी तो इस समिति
ने वातावरण निर्मित करने व मानसिक परिवर्तन पर विशेष बल दिया |निश्चित रूप से
यह कानून के वश की बात नहीं |यही
वास्तविकता है ,कानून
अपनी जगह है और यह सच्चाई अपनी जगह कि स्त्री चाहे शिक्षित हो ,आर्थिक दृष्टि
से आत्मनिर्भर हो चाहे न हो ,निर्णय
लेने की अधिकारिणी नहीं |राजनीति
में महिलाओं की भागीदारी कागज पर दिखती अवश्य है लेकिन यह भी ‘खुला रहस्य ’ है कि ये
महिलाएं मोहरे मात्र हैं |इन्हें
चलाने वाले हाथ पितृसतात्मक समाज के आधार स्तम्भ हैं |इस चक्रव्यूह से
बाहर निकलने के लिए मानसिक परिवर्तन ही एक मात्र उपाय है |यह परिवर्तन
पहले स्त्री में होना आवश्यक है क्योंकि अधिकांश स्त्रियाँ स्वयं ही स्त्री
परिवर्तन से कतराकर अपने आप को अबला की छवि में कैद किए हुए निर्द्वंद गुलामी का
आनंद लूटने की आदी हो चुकी है |और
जो स्त्रियाँ परिवर्तन की ओर बढ़ रही है उसे बोल्ड समझकर पुरूष प्रधान व्यवस्था
षड्यंत्र कर रही है |उसे
पितृसतात्मक समाज की बनाई हुई दैहिक वर्जनाओं से ऊपर उठा हुआ महान चरित्र होने का
भ्रम देकर पुरूष अपना उल्लू सीधा करने की कोशिश करता है |बाहर से सशक्त
दिखती हुई स्त्री भी भीतर ही भीतर इस्तेमाल ही की जा रही है –कभी आर्थिक दृष्टि से
तो कभी भावनात्मक या दैहिक दृष्टि से |
पितृसतात्मक व्यवस्था बाजार का अर्थशास्त्र
भाँपकर नित नयी ऐश्वर्याओं,सुष्मिताओं
को जन्म दे रही है |देह
से मुक्ति ,मातृत्व
से मुक्ति आदि जुमले उछालकर स्त्री को मुक्त एवं सशक्त होने का भरम दिया जा रहा है
|स्त्री
को ही यह सोचना है कि सशक्तिकरण का मतलब बाजारवाद का हिस्सा बनना नहीं है |
नए युग में संचार क्रांति के कारण समूचा विश्व
जगत ग्राम बना है |इस
जगत ग्राम में बाजार प्रधान माध्यमों में स्त्री को प्रदूषित ढंग से चित्रित किया
जा रहा है|
विज्ञापन तथा प्रस्तुति के क्षेत्र में उसकी छवि को गलत ढंग से पेश किया जा रहा है
|विक्रय
तथा प्रसार में उसकी गलत छवि का दुरूपयोग हो रहा है जबकि स्त्री सशक्तिकरण की धड़कन संचार माध्यमों
की सजगता पर निर्भर है और उन्हें एक सजग प्रहरी के नाते उसे अपने दायित्वों का
निर्वाह करना चाहिए |महिला
जागृति के पीछे एक दार्शनिक सूत्र होना चाहिए |जागृति की लहर 1970 के दशक से प्रारम्भ हुई,लेकिन इस दौर
में केवल अंधानुकरण से समस्याएँ समाप्त नहीं होंगी |हमें अपना स्वयं का दृष्टिकोण विकसित करना होगा |
आजकल साहित्य में भी स्त्री की आजादी को देह के
विचारहीन उपभोग और विक्रय से जोड़कर देखा जा रहा है |सशक्तिकरण का अर्थ मानस को सशक्त करना है |चेतना ,प्रज्ञा ,अस्मिता को
सशक्त करना है |ऐसा होने पर ही स्त्री इस उपभोक्ता संस्कृति ,विज्ञापननुमा
कृत्रिम लोकप्रियता एवं मनोरंजनात्मकप्रदर्शन से स्वयं के स्वतंत्र अस्तित्व को
बचा सकेगी |
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