यह सच है कि दूसरी औरत को भारतीय समाज ने अभी तक मान्यता
नहीं दी है,फिर भी दूसरी स्त्री सदियों से समाज का हिस्सा रही है
|साहित्य,संगीत,कला,फिल्म जैसे क्षेत्रों में कई ऐसे नाम हैं ,जिनके जीवन में इस
दूसरी स्त्री की महत्वपूर्ण भूमिका रही है|वे स्त्रियां इस कहावत को चरितार्थ करती
हैं कि ‘हर महान व्यक्ति के पीछे एक स्त्री होती है ‘|वे अपने भावनात्मक
लगाव,जुड़ाव,आपसी समझ और साझेदारी को अपने रिश्ते का आधार बताती हैं और कतई
शर्मिंदा नहीं हैं कि समाज उन्हें क्या कहता है ?उनका मानना है कि सही अर्थों में
वे ही वह स्त्रियाँ हैं ,जिसकी कामना पुरूष को है और जिसको पाना उसका अधिकार भी है
|आदिम युग का पुरूष देह संचालित था और आज का दिमाग संचालित|फिर कैसे वह पारिवारिक
रूढ़ि और दबाव के चलते जबरन मढ़ दी गई पहली स्त्री से बंध कर रहे |मानसिक भूख के
कारण ही वह दूसरी स्त्री की तलाश में रहता है |सात फेरे लेने मात्र से किसी स्त्री
को पुरूष का एकनिष्ठ प्रेम नहीं मिल सकता |मानसिक गठबन्धन भी जरूरू है |आज का
बौद्धिक पुरूष मानासिक अर्धांगिनी की चाहत
रखता है,तो यह गलत नहीं है |पिछले वर्ष एक शोध में आया था कि पुरूष शारीरिक सौंदर्य
से ज्यादा स्त्री की बौद्धिकता से प्रभावित होता है ‘[राष्ट्रीय
सहारा,सितम्बर,२०१२]
प्रश्न यह है कि क्या हर दूसरी स्त्री
अपने पुरूष के साथ निरपेक्ष सखी-भाव से खड़ी होकर स्त्री की पहचान और अपनी अस्मिता
की लड़ाई लड़ सकती है |उसके समर्पित संघर्ष की कद्र क्या यह समाज करेगा ?दूसरी
स्त्री के लिए आत्मनिर्भरता भी एक जरूरी शर्त है,वरना उसका रिश्ता साधारण
स्त्री-पुरूष के रिश्ते में बदलकर अपनी सुंदरता खो सकता है |आत्मनिर्भर स्त्री ही
बिना कुंठित हुए तीव्रता और साहस के साथ समाज की बंद कोठरियों की अर्गलाएँ अपने
लिए खोल सकती है |दूसरी स्त्री को कुछ पाने के लिए एडजस्टमेंट की भी जरूरत होती
है,क्यों कि पुरूष द्वारा प्रदत्त बराबरी तबतक उसकी अपनी नहीं हो सकती,जब तक वह
उसे अपने भीतर पैदाकर जीने की कोशिश नहीं करेगी |निश्चित रूप से दूसरी स्त्री के
सामने कड़ी चुनौतियाँ होती हैं |कुछ स्त्रियों को दूसरी स्त्री बनकर पूर्णता का बोध
होता है |पर इनका प्रतिशत कम ही है,ज्यादातर तो कुछ समय बाद ही खुद को शोषित मानकर
पछताने लगती हैं |आर्थिक रूप से स्वनिर्भर होने के बाद भी वे संतुष्ट नहीं
होतीं|वे कहती हैं कि दूसरी औरत बनना औरत के शोषण और भुलाओं का दुष्चक्र होता
है|स्त्री को पुरूष की स्त्री बनने के बजाय पहले सिर्फ स्त्री बनना चाहिए|एक
पूर्ण,आत्मनिर्भर,स्वाभिमानी स्त्री ,तभी वह कठपुतलीपन से छुटकारा पा समाज से अपने
अधिकार पा सकती है ,फिर वह पुरूष के साथ किसी भी नम्बर के बगैर एक स्त्री के रूप
में साझीदार हो सकती है |सच यह भी है कि पहली स्त्री को पछाड़कर दूसरी स्त्री कभी
पुरूष से बराबरी का हक नहीं हासिल कर सकती |आखिर औरत की लड़ाई औरत से क्यों हो ?असल
लड़ाई तो पुरूष से है |औरतें पुरूष की वजह से एक-दूसरे की शत्रु हो जाती हैं
|स्त्री अपनी स्वतंत्र सत्ता तब तक नहीं खोज सकती,जब तक वह समाज में किसी पुरूष के
सहारे भावनात्मक सुरक्षा ,सच्चरित्रता,मान-प्रतिष्ठा या अर्थ के लिए निर्भर रहेगी
|’निर्भरता उसे पुरूष का गुलाम बना देती है |पुरूष स्वयं तो यौन सम्बन्धों के
प्रति ईमानदारी नहीं बरतेगा,पर बड़ी आसानी से अपने लिए दूसरी स्त्री की व्यवस्था कर
लेगा |वह दूसरी स्त्री से तो अपने लिए निष्ठा चाहता है,पर खुद अराजक बना रहता है ,यही बात चिंतनीय
और निंदनीय है
अनुराधा बाली उर्फ फिजा के दुखद अंत ने
मुझे एक त्रिकोण में फंसा दिया है |पहली और दूसरी स्त्री और उनके बीच उलझा हुआ एक
पुरूष |दोषी कौन है,इस पर अलग-अलग राय हो सकती है,पर इनमें ज्यादा सजा तो दूसरी
स्त्री ही पाती है |मर्लिन मुनरो,स्मिता पाटिल,परवीन बॉबी,सिल्क स्मिता,मधुमिता,अनुराधा
जैसी अनगिनत स्त्रियों ने दूसरी स्त्री होने की सजा पाई है | आर्थिक,सामाजिक,राजनीतिक,शैक्षिक
व यश-प्रतिष्ठा किसी भी दृष्टि ये कमजोर स्त्रियाँ नहीं थीं,फिर वे क्यों विवाहित
पुरूषों के प्रेम में पड़ गईं ?क्या पुरूषों ने उन्हें फँसाया,या उन्होंने पुरूषों
को फंसाया ?क्या पहली स्त्री भी इसकी जिम्मेदार है ?रिश्ते क्या सोच-समझकर बनाए
जाते हैं ?क्या इसके पीछे सिर्फ चालाकी,बदनियति,साजिश या हवस मात्र होती है या फिर
और भी कारण होते हैं |कई बार इस बात पर विचार किया है,और थक-हारकर इस पर सोचना बंद
कर दिया है |
पर अनुराधा की विकृत लाश देखकर फिर एक
बार उलझ गयी हूँ |इस बार एक नया विचार मन को मथ रहा है कि ऐसे रिश्तों की शुरूवात
में हर बार कोई चालाकी हो,ऐसा जरूरी नहीं होता,फिर क्यों बाद में उसमें खोट आ जाता
है |पुरूष सोचने लगता है इस स्त्री को सब-कुछ तो दे रहा हूँ ,फिर क्यों यह मेरी
पत्नी बनकर समाज में साथ चलना चाहती है?क्यों माँ बनना चाहती है ?यह तो शुरू से
जानती थी कि मेरी चाहत की एक सीमा है |मैं अपना परिवार,पद-प्रतिष्ठा इस चाहत के
लिए बर्बाद नहीं कर सकता |जबकि दूसरी स्त्री सोचती है कि जब मैं पत्नी जैसा प्यार
व समर्पण इन्हें दे रही हूँ,तो क्यों नहीं इनकी पत्नी बनकर साथ चलूँ ,मातृत्व का
सुख प्राप्त करूँ |इस तरह रहना अपमानजनक है,क्योंकि इस तरह रहने वाली स्त्री को
रखी हुई यानी रखैल कहा जाता है |दुनिया की कोई भी स्त्री खुद को इस शब्द से
संबोधित किया जाना पसंद नहीं करती |दूसरी स्त्री और पुरूष के विचारों में यह अंतर,यह
विरोधाभास दोनों के बीच दूरियाँ पैदा करने लगता है ,जिसका अंत हत्या-आत्महत्या में
होता है|चूँकि समाज में स्त्री आज भी दोयम दर्जे पर है और ऐसे सम्बन्ध रखने वाली
स्त्री को कोई भी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता,इसलिए स्त्री ही असामयिक मृत्यु
का ग्रास बनती है |अधिकार की माँग मौत का पैगाम बन जाती है |
पुरूष के विवाहेतर सम्बन्ध कोई नयी बात
नहीं है|प्राचीन काल से यह परम्परा में रही है |राजाओं,सामंतों,बादशाहों के ही
नहीं ,सामान्य पुरूषों के लिए भी बहुविवाह या अधिक स्त्री से सम्बन्ध सामान्य बात
मानी जाती थी |हाँ,स्त्री के संबंध में जरूर कड़े नियम थे |पर ऐसा नहीं था कि
स्त्रियों के पर-पुरूषों से संबंध नहीं होते थे |सूरदास ने “परकिया’ को “स्वकीया” से ज्यादा आकर्षण युक्त बताकर यह सिद्ध कर दिया कि प्रेम
में विवाह बाधक नहीं है |प्रेम एक आदिम संवेग है |वह कभी,कहीं और किसी से भी हो
सकता है |दिक्कत तब आती है,जब प्रेम स्वार्थ-केंद्रित हो जाता है |प्राचीन काल में
पति पर पूर्णतया आश्रित होने के कारण पत्नियाँ पुरूष के अन्य स्त्रियों से रिश्ते
को स्वीकारने को विवश हो जाती थीं ,पर आज स्त्री विवश नहीं है ,पुरूष पर उस हद तक
निर्भर भी नहीं है |देश के क़ानून ने उसे कई ऐसे अधिकार दे रखे हैं कि वह अपने पति
के मनमाने रिश्तों पर प्रतिबंध लगा सकती है |आज वह पति का प्यार किसी के साथ
बाँटने को तैयार नहीं है |पति के जीवन में दूसरी स्त्री को वह देखना भी नहीं चाहती
|फिर भी पुरूष दूसरी स्त्री से सम्बन्ध रखते हैं,पर उसे छिपा कर रखते हैं |अगर
किसी लापरवाही की वजह से पत्नी पर यह भेद खुल जाता है,तो वह आग-बबूला हो जाती है
|पति का तो वह कुछ बिगाड़ नहीं पाती,पर दूसरी औरत की दुश्मन बन जाती है |वह उसकी
हत्या का षड्यंत्र तक रच डालती है |या फिर साम-दंड-भेद की नीति पर चल कर पति को
वापस लौटा लाती है |मधुमिता की हत्या का षड्यंत्र रचा गया,तो फिजा के चाँद को लौटा
लिया गया |दोनों ही स्थितियों में स्त्रियाँ ही एक-दूसरी की शत्रु बनीं,पर इसके
पीछे कौन था?पुरूष ही न!यही पुरूष की रणनीति है |आनंद वह उठाता है और दंड स्त्री
भुगतती है |स्त्री पहली हो या दूसरी दोनों इस तनाव में जीती हैं कि पुरूष उसका
नहीं है |वह कभी भी कहीं भी जा सकता है |
प्रश्न उठाता है कि पहली स्त्री तो
सामाजिक परम्परा में बंधकर पुरूष के जीवन में आई है,दूसरी स्त्री क्यों किसी
विवाहित पुरूष को चुनती है |पुरूष का क्या वह तो हर सुंदर स्त्री के लिए ललकता है
|इस प्रश्न का उत्तर भी पुरूष-प्रधान व्यवस्था में है |यह व्यवस्था स्त्री को अपने
सपने पूरा करने का सीधा रास्ता नहीं देती |अगर स्त्री के पास अपने मजबूत सहारे हों
,तो उसके सपने पराए समर्थ पुरूषों के मुहताज न हों |स्त्री की महत्वाकांक्षा अक्सर
ऐसी अवस्था में पराए पुरूष कंधे का सहारा ले लेती है,क्योंकि वे पुरूष अक्सर सत्ता
पर काबिज होते हैं |पर ऐसे पुरूष बिना मूल्य लिए सहारा नहीं देते |चूँकि स्त्री के
पास अपनी देह से मूल्यवान कुछ नहीं ,इसलिए वह उसे ही समर्पित कर देती है |इसमें
कोई जबरदस्ती नहीं होती |स्त्री अपनी इच्छा से विवाहित पुरूष से रिश्ता बनाती है,अपने
सपने,महत्वाकांक्षाएं पूरी करने के लिए |बहुत कम ऐसा होता है कि स्त्री पुरूष में
स्वाभाविक प्रेम पनप गया हो या पुरूष ने स्त्री को किसी वजह से मजबूर किया हो
|दोनों अपनी जरूरत से एक-दूसरे से जुड़ते हैं |तन-मन से अकेली,बड़ी उम्र की अविवाहित,परित्यक्ता,विधवा
या सुख-सुविधापूर्ण जीवन की चाहत रखने वाली या अपने भरण-पोषण में असमर्थ स्त्रियाँ
ऐसा कदम उठा लेती हैं |कई बार परिवार-समाज की उपेक्षा भी इसकी वजह होती है | साथ-साथ काम करते ,उठते-बैठते,आपस
में सुख-दुःख बाँटते स्त्री-पुरूष के बीच भी कभी –कभी सहानुभूतिपूर्ण लगाव पनप
जाता है,जो आगे बढकर अंतरंग रिश्ते में बदल जाता है|इसके लिए किसी एक को दोषी या
किसी को भी दोषी नहीं ठहराया जा सकता |स्थितियां,परिस्थितियाँ ही इसकी जिम्मेदार
होती हैं |रिश्ते बन जाने के बाद ही स्त्री की महत्वाकांक्षाएं सिर उठाती हैं और
पुरूष की जरूरतें |शुरू में तो दोनों ही इस रिश्ते को छिपाते हैं ,पर बाद में यह
छिपाव स्त्री को खलने लगता है|वह अधिकार की माँग करने लगती है और यहीं से उनके
रिश्ते में खटास आनी शुरू हो जाती है |पुरूष अपनी सत्ता और प्रतिष्ठा नहीं खोना
चाहता और स्त्री अपना जायज हक| वैसे ऐसे रिश्ते के पीछे यौन का आकर्षण भी एक बड़ा
कारण है |अभी कुछ दिन पहले लन्दन में हुए एक शोध में कहा गया कि पुरूषों की
स्त्रियों के साथ दोस्ती सिर्फ यौनाकर्षण के कारण ही होती है |यौनाकर्षण में पुरूष
दूसरी स्त्री को इतना समर्पित हो जाता है कि वह इस भ्रम में पड़ जाती है कि पुरूष
सिर्फ उसका होकर रहेगा |इसी कारण वह अतिरिक्त आत्मविश्वास में भरकर यहाँ तक सोचने
लगती है कि वह पहली स्त्री से ज्यादा रूपवती,युवा,गुणी व बुद्धिमती है,तभी तो
पुरूष उसकी तरफ झुक गया |अपने आकर्षक व्यक्तित्व व काबिलियत पर वह फूली नहीं समाती
|वह अपने संबंध को न्यायोचित ठहराती है और पहली स्त्री की कमियों को गिनाती है |वह
अभिमान में भरकर कहती है कि ‘पहली स्त्री ने इतना स्पेस छोड़ा था ,तभी तो वह उसमें
समा गई |’पुरूष भी जी भर कर पहली स्त्री की बुराई करता है |उसे उसमें खोट ही खोट
नजर आती है |पहली स्त्री अक्सर अशिक्षित .शक्की,नाकाबिल,अनाकर्षक ,घरेलू व गंवार
बना दी जाती है|कई बड़े विद्वान भी सभा-समाज में अकेले आने की सफाई में कहते हैं
कि-काश,वे इस काबिल होतीं या विदुषी होतीं |वे भूल जाते हैं कि यह वही पहली स्त्री
है,जिसके चरणों में कभी वे लोट-पोट होते रहे थे |जिसके साथ मधुर क्षण बिताए,बच्चे
पैदा किए |जिसके कारण घर घर बना,रिश्तेदारों,और समाज में उनका गौरव बढ़ा |जिसके
कारण वे घरेलू व सामाजिक जिम्मेदारियों से बेफिक्र होकर अपने कैरियर को संभाल सके
|देश-दुनिया में भ्रमण कर सके |वह घर की नींव बनी स्त्री जरा सी हिल जाए,तो उनका
सारा व्यक्तित्व धाराशाही हो जाए |जिसकी वजह से वे घर में पका-पकाया बढ़िया
भोजन,आरामदायक बिस्तर और सारी सुख-सुविधा भोगते हैं ,संतति-सुख पाते हैं |उसी की
उपेक्षा करते उन्हें जरा भी शर्म नहीं आती |वे दूसरी स्त्री में सुख तलाशते हैं,वे
भूल जाते हैं कि यह बस नवीनता का सुख है ,जो जल्द ही अपनी चमक खो बैठेगा |और यही
होता है दूसरी स्त्री को देह-स्तर पर हासिल करते ही उनका नशा हिरन हो जाता है
|उन्हें लगने लगता है कि देह के स्तर पर हर एक स्त्री एक जैसी ही होती है |अब
उन्हें दूसरी स्त्री के लिए अपना सब-कुछ दाँव पर लगाना मूर्खतापूर्ण कदम लगता है और
वे बदलने लगते हैं| चाँद के साथ अलगाव के दिनों में फिजा ने कई बार यह बात कही कि
चाँद ने उसके साथ धोखा किया है और उसकी घनिष्टता और संसर्ग पाने के लिए विवाह का
ढोंग रचाया था |पुरूष के इस बदलाव को दूसरी स्त्री नहीं सह कर पाती |वह उसके गले
पड़ने लगती है ,तब वे उससे छुटकारे के लिए गर्हित कदम उठाते भी पीछे नहीं हटते|फंसने
के बाद वे वापस पहली स्त्री की शरण में आ जाते हैं ,जो अपने बच्चों,परिवार,समाज व
अपनी पराश्रयता के कारण खून का घूँट पीकर भी उसे क्षमा कर देती है |पुरूष भी सारा
दोष दूसरी स्त्री पर डालकर सबकी सहानुभूति हासिल कर लेता है| मारी जाती है तो
दूसरी स्त्री |एक तो वह पुरूष के प्रेम से वंचित हो जाती है ,दूसरे समाज भी उसे क्षमा नहीं करता | कहीं
ना कहीं उसके मन में भी यह अपराध-बोध होता है कि उसने एक स्त्री का हक छीना था |इन
सारी विसंगतियों के कारण वह टूटने लगती है |अवसाद-ग्रस्त हो जाती है |पर वीन बॉबी हो या मधुमिता,फिजा या कोई और
दूसरी स्त्री होने की पीड़ा ही इनका नसीब बना | यह कहा जा सकता है कि इनमें से
अधिकतर ने अपनी महत्वाकांक्षा के कारण आर्थिक,राजनीतिक या अन्य चीजों में मजबूत
पुरूषों का चयन किया था ,इसलिए दुर्दशा को प्राप्त हुईं,तो क्या अगर वे कमजोर
मर्दों का चयन करतीं,तो उनका हश्र कुछ दूसरा होता,कदापि नहीं |हर दूसरी स्त्री के
नसीब में पीड़ा होती है,अकेलापन होता है और अगर वह नहीं संभली तो हत्या या
आत्महत्या ही उसका विकल्प बनता है |अनुराधा बाली तो आर्थिक रूप से कमजोर नहीं थी
उसकी मृत्यु के बाद उसके घर से सवा करोड रूपए तथा एक किलों से अधिक सोने के गहने
मिले थे |उसके शव के पास शराब की बोतल और सिगरेट का पैकेट मिला |फिजा जैसे बोल्ड
स्त्री आत्महत्या नहीं कर सकती |फिर क्यों हुआ उसका ऐसा अंत|महत्वपूर्ण यह नहीं है
कि फिजा ने आत्महत्या की या उसकी हत्या हुई |महत्वपूर्ण यह है कि स्त्री के साथ ही
ऐसे हादसे क्यों ?स्त्री का अकेलापन क्यों उसपर इतना हॉवी हो जाता है कि वह मृत्यु
को गले लगा लेती है ?मर्लिन मुनरों ,जिसको लाखो चाहने वाले थे,अपने सुसाइड नोट में
लिखती है कि-मैं एक ऐसी बच्ची की तरह हूँ ,जिसे कोई प्यार नहीं करता|”प्रेम की यह कैसी अबूझ प्यास है !कैसा खालीपन है ?अकेला
होना,विशेषकर मानसिक रूप से खतरनाक है |यह शारीरिक अकेलेपन से ज्यादा भयावह होता
है |भावनात्मक रूप से टूटा इन्सान अकेलेपन में अपने दुःख को बढा-चढाकर देखता है और
अवसाद में चला जाता है |यह अवसाद कभी जान ले लेता है,तो कभी विक्षिप्त बना देता है
|अवसादग्रस्त व्यक्ति समाज से कट जाता है ,अंतर्मुखी हो जाता है|वह बार-बार उन्हीं
घटनाओं को याद करता है,जो दुखद होती है |ऐसे में मृत्यु ही उसे प्रिय लगती है |वह
संसार से बचने का मात्र यही एक रास्ता खोज
पाता है |
विवाहित पुरूष से रिश्ता बनाते समय दूसरी
स्त्री यह भूल जाती है कि उसके अंदर दादी-परदादी वाले संस्कार अभी मरे नहीं हैं और
भारतीय समाज अभी इतना आजाद-ख्याल नहीं हुआ कि अवैध रिश्तों को आसानी से स्वीकार कर
ले |स्त्री की महत्वाकांक्षा उसके अंदर की आदिम स्त्री के आगे हार जाती है और वह
पारम्परिक पत्नी और माँ बनने के लिए छटपटाने लगती है |ऐसी मन:स्थिति में वह
प्रेमी-पुरूष पर दबाव बनाने लगती है |वह भूल जाती है कि रिश्ते बनाते समय उसने
सामाजिक मर्यादा की शर्त नहीं रखी थी |वह तो खुद इस रिश्ते को सबसे छिपाती थी |जब
उसने पहले पत्नी और माँ का अधिकार नहीं चाहा था ,फिर यह सब उसे कैसे मिले ?पुरूष
उसे यह दे ही नहीं सकता |यह सब तो उसके पास पहले से ही होता है,पूरी सामाजिक
मान्यता व प्रतिष्ठा के साथ |दूसरी स्त्री यह भूल जाती है कि अगर पुरूष उसे यह सब
देगा,तो पहली स्त्री के जायज हक मारे जाएंगे |एक स्त्री की बर्बादी पर दूसरी स्त्री
अपना घर कैसे आबाद कर सकती है ?दूसरी स्त्री तनाव-ग्रस्त रहने लगती है|जो जैसा
है,उसी रूप में स्वीकार नहीं कर पाती |परिणाम मधुमिता...फिजा जैसा ही होता है |इस
त्रिकोण में कौन सबसे ज्यादा दोषी है,इसपर सबकी अलग-अलग राय हो सकती है,पर इसमें
कोई दो राय नहीं कि इसमें सबसे अधिक सजा दूसरी स्त्री ही पाती है | ऐसा नहीं कि
पहली स्त्री बहुत सुखी होती है |उसे भी हर पल यह कचोटता रहता है कि उसके पति ने
उसके स्त्रीत्व का अपमान किया |उसके प्रेम और त्याग को नकारा और दूसरी स्त्री की
बांहों में जा समाया |ऐसा करते हुए उसे एक पल के लिए भी अपराध-बोध नहीं हुआ,पर वह
पति-त्याग का साहस नहीं जुटा पाती और ना ही हत्या या आत्महत्या उसका विकल्प बनता
है क्योंकि उसपर बच्चों,परिवार,रिश्तों और समाज की जिम्मेदारियां दबाव बनाती हैं
और उसका सहारा भी बनती हैं |वह अकेली नहीं होती ,सब उसके साथ होते हैं |सारा
अधिकार उसका होता है|बस वह एक चुभन के साथ जीवन गुजार देती है |यह चुभन स्त्री
होने की विवशता है |कई स्त्री तो खुद भी ऐसे रिश्ते बनाकर गुप्त रूप से मन ही मन
पति से बदला ले लेती हैं,पर बड़ी सतर्कता से कि उनका रिश्ता जग-जाहिर ना हो और उनका
परिवार ना टूटे पर ज्यादातर तो अपने स्त्री होने को कोसकर रह जाती हैं | कुछ
विद्रोह करती हैं,तो अपना घर तबाह कर लेती हैं |डायना का जीवन इसका उदाहरण है
|अपने विवाह की पार्टी में पति की प्रेमिका कैमिला पार्कर को देखकर उसके सपनों को
जबरदस्त ठेस लगी |अपने टेप में उसने कहा था -मैं उस दिन बेहद शांत थी ,उस भेड़ की
तरह जिसको काटा जाने वाला हो |डायना नौकरानी से ब्रिटेन के शाही परिवार की बहू
बनकर भी खुश नहीं रह सकी क्योंकि उसे पति का ध्यान व प्यार नहीं मिला |उसने दो बार
आत्महत्या की कोशिश भी की और अंतत:पति से अलग हो गई |कोई भी सम्वेदनशील स्त्री
अपने प्यार को किसी दूसरी स्त्री से बाँट नहीं सकती| फिर भी ऐसे रिश्ते बनते रहे
हैं और शायद बनते रहेंगे |
राजनीति की धूप-छाँव में आकार लेने
वाले ऐसे सम्बन्धों का असली सच ज्यादा ही बजबजा है |फिजा [अनुराधा बाली]२००८ के आखिर
में तब अचानक सुर्ख़ियों में आई थी,जब उसने हरियाणा के तत्कालिन उप मुख्यमंत्री
चंद्रमोहन से धर्म-परिवर्तन कर विवाह किया था पर यह शादी अगले दो-तीन महीनों में
ही विवाद और टकराव के कगार पर पहुँच गई |बात यहाँ तक पहुँच गई कि फिजा के लिए पहली
पत्नी से दगा करने वाले चन्द्रमोहन ने मोबाईल फोन पर उसे तलाक दे दिया | अक्सर
पुरूष दूसरी स्त्री को ना तो आजाद करता है,ना ही मातृत्व का सुख हासिल करने देता
है |मधुमिता माँ बनने की चाह में विद्रोही बनी और मारी गई ,तो गीतिका ने आत्मघात
कर ली |पूर्व एयर होस्टेज २३ वर्षीया गीतिका शर्मा हरियाणा के गृह राजमंत्री ४६
वर्षीय गोपाल कांडा के अब निष्क्रिय हो चुकी एम एल आर कम्पनी में कर्मी थी और उसकी
रखेल बन कर रह गई थी |कांडा ने उसका जीना मुश्किल कर रखा था |अंतत:उसने सुसाइड कर
लिया | गीतिका के अपने सुसाइड नोट में गोपाल कांडा का नाम लिया था कि उसने ही उसे
आत्मघात के लिए उकसाया था |उसने उसकी कम्पनी छोड़ दी थी,फिर भी वह उसे छोड़ने को
तैयार ना था |गीतिका के पोस्टमार्टम रिपोर्ट ने साफ़ कर दिया कि वह सम्भोग की आदि
थी और कई बार एबार्शन की पीड़ा से गुजर चुकी थी|
संयोग देखे कि गीतिका की ख़ुदकुशी के २४
घंटे पहले ही फिजा की लाश मिली थी |दोनों ही घटनाएं बड़ी थीं,हरियाणा की राजनीति से
जुड़ी थीं |इन दोनों मामलों में जान गंवाने वाली स्त्रियों को कहीं ना कहीं इस बात
की कीमत चुकानी पड़ी कि उनके संबंध ऐसे लोगों से थे,जिनका राजनीति में अच्छा रूतबा
था |फिजा और चाँद की तो शादी हुई थी,पर गीतिका मामले में तो संबंध और घनिष्टता के
नाम पर जो कुछ था,उसके पीछे इच्छा या प्रेम की जगह महज राजनीतिक रसूख और ताकत काम
कर रहा था|कांडा ने गीतिका को बलात सम्बन्ध रखने को बाध्य किया था |ये दोनों मौतें
कहीं ना कहीं हमारी उस अपसंस्कृति के सच बयान करती हैं,जिसका सच अब आपवादिक ना
रहकर एक लगातार सघन होती विकृति का रूप ले चुकी है |बिहार के बॉबी हत्याकांड से
लेकर मध्य-प्रदेश में शेहला मसूद और राजस्थान में भंवरी हत्याकांड और फिर गीतिका
और फिजा की मौतें हमारे देश में स्त्रियों की स्थिति के साथ राजनीतिक बिरादरी की
नैतिकता पर भी एक तल्ख़ टिप्पणी है |ध्यातव्य
है कि इन मामलों में जांच और कार्रवाई भी कहीं न कहीं राजनीति से प्रेरित होती है,इसलिए
इन दोनों ही मामलों के सच सामने आएँगे ही,यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता |
आपका लेख बहुत अच्छा व तथ्यात्मक है।
ReplyDeleteमैने भी महसूस किया है कि स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है।
यह हमें अपने ही घर में देखने को मिल जाएगा।
Tathyatmak vivechan ...
ReplyDeleteSahmat hun ki stri ko apne bartav mein parivartan lane ki jaroorat hai ...
धन्यवाद मित्रों पर मेरे लेख का अभिप्राय यह नहीं है कि मैं स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है,पर विश्वास करती हूँ |
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