Saturday, 11 May 2013

माँ -एक दृष्टि


माँ.. कितना पवित्र शब्द है! कितना दैवीय !देव-दानव,मनुष्य किसका सिर नहीं झुकता इसके आगे |पशु-पक्षी भी माँ के महत्व को जानते हैं |भारतीय संस्कृति में तो माँ को पूजने की परम्परा है अतिथि और पिता के साथ ही ‘माँ देवो भव’भी इस देश में मान्य है |हम अपने देश को भारत माँ के नाम से पुकारते हैं और धरती को धरती माँ |सभी नदियाँ हमारी माँ हैं और सभी देवियाँ भी |वर्ष में कई बार हम दुर्गा,लक्ष्मी,सरस्वती इत्यादि नामों से माँ को ही तो पूजते हैं और उससे स्वास्थ्य,शक्ति,सम्पत्ति पाकर सुखमय जीवन गुजारते हैं |
पर क्या हम कभी सोचते हैं कि माँ भी एक स्त्री है ,मनुष्य है |उसमें भी मानवीय कमजोरियां हो सकती हैं |उससे भी गलती हो सकती है |शायद नहीं क्योंकि हमारे लिए माँ त्याग-तपस्या ,धैर्य की एक प्रतिमूर्ति हैं,देवी है |बच्चों के लिए ही जीती–मरतीएक ऐसी दिव्य स्त्री,जिसका अपना कोई सुख-दुःख नहीं |अलग और स्वतंत्र कोई व्यक्तित्व नहीं |माँ पढ़ी-लिखी हो ,यह कभी बहुत जरूरी नहीं माना गया,पर उसका गृह-कार्यकुशल होना जरूरी गुण है |सोचिए दूर रहने पर माँ की किस बात की याद आती है |निश्चित रूप से उसके हाथ के बनाए खाने की ,रात-रात भर जाग कर की जाने वाली सेवा की ,उसके त्याग-बलिदान की |ऐसा शायद ही हो कि हमें एक स्वतंत्र प्रतिभाशील ,व्यक्तित्वशाली ,आत्मनिर्भर स्त्री के रूप में माँ की याद आए | ज्यादातर उसका प्रथम रूप ही हमारे जीवन में ज्यादा जगह घेरता है |क्योंकि हमारे संस्कारों में ऐसी ही माँ की छवि है ,उससे इतर माँ हमें अच्छी नहीं लगती |माँ अगर पुरूषों के फिल्ड में पुरूष की तरह कार्य करती है और एक पारम्परिक माँ की तरह बेटे का ध्यान नहीं रख पाती,तो बेटा माँ को वह इज्जत नहीं दे पाता |भरसक तो वह चाहता ही नहीं कि माँ बाहरी दुनिया में काम करे |किसी विशेष परिस्थिति में ऐसा करना पड़ गया तो भी वह यह कहना नहीं भूलता कि ‘तुम मेरे आत्मनिर्भर होते ही काम छोड़ दोगी |’कोई भी बेटा यह नहीं कहता कि माँ तुम इतनी प्रतिभाशाली हो ,तो क्यों नहीं अपना एक स्वतंत्र व्यक्तित्व निर्मित करती ,जैसा कि पिता का है,जैसा कि मैं बनाने की प्रक्रिया में हूँ |कई स्त्रियाँ विवाह के बाद अपनी सारी प्रतिभा को गठरी में बाँधकर रख देती हैं कि अच्छी बहू,पत्नी और माँ बन सकें|यह त्याग ही उन्हें सम्मान दिलवाता है,जिस पर बेटा गर्व करता है [बेटियां अपवाद हैं,वे माँ की कद्र ज्यादा करती हैं,उसे समझती हैं ,शायद इसलिए कि वे भी भावी माँ हैं ]| प्राचीन भारत में तो स्त्री पिता,पति और बेटे के नाम से ही ज्यादा जानी जाती थी |आज भी गाँव-गिराव में ‘फलाने की महतारी’ ही कई स्त्रियों की पहचान है | साहित्य में भी इसका अपवाद नहीं |थेरी सुमंगला अपने पुत्र मंगल के नाम से जानी गई थी |एक माँ अपने बेटों से ज्यादा जुडी रहती है शायद इसी कारण हमारी संस्कृति में स्त्री को स्त्री होने का दंड पुत्र के द्वारा दिलवाने की भी परम्परा रही है |कुछ उदाहरण काफी होंगे | ऋषि जमदग्नि ने बेटे परशुराम को अपनी माँ का सिर काट लेने का आदेश दिया था,जबकि उसका कोई अपराध ना था | कोई राजा स्त्री पर आसक्त हो जाए तो क्या यह स्त्री का अपराध है ?क्या उसने उस पुरूष को लुभाया था या आमंत्रित किया था पर नहीं हमारे कई महान त्यागी,संयमी ,तपस्वी ऋषियों की पुरूष-कुंठा अक्सर उनपर हावी हो जाती रही है| ऋषि गौतम की कहानी भी इससे अलग नहीं |उन्होंने भी निर्दोष अहल्या का परित्याग इसी कुंठा के कारण किया |सबसे दुखद तो यह रहा कि  किया कि उनके पुत्र ने भी पिता के इस गलत निर्णय का विरोध नहीं किया ,जब कि वे महाविद्वानों में से एक थे |इससे यही साबित होता है कि पिता की आज्ञा के आगे माँ के जीवन का कोई मोल नहीं था |स्त्री की प्रतिभा तो और भी उसके जीवन का बवाल बनती रही है |इसका अच्छा उदाहरण रवना प्रसंग है |रवना भाष्काचार्य की पुत्री थी | उसकी जीभ काटने का आदेश उसके पति वराहमिहिर ने अपने बेटे को दिया था |रवना का अपराध बस इतना था कि वह पाटी गणित में निपुण थी और एक मुश्किल सवाल के हल कर देने पर राजा ने उन्हें राजकीय सम्मान देना चाहा था |पति को पत्नी का यह सम्मान हजम नहीं हुआ, उन्होंने पुत्र को आज्ञा दी कि माँ का जीभ काट लो|जीभ कटी और रवना की मृत्यु हो गयी |देश से एक प्रतिभा का अंत हो गया |किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा क्योंकि वह एक स्त्री की प्रतिभा थी,माँ की प्रतिभा थी | |मातृत्व के जिस प्रभामंडल के पीछे स्त्री महिमा मंडित दिखाई देती है,उसका खंडन इन्हीं उदाहरणों से हो जाता है |
भारतीय स्त्री की प्रतिभा की कद्र कभी नहीं थी |स्त्री का सम्मान बेटी ,माँ,पत्नी के रूप में ही हो सकता था ,वह भी तब ,जब वह अपने व्यक्तित्व को पति-पुत्र में पूरी तरह लय कर दे |इस ल्य के बाड़ भी बस नहीं था उसे हर पल अग्नि-परीक्षा के लिए भी तैयार रहना पड़ता था |अकारण भी सिर्फ पति के शक और कुंठा की वजह स्त्री को दण्डित किया जा सकता था|और इस काम को अक्सर पति पुत्र के सहयोग से संपन्न करता था |स्त्री पति से ज्यादा बुद्धिमती निकली तो शामत थी |ऊपर इसका उदाहरण दिया जा चुका है | इसके बावजूद भी प्राचीन काल से ही कुछ तेजस्विनी स्त्रियाँ होती रही हैं |साहित्य के क्षेत्र में भी थेरियों ने नया इतिहास रचा था |उनके साहित्य के माध्यम से स्त्री का सच सबके सामने आया |मध्यकाल में भी नव्य भारतीय भाषाओं में अनेक स्त्री –रचनाकार हुईं |मराठी में महदम्बा,तेलगू में मोल्ल,कन्नड़ में अक्कमहादेवी ,गुजराती,राजस्थानी और हिन्दी में मीरा और बंगाली में माधवीदासी तथा चन्द्रप्रभा इत्यादि |पर रचनाकार होने के बावजूद ये सभी स्त्रियाँ पीड़ित थीं ,दुखी थीं ,अतृप्त थीं |चाहें उन्होंने ब्राह्मण परिवार में जन्म लिया हो या समाज के निचले तबके में|उन्होंने हर तरह का अत्याचार झेला जिसका केन्द्र बिंदु ससुराल नाम का यातनाघर था |’[हिंदी साहित्य का आधा इतिहास-सुमन राजे ]एक बात इन सभी कवयित्रियों में लगभग समान था कि सबका बाल-विवाह हुआ था और उन्हें अपनी तरह  से बहुत संघर्ष करना पड़ा था| चाहे वह लल्ल हो या हब्बाखातुन या मीरा |विडम्बना यह कि कविता भी उन्हें मुक्त नहीं कर पा रही थी |उन्हें मुक्ति तब मिली ,जब वे धर्म की शरण गयीं |मीरा को तो धर्म का भी आश्रय नहीं मिला ,क्योंकि उसने तो धर्म-सत्ता के खिलाफ भी जंग छेड़ दी थी|एक बात और भी काबिलेगौर है कि भक्त या अन्य कवयित्रियों में कोई भी संतानवती नहीं थी |तो क्या यह मान लिया जाय कि संतान होने पर वे कविता का या धर्म का मार्ग नहीं चुन सकती थीं |माँ के दायित्व में ही उलझ कर रह जातीं या उन्हें धर्म भी स्वीकार नहीं करता |या फिर वे स्वेक्षा से पुत्र मोह में उसी विवाह- संस्था के यातनाघर में घुट के खत्म हो जातीं |आखिर क्यों एक माँ की प्रतिभा को निखरने का मौका नहीं मिलता ?क्यों वह पति-पुत्र की प्रतिभा निखारने की खाद बन जाती है ?क्यों उसके इसी त्यागमयी रूप को आदर के साथ याद किया जाता है ?आज भी उसके इसी रूप की चाहत है ?क्या पुत्र का फर्ज नहीं कि वह माँ को व्यक्ति बनने में साथ दे ,उसे प्रो त्साहित करे ,उसका संबल बने |सदियों पुरानी अवधारणा में कुछ नया जोड़े कि अगर पुरूष की सफलता के पीछे एक स्त्री होती है तो पुरूष भी स्त्री की सफलता के पीछे खड़ा होगा,भले ही स्त्री उसकी माँ ही क्यों न हो |आज भी अनेकानेक प्रतिभाशाली माओं की प्रतिभा सिर्फ रसोईघर तक सिमटी दिखाई देती है ,अब बेटों को आगे बढकर माँ का साथ देना होगा, तभी सदियों से माँ बनकर त्याग करने वाली स्त्री के कर्ज से वह मुक्त हो सकेगा |  

1 comment:

  1. सहमत आपकी बात से ... माँ का त्याग भुलाना नहीं चाहिए ...

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