कविता कविता होती है ,उसे स्त्री या
पुरूष कविता के रूप में बांटकर नहीं देखना चाहिए ,यह तर्क अक्सर विद्वान देते रहते
हैं |वे भूल जाते हैं कि इसी तर्क के कारण स्त्री कविता का सही आकलन आज तक नहीं हो
पाया है |स्त्रियाँ हमेशा से कविताएँ लिखती रही हैं,पर उन कविताओं का सही
मूल्यांकन अभी तक नहीं हुआ |उनकी कविताओं को हिंदी साहित्य के इतिहास में सही जगह
नहीं मिली|संकलित न होने के कारण ढेर सारी कविताएँ कहीं खो गईं,जो अब बड़े प्रयासों
के बाद धर्माश्रय,राज्यश्रय तथा लोकाश्रय
माध्यम से मिल रही हैं |प्रश्न है कि क्यों साहित्य के इतिहास में वे कवयित्रियाँ
उस तरह दर्ज नहीं की गयी थी,जिस तरह कवि दर्ज हुए?
प्राचीन स्त्री कविता को समझने के लिए
प्राप्त किए गए तीनों आश्रय मात्र आश्रय नहीं हैं ,तीन वर्गों के प्रतीक हैं |इनके
अध्ययन से पता चलता है कि स्त्री कविता का अपना एक अलग सौंदर्य –शास्त्र है ,जो
सबसे अधिक लोक साहित्य के पास प्राप्त है|यद्यपि भाषा,काल और भूगोल की दृष्टि से
इनमें भिन्नता हैं फिर भी उनमें ऐसा कुछ विशेष है,जो सम्पूर्ण स्त्री कविता को
जोडता है और यह सम्वेदन सूत्र उनका स्त्री होना है |गहराई में जाए तो देंखेगे कि
पुरूष इतिहासकारों ने स्त्री रचनाकारों के साथ बहुत अन्याय किया है,और जानबूझकर
किया है |उन्होंने स्त्री कवियों को हमेशा दोयम दर्जे का समझा और साहित्य के
इतिहास में उनको वह स्थान नहीं दिया जिसकी वे अधिकारी थीं |स्त्री रचनाकारों ने भी
इस बात पर एतराज नहीं किया और अन्याय का यह सिलसिला लम्बे समय से चलता हुआ आज की
कविता तक आ पहुँचा है |
स्त्री कविता की एक अविच्छिन्न परम्परा
रही है |ऋग्वेद में रोमशा,लोपामुद्रा,श्रधा कामायनी आदि मंत्र-द्रष्टा हैं |वैदिक
काल के बाद स्त्री कविता थेरी गाथाओं में मिलती है |जिनका रचना काल ईसापूर्व
पाँचवी शताब्दी माना जाता है |इनकी भाषा पालि है |विभिन्न वर्गों से आईं थेरियों
की एक ही चिंता थी -‘शास्ता का वचन है स्त्री होना दुःख है’| आज के स्त्री विमर्श
के महत्वपूर्ण सूत्र थेरियों की कविताओं में मिलते हैं | थेरीगाथा में स्त्री के
दुःख स्वप्न स्पष्ट हैं ,जो उनका पीछा संन्यास लेने के बाद भी नहीं छोड़ते|सुमंगला
माता अपने बेटे सुमंगल के नाम से पहचानी गईं क्योंकि उस समय भी स्त्री की अपनी कोई
पहचान नहीं थी|वह किसी की पुत्री,पत्नी ,माँ रूप में ही मान्य थी | दरिद्रता के कारण
सुमंगला का ब्याह एक छाते वाले से हुआ था |संन्यास लेने के बाद वे मुक्ति की सांस
लेती हुई कहती हैं कि वे मूसल बर्तनों से तो मुक्त हुई ही ,जो जन्म के साथ ही
स्त्री की अनिवार्य नियति बन जाती हैं |सबसे बड़ी मुक्ति तो उस निर्लज्ज पति से हुई
जो
उन्हें ‘उस छाते से भी तुच्छ समझता था
जिन्हें अपनी जीविका के लिए बनाया करता था |’
थेरी मुक्ता का विवाह कुबड़े से हुआ था
|गृहस्थी छोड़ कर उसने संन्यास लिया |उसकी मुक्ति देखें-
‘मैं सुमुक्त हुई |अच्छी सुमुक्त हो
गयी |
तीन टेढ़ी चीजों से |अच्छी विमुक्त हो
गयी |
ओखली से|मूसल से |और अपने कुबड़े पति
से|
भली विमुक्त हो गई |
स्त्री और पुरूष की मुक्ति में अंतर है
|यह अंतर थेर और थेरी गाथाओं में ही प्रकट होने लगा था | एक गरीब किसान जब थेर
होता था तो उसकी मुक्ति जुताई बुवाई कटाई तथा हंसुलों,हलों और कुदालों से होती
थी,पर थेरियां उन जंजीरों से भी मुक्त होती थी ,जो स्त्री होने के नाते उनकी नियति
बन जाती थी|यह जरूर है कि जंजीरें स्मृति के रूप में उन्हें हमेशा परेशान करती थीं
|वे पूरी तरह मुक्त कभी नहीं हो पाती थीं | थेरी गाथाओं में यातना कथा स्मृतियों
के रूप में चलती रहती है|स्त्री कविता पर आज भी यह आरोप लगता रहता है कि उसका
दायरा बेहद संक्रीर्ण है |कवयित्रियां घर,पति,पुत्र,प्रेम,परिवार से आगे निकल ही
नहीं पातीं|ना ही सिर्फ साहित्य साधना उनका उद्देश्य होता है | इसका उत्तर थेरी
सीमा के इस कथन में पा सकते हैं, जो उसने अपने लिए लिखा था पर उसमें पूरे समाज का
चेहरा झाँक रहा है |
–‘जो स्थान ऋषियों के द्वारा भी
प्राप्त करने में कठिन है,उसे दो अंगुल मात्र प्रज्ञा वाली भी प्राप्त कर लेगी यह
कभी भी सम्भव नहीं है|दो अंगुल,अर्थात चावल पकाते समय पानी को दो अँगुलियों के दो
पोरों से मापा जाता है|बस ,उतनी ही परिधि है स्त्री प्रज्ञा की |’सीमा का यह कथन स्त्री कविता के प्रति समाज की दृष्टि को
स्पष्ट कर देता है और उपेक्षा की वजह भी |स्त्री को इस लायक ही नहीं माना गया कि
वह कुछ विशेष रच सकती है या उसके लेखन को गम्भीरता से लेने की जरूरत है |यही
मानसिकता कमोवेश आज तक चली आ रही है |यही कारण है कि अधिकांश स्त्री कविता पुरूष
कविता का दुहराव मात्र लगती है |पुरूष की सौंदर्य-दृष्टि ही उसकी अपनी सौंदर्य
दृष्टि बनी हुई है | इसका कारण यह है कि धारा के विरूद्ध लिखने वाली स्त्री कविता
को पुरूष आलोचक खारिज करने की कोशिश करते हैं और स्त्री आलोचकों का हिंदी साहित्य
में घोर अभाव है |
पालि के बाद प्राकृत भाषा का समय आया
,जिसमे स्त्री कविता के संकेत मात्र मिलते हैं |आश्चर्य की बात तो यह है कि
प्राकृत को स्त्रियों की भाषा कहा जाता था क्योंकि उनको संस्कृत बोलना मना था,फिर
भी उसमें स्त्री साहित्य ना मिलना कुछ और ही संकेतित करता है |आगे चलकर गाथा
सप्तशती में कई कवयित्रियों की कविताएँ सम्मलित हुईं |भक्ति आंदोलन के समय भी कुछ
कवयित्रियाँ के नाम सामने आए|
यह सुखद है कि सबसे पहले राजशेखर ने
स्त्री कविता को दर्ज किया |शायद इसका कारण यह रहा हो कि उनकी पत्नी अवन्तीसुन्दरी
भी अच्छी रचनाकार थीं |राजशेखर ने एक महत्वपूर्ण बात कही थी-‘पुरूषों के समान
स्त्रियाँ भी कवि हो सकती हैं |ज्ञान का संस्कार आत्मा से संबंध रखता है,उसमें
स्त्री-पुरूष का भेद नहीं है |’ इसके बाद भी पूर्व का सारा स्त्री लेखन गायब हो
गया| कारण कि स्त्री कविता को किसी ने संकलित ही नहीं किया |स्त्री कविता लोकगीतों
में ही बची रही |लोक गीतों में स्त्री प्रतिभा के दर्शन होते हैं |अच्छी बात यह है
कि ”स्त्री-गीतों में पुरूषों का मिलाया एक
भी शब्द नहीं है |हो सकता है कि एक-एक गीत की रचना में बीसों वर्ष और सैकड़ों
मस्तिष्क लगे हों ,पर मस्तिष्क थे स्त्रियों के ही’ –रामनरेश त्रिपाठी
वैदिक काल की अपाला
और घोषा क्रमश:इंद्र और अश्वनीकुमारों की कृपा से कुष्ट रोग से मुक्त होकर
पति-पुत्र,परिवार में सुखी जीवन जी सकी थीं|और यही उनकी चाहत भी भी |सदियों गुजर
जाने के बाद भी स्त्री की मूल कामना इसी दायरे में घूमती है |जिनकी नहीं घूमती
उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है |गार्गी,रवना इत्यादि बौद्धिक स्त्रियों का
परिणाम सब जानते हैं |पुरूष से बौद्धिक प्रतिस्पर्धा स्त्री को मंहगी पड़ती है
|
चारण काल में चारणियों ने वीर काव्य
क्यों नहीं लिखे,जब कि उस समय भी कुछ अच्छी कवयित्रियां थीं ?जैन साहित्य में
स्त्री कवि क्यों नहीं है ?मध्ययुग में क्यों नाम मात्र की कवयित्रियाँ मिलती हैं
?इन प्रश्नों के साथ ही कुछ और सवाल जेहन में उभरते हैं कि मुगल काल की
कवयित्रियों में अधिकांश ने क्यों लोकभाषा को महत्व नहीं दिया और फारसी या संस्कृत
में लिखती रहीं |क्यों नहीं वे भूल सकी कि वे बेगम ,राजपुत्री ,पत्नी ,माँ के
अलावा एक रचनाकार भी हैं ?वह कौन सा दबाव थाजिसके कारण वे ये बात ना भूलती हैं ,ना
ही यह चाहती हैं कि लोग यह बात भूलें |क्यों इनकी कविताओं में स्त्रीत्व की छाप
नहीं ?क्यों वे पुरूष की तरह ही लिखती रहीं | शायद उन्हें पता था कि यदि वे आदिकाल
की स्त्रियों की तरह लोकगीत या धारा के खिलाफ लिखेंगी,तो साहित्य के इतिहास से
बाहर कर दी जाएंगी|या मीरा की तरह कष्टपूर्ण जीवन जिएंगी |मीरा ही क्यों कश्मीरी
कवयित्री लल्लद्येद को ही लें,जिनसे कश्मीरी साहित्य का प्रारम्भ हुआ,उनके
समकालीनों ने उनका नोटिस ही नहीं लिया |जानते थे कि उपेक्षा से मारक कोई हथियार नहीं
होता | भक्तिकालीन स्त्री कविता पुरूष कविता की तरह विधिवत दीक्षा लेकर मंदिरों और
मठों में बैठकर नहीं लिखा गया,फिर भी परचई साहित्य और भक्तमाल में कवयित्रियों का
उल्लेख उस तरह नहीं है ,जिसतरह पुरूष कवियों का |कारण साफ़ है कि विपरीत धारा में
तैरने का साहस उपेक्षा की दृष्टि से देखा गया |मीरा इसका जीवंत उदाहरण हैं |उनके
जैसा विद्रोही व्यक्तित्व कबीर के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं हुआ |इसीलिए समय ने
उन्हें विष का प्याला दिया और हमारे समय ने ‘फुटकर खाते में डाल दिया |[सुमन
राजे,हिंदी साहित्य का आधा इतिहास] विद्रोही रचनाकारों को इतिहासकार भी पसंद नहीं
करते |मीरा को शामिल करना मजबूरी ना होती ,तो उसे कभी का खारिज कर दिया गया होता |
मीरा के बाद ताज महत्वपूर्ण कवयित्री हैं |उनमें यद्यपि मीरा जैसा तेवर तो नहीं
,फिर भी मुसलमान होते हुए खुल्मखुल्ला ‘हिन्दुआनी’बने रहने की घोषणा मध्ययुगीन
मुगल काल में साहस का ही काम माना जाएगा |लेकिन यहाँ एक बात गौरतलब है कि मीरा को
कृष्ण- सम्प्रदाय के लोगों ने जिस तरह गरियाया |उनके स्त्रीत्व और वैधव्य पर मारक
प्रहार किया ,वैसा ताज के साथ नहीं किया |कारण साफ़ था कि ताज अकबर की बीबी थी और
उनके साथ अकबर मंदिर तक आए थे |मीरा को एक साथ कई लड़ाई लड़नी पड़ी थी –स्त्री होने
की ,विधवा होने की ,भक्त होने की और कवि होने की |यह लड़ाई उन्होंने अंतिम समय तक
लड़ी |राजस्थान में मीरा की तरह ही लोकप्रिय चन्द्रसखी के गीतों को सखी सम्प्रदाय
के किसी पुरूष भक्त की रचना माना जाता है |यह स्त्री-कवि पर लगाया जाने वाला
सामान्य आक्षेप है |प्रश्न यह है कि क्यों नहीं किसी स्त्री ने पुरूष नाम रखकर
लिखा?और क्यों प्राचीन स्त्री कवियों [मीराबाई से कीर्ति कुमारी तक] में ज्यादातर
रानियाँ या बड़े घराने की स्त्रियाँ रही ? क्या सामान्य या मध्यवर्ग की स्त्रियों
में कवित्व-प्रतिभा नहीं होती थी ?या फिर उन्हें उभरने ही नहीं दिया जाता था ?एक
शिकायत और कि अक्सर स्त्री-कवियों पर यह आरोप लगाया जाता है कि वे कवियों का
अनुकरण करती हैं [वह भी घटिया स्तर का] |यानी स्त्री श्रेष्ठ कविता लिख ही नहीं सकती
|यदि स्त्री की कोई कविता उत्तम है तो निश्चित रूप से किसी कवि की है,जो उनके
प्रेमी-पति हो सकते हैं |शेख की कविता को आलम लिखते रहे ,तो साई की कविता उनके पति
गिरिधर कविराय की मानी गई |सुंदर बाई की कविताओं के बारे में कहा गया कि वे किसी
स्त्री की कविता हो ही नहीं सकतीं,वे जरूर किसी प्रौढ़ कवि की कविताएं हैं |यह
श्रेष्टता –ग्रंथि,सामंती -मानसिकता और ओछी प्रतिक्रियाएं आज भी ज्यों की त्यों
दिख जाती हैं|इन्हीं सब के कारण हिंदी साहित्य में स्त्रियों की संख्या कम है |एक
तो स्त्री घर-गृहस्थी के झमेलों,पति-पुत्र,रिश्ते -नातों के चक्रव्यूहों से नहीं
निकल पाती ,दूसरे उसकी प्रज्ञा पर किसी को विश्वास नहीं |अगर वह विद्रोह करती
है,तो खराब स्त्री के रूप में प्रचारित कर उसका जीना मुश्किल कर दिया जाता है
|पुरूष के हिसाब से वह ना ढले या लिखे तो उसे खारिज करने के लिए सारी पुरूष-शक्तियाँ
एकत्र हो जाती हैं|हिन्दी में अनेक संग्रह-ग्रन्थ प्राचीन और नवीन हैं,पर
स्त्रियों की कविताओं को विशेष महत्व किसी में नहीं मिला |और ना ही इसके खिलाफ
स्त्री ने कोई आवाज ही उठाई |
जब उन्नीसवीं सदी का नवजागरण स्त्री
केंद्रित हुआ और प्रथम बार स्त्री को इन्सान रूप में देखने की शुरूवात हुई ,तभी
सबको लगा कि स्त्री तो साहित्य क्षेत्र से पूरी तरह निर्वासित है |स्त्री खुद भी
जगी |उसने ना केवल सामाजिक-राजनीतिक भागीदारी की ,बल्कि साहित्य लेखन में भी
गम्भीरता से प्रवृत हुई |इसका परिणाम यह हुआ कि उसकी साहित्यिक उपेक्षा संभव नहीं
रही |इसी बीच पांडुलिपियों की खोज भी हुई और कई कवयित्रियाँ सामने आईं |पता चला कि
साहित्य की जितनी भी मुख्य काव्य- धाराएँ हैं ,सबमें स्त्री कवियों की भागीदारी
है,पर समय के प्रवाह और पुरूषों के प्रभुत्व से पुरूष कवियों की रचनाओं का प्रचार
अधिक हुआ,जनता के सामने वह सांगोपांग रूप में आया,अथवा उसका विज्ञापन अधिक हुआ
|स्त्री को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ना मिलना ,पर्दा प्रथा व समाज की स्त्री
विरोधी मानसिकता ने स्त्री की रचनात्मकता को दबाया था |१९३०से लेकर १९४५ तक स्त्री
लेखन पर काम होता रहा,पर फिर सब ठप हो गया |मीरा और महादेवी को छोडना संभव नहीं
था,लेकिन उनके अतिरिक्त राष्ट्रीय काव्यधारा में स्त्री कवियों के योगदान को नकार
दिया गया | लाला भगवानदीन [जो स्वयं रीति काव्य के कवि थे,और पुरानी और नयी धारा की कविताओं पर लगभग दो
पृष्ठ खर्च किया था ] ने अपनी पत्नी बुन्देलबाला [जो राष्ट्रीय कविता की पुरोधा
रही थीं]का नाम तक नहीं लिया|इसी कारण उन्नीसवीं सदी की स्त्री कविता भी भक्ति-भाव
के उतरार्ध से अधिक प्रभावित दीखता है |स्त्री रचनाकार साम्राज्य वाद के अंतर्गत
एक सामंती व्यवस्था भी ढो रही थी,जो उसे अलग कुछ करने नहीं देता था |यही वजह है कि
आधुनिकता का समावेश स्त्री-कविता में जरा देर से हुआ |१९०० से लेकर १९२५ तक बदले
रचना-केंद्रों के साथ स्त्री-कवियों के कई स्वर सुनाई पड़ते हैं |कविता अब मध्यवर्ग
से जुड़ने लगी थी और राष्ट्रीय स्वर उसका प्रधान स्वर बन गया था |इस समय स्त्री
जागरण और स्वदेश जागरण एक साथ एक-दूसरे के पर्याय बने दिखाई देते हैं |फिर कविता
स्त्री को साथ लिए आगे बढ़ती गई |अनेक वादों को पार कर वह स्त्री –विमर्श तक जा
पहुँची है |अब उसके सामने पहले सी दुश्वारियां तो नहीं,पर दिक्कतें अब भी हैं
|कमोवेश उसी सामंती मानसिकता ,पुरूष वर्चस्व,लिंग-केंद्रित भेद-भाव के दर्शन
स्त्री कविता के संदर्भ में दीखते रहते हैं |तमाम तरह के झंडे,वाद,गुट बन रहे हैं
|आज भी स्त्री-कवियों की संख्या काफी कम है और जो हैं भी उनमें से कम का ही
नामोल्लेख पुरूष-आलोचक कर रहे हैं|निश्चित रूप से अपने मानदंडों से इतर कविता को
वे कविता नहीं मानते |विद्रोही कविता को स्त्री-विमर्श की कविता कहकर खारिज करते
रहते हैं |यह मेरा अपना अनुभव है | प्राचीन काल में जिस तरह स्त्री-कवि पुरूष की
विशेष कृपा पात्री होने पर ही सफलता का स्वाद चख पाती थी,कमोवेश आज भी वही हाल
है|सामर्थवान पुरूष-चाहें वह पिता,पति,पुत्र हो,या मित्र,प्रेमी या खास आलोचक ,के
बिना साहित्याकाश में दर्ज होना असम्भव तो नहीं ,पर कठिन अवश्य है | अधिकांश महिला
साहित्यकार आज भूला दी जाती हैं |आशापूर्णा के शब्दों में कहें तो –‘स्मरण करने का
दायित्व भी पुरूषों का ही है |उन्होंने ही तो समस्त साहित्य जगत पर कब्जा कर रखा
है |जहाँ वे जिसे सुरक्षित रखना चाहेंगे,रखेंगे,जिसे फेंकना चाहेंगे,फेंक देंगे |’
निष्कर्ष यह कि जब तक पुरूष की
स्त्री-दृष्टि उदार नहीं होगी और स्त्री आलोचकों की संख्या नहीं
बढेगी,स्त्री-कविता की दुश्वारियां खत्म नहीं होगी |
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