स्त्री
विमर्श को मात्र फैशन या विदेश की नकल मानने वाले इतना तो जरूर जानते होंगे कि
हिंदी कथा साहित्य के जन्म का कारण भी स्त्री विमर्श था |पंडित गौरीदत्त द्वारा
रचित हिन्दी का पहला उपन्यास ‘देवरानी जेठानी की कहानी’[१८८७]इसका उदाहरण और
हिन्दी की पहली कहानी लेखिका ‘बंग-महिला ‘इसका प्रमाण है |स्त्री-लेखन पर ‘सीमित
दायरे’का आरोप लगाने वाले शायद स्त्री लेखन को दोयम दर्जे का मान कर पढ़ ही नहीं
रहे ,वरना जान जाते कि स्त्री लेखन आज किसी भी मायने में पुरूष लेखन से कमतर नहीं |कहीं-कहीं
तो वे उनसे भी अधिक सफल हैं जैसे घर-आँगन के कथ्यात्मक तथ्योदघाटन में|एक बात और
आज लेखक जहाँ वैचारिक प्रतिबद्धता या बाजार के वशीभूत होकर सोद्देश्य
विवाद-विसंवादी लेखन की ओर अग्रसर है,वहीं लेखिकाएं वर्जना मुक्त साहित्य रच रही
हैं |
आज
स्त्री सशक्तिकरण का युग है |स्त्री को सशक्त करने में स्त्री लेखन की बड़ी भूमिका
है |इस समय स्त्री लेखन हर विधा में इतनी प्रचुरता से हो रहा है कि सबका उल्लेख
मुश्किल काम है ,इसलिए स्त्री- लेखन की समवेत स्थापनाओं पर चर्चा करना चाहूँगी |आज
का स्त्री –लेखन ना स्त्री पूजा के पक्ष में है न माडलिंग के |वह स्त्री को देवी
नहीं मनुष्य मानने का पक्षधर है ,इसलिए चाहता है कि ना तो उसे सौभाग्यवती सुहागन
कहो ना कुलटा |वह कन्या-जन्म पर शोक व कन्या भ्रूण हत्या का घोर विरोधी है और
स्त्री को मनचाही व पूर्ण शिक्षा देने के पक्ष में है |वह चाहता है कि किराए की
कोख का कारोबार बंद हो|स्त्री के विवाहोपरांत उपनाम परिवर्तन के विरोध के साथ ही
उसकी यह भी चाहत है कि स्त्री के लिए पिता का घर छोड़ने की बाध्यता ना हो
|’पति-परमेश्वर’की सोच की जगह ‘सह-अस्तित्व को’ महत्व मिले|
कुछ
लेखिकाओं तो विवाह-व्यवस्था ,मातृत्व और पारिवारिक बन्धनों के विरोध के साथ ही
अनब्याही मातृत्व की स्वीकृति भी चाहती हैं |कुछ एक कदम आगे बढकर मुक्त –यौन का
समर्थन भी कर रही हैं |पर ज्यादातर लेखिकाएं पश्चिमी नहीं,बल्कि भारतीय सन्दर्भों
में आधुनिकता की समर्थक हैं |
स्त्री
छवि को खराब करने की कोशीश आज फ़िल्में,विज्ञापन व धारावाहिक कर रहे हैं ,स्त्री
लेखन इसका भी विरोध कर रहा है |निजी सचिव और एअर होस्टेज में सिर्फ अविवाहित
लड़कियों की नियुक्ति करने वाला कारपोरेट कल्चर भी उसके निशाने पर है |यहाँ तक कि
हाल के क्लोनिंग व टेस्ट ट्यूब बेबी के पीछे की साजिश के प्रति भी स्त्री लेखन
सावधान है |
स्त्री
लेखन कहीं पुरूष सत्ता को चुनौती दे रहा है तो कहीं स्त्री शक्ति को उजागर कर रहा
है |कहीं देह-शुद्धि के मिथक पर चोट कर रहा है तो कहीं स्त्री-पुरूष के भेद पर
प्रकाश डाल रहा है |हर क्षेत्र,हर वर्ग की स्त्री की समस्या उसके सामने है | नारी
मुक्ति,छात्रावास संवासिनियो. के अजनबीपन,यौन-मनोविज्ञान था यूनिसेक्स की समस्याओं
पर साठ के बाद से ही लिखा जाने लगा था
|स्त्री का अस्तित्व-संघर्ष,मारवाड़ी समाज के विधि-निषेध,वर्जनाओं से मुक्ति सब पर
उपन्यास लिखे गए |किशोर मनोविज्ञान हो या व्यक्तिवान स्त्री सब पर स्त्री कलम चली
है |
दुःख की
बात है सामान्य पुरूष तो छोड़ दें ,अधिकाँश बुद्धिजीवी और हमारे कई लेखक स्त्री
विमर्श को पुरूष –विरोधी सोच और स्त्री लेखन को पुरूष –विरोधी लेखन मानकर बैठ गए
हैं |वे इसी चश्में से उसे देख रहे हैं और मौक़ा मिलते ही उसे खारिज करने का प्रयास
करते रहते हैं ,जबकि कहीं ना कहीं वे भी स्त्री को मानवीय अधिकार दिलाने के पक्षधर
हैं और होंगे क्यों नहीं ?एक स्त्री से ही उनका अस्तित्व दुनिया में आया है और
स्त्री के कारण ही उनकी दुनिया सुंदर बनी हुई है |स्त्री ना हो तो उनकी कलम ही रूक
जाए |पर उनका अहं यह मानने को तैयार नहीं कि स्त्री अपने बारे में खुद फैसला करे
|अब तक उन्होंने ही उसके नख-शिख का वर्णन किया ,उसके लिए सौंदर्य के मापदंड बनाए
|यहाँ तक कि खुद ही फैसला करते रहे कि स्त्री क्या चाहती है ?अब स्त्री खुद बता
रही है अपनी इच्छा ,अपनी चाहत|उसकी अपनी सोच है ,वाणी है ,सौंदर्य-दृष्टि है |यह
आत्मनिर्भरता तो अच्छी बात है,इसका तो स्वागत किया जाना चाहिए |उसका सहयोग किया
जाना चाहिए ,पर विरोध ही अधिक हो रहा है |अपने झूठे अहंकार को यदि पुरूष छोड़ दे,तो
यह दुनिया कितनी लोकतांत्रिक और सुंदर हो जाए |पुरूष यह क्यों नहीं सोच पाता कि आज
भी वही स्त्री की आँखों का सुंदर सपना है |उसका प्रेम स्त्री के लिए महत्व रखता है
,पर वह अपनी आजाद अस्मिता के साथ उसे पाना चाहती है |दो स्वतंत्र पंछियों का
सम्वेद संचालित प्रेम कितना आह्लादकारी होता है |क्या पिंजरे में कैद परतंत्र पंछी
ऐसा प्रेम कर सकते हैं ?एक स्त्री को अपने अहं के कोड़े से पीटकर वश में रखने वाला
उसकी देह से बलात्कार भले कर ले ,उसका मानसिक प्रेम व आत्मिक सहयोग कभी नहीं पा
सकता |बलात्कार सिर्फ देह का नहीं होता ,मन,भावनाओं,सपनों,कल्पनाओं का भी होता है
और इस दृष्टि से देखे तो शायद ही कोई स्त्री मिले ,जिसके साथ कभी ना कभी इनमें से
किसी एक भी स्तर पर बलात्कार ना हुआ हो |
मैं यह
नहीं कहती कि पुरूष के साथ ऐसा नहीं होता |हिंसा और बलात्कार के शिकार पुरूष भी
होते हैं |जो भी पुरूष कमजोर पड़ता है ,उसके साथ बुरा व्यवहार होता है ,पर यह करने
वाला भी शक्तिशाली पुरूष ही अधिक होता है |यानी स्त्री और पुरूष [इसमें युवा ही
नहीं बच्चे भी शामिल हैं ]दोनों से दुराचार या किसी भी किस्म की हिंसा करने वाला पुरूष वर्चस्व ही है |तो स्पष्ट है
स्त्री पुरूष आपस में नहीं ,यह ‘वर्चस्व’ ही समस्या की जड़ है और ये जड़ हजारों वर्षों से पूरी सामाजिक व्यवस्था को
मजबूती से अपने लपेटे में लिए हुए है |इसे काटने के लिए लिंग-भेद छोड़कर हमें एक
साथ आगे बढ़ना होगा ,तभी आने वाली पीढ़ी को हम लोकतांत्रिक व्यवस्था दे पाएंगे |
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