Friday, 30 September 2011

संवेदना

एक बुजुर्ग कवि ने पितृपक्ष के आखिरी दिन ब्राह्मणों को दान देने की अपेक्षा गरीब-भिखारियों को खाना खिलाना उचित समझा और काली मंदिर के पास जा पहुँचे|सबसे पहले उन्होंने दो बुजुर्ग स्त्रियों को भोजन दिया |उपर से दस-दस रूपये भी |फिर सभी भिखारियों को भोजन और रूपये बाँटने लगे |तभी एक रिक्शा वाला दौड़ा आया और उसने भी भोजन की मांग की |कवि ने कहा -'यह भोजन गरीबों के लिए है |गिनकर मंगवाया गया है ,इसलिए वह माफ़ करे|'रिक्शे वाला आग -बबूला हो उठा |लगा बद् दुआ देने -'तहके हम अमीर लउकत बानी ,तहार सब नष्ट हो जाई|'बेचारे कवि अभी दुखी हो ही रहे थे कि वे दोनों बुजुर्ग औरतें फिर खाना लेने वालों की लाइन में आ खड़ी हुईं |कवि ने उन्हें पहचान कर कहा -'आप लोगों को तो सबसे पहले ही भोजन दिया था|'वे इंकार करने लगीं |जब कवि नहीं माने तो उन्होंने ऐसी -ऐसी गालियां व बददुआएं उन्हें दीं कि उनके होश फाख्ता हो गए |यह घटना मुझे बताते समय कवि की आँखों में आँसू थे |मैं सोचने लगी -क्या संवेदना भी आज बिकाऊ माल है |

1 comment:

  1. रंजना जी , पोस्ट सचमुच सोचने पर मजबूर करती है । मगर जब तक बुजुर्ग कवि जैसे लोग चाहे संख्या मे कम ही क्यो न हो मौजूद है तब तक कही ना कही संवेदनाए जरूर नजर आएगी ।

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