Sunday, 22 January 2012

विचार



अपने लिए जगह बनाती स्त्री को “परिवार- भंजक” माना जाता है |वह घर से बाहर निकली है, तो शोषण के लिए तैयार होकर निकले ,वरना घर की सुरक्षा के साथ मिलनेवाले निकट सम्बन्धियों के ‘अतिचारों” पर चुप्पी साधे |बोले तो “बेशर्म” यानी सबके लिए उपलब्ध होने का अवसर |जो भी अधिकार मिले हैं ,उसका सही उपयोग ही कहाँ हो रहा है| गर्भपात के अधिकार को ही लें |उसे इस अधिकार के साथ ही मिली है- कन्या –भ्रूण की बेदखली |स्त्री पुर्विवाह करे ,तो कोंचती निगाहें |अकेली रहे तो प्रश्नचिह्न !चौके और शयन कक्ष भी उसके बधस्थल|ऐसे में जरूरी है कि वह अपने पक्ष में खुद लड़े ,और अपने हक के लिए खुद खड़ी हो |जब तक यह लड़ाई अपनी और से नहीं लड़ी जायेगी ,स्त्री के पक्ष में नहीं जायेगी |भारत की विडम्बना यह है कि यहाँ स्त्री के लिए आज भी उन्नीसवीं सदी की और पुरुषों के लिए  इक्कीसवीं सदी की आचार संहिता है |
वैसे यह भी सच है कि सामाजिक परिवर्तन की गति सदी के अंतिम दशक में काफी तेज रही है और भूमंडलीकरण ने सभी वर्ग की स्त्रियों को बाहर निकलने के अवसर दिए हैं |आर्थिक स्वावलम्बन के कारण भी स्त्रियां कई अर्थों में बदली हैं ,कई वर्जित क्षेत्रों में उन्होंने ठोस दावेदारी प्रमाणित की है |नए वैज्ञानिक शोधों के अनुसार भी जैविक दृष्टि से स्त्रियां दोयम दर्जे की नहीं हैं |यह एक नई स्त्री है ,जो जीवन और सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन का संकेत देती है ,पर यह जानना भी बेहद जरूरी है कि ये नई स्त्रियां कौन हैं और कितनी हैं ?और भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के तहत उनकी गांठ में कितनी पूँजी ,कितनी आजादी है और वे खुद को कितना सामने ला पा रही हैं ?

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