जब मेरी कवितायेँ नहीं छपती थीं ,तो वे कहते थे -"स्त्री है क्या खाक लिखती है,जो छपेगी ?"जब छपने लगी ,तो कहने लगे ",स्त्री होने के नाते छप रही है |" क्यों स्त्री के लेखन को संदेह की नजर से देखने की परम्परा है ?गनीमत है कि किसी पुरूष से जुड़ी नहीं हूँ ,वरना वे यह भी कह देते ,मैं नहीं वही लिख रहा है मेरे लिए ,जैसा कई अच्छी स्त्री रचनाकारों के बारे में कहा जाता है |हाँ ,ज्यादा छपने के कारण उन लोगो ने मेरे बारे में तमाम खराब बातें लिखकर {जिसमें चरित्र हनन से लेकर बड़ी उम्र के होने का ताना भी था }संपादकों को भेजा |यानि कि मुझे लेखन से विरत करने का हर सम्भव प्रयास किया गया |सोचती हूँ कि कितने कमजोर होते हैं ,वे पुरूष ,जो स्त्री के लेखन को बकवास भी समझते हैं ,और उससे इतना डरते भी हैं कि ऐसे ओछे हथकंडे अपनाते हैं |आखिर कब ऐसा समझा जायेगा कि स्त्री भी दिमाग रखती है ,सोच सकती है ,लिख सकती है |स्त्री को व्यक्ति कब समझा जायेगा ?
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