Friday 16 December 2011

कोख की विडम्बना



सीपी का हक
स्वाति की बूँद भर
कीमत मोती गढ़ने तक \
फिर खाली सीपी
सूखा तट |
स्त्री की कोख की विडम्बना पर बहुत पहले यह कविता लिखी थी और आज कलर्स पर ‘बालिका-वधू’की ‘फूली’चीख रही है –‘मेरा बेटा मुझे दे दो ||मैंने नौ महीने उसे कोख में रखा |अपने रक्त से सींचा |उस पर मेरा हक ज्यादा है |वह मेरी आँखों का सपना है ..उम्मीद है खुशी है ..मैं उसके बिना नहीं जी सकती |’वह पति-सास,पड़ोसिनों सबसे फरियाद करती है,रोती-गिड़गिड़ाती है,अनकिये अपराधों के लिए भी माफ़ी मांगती है,पर कोई नहीं सुनता |सताई गयी स्त्री की आवाज भला कौन सुनता है?पड़ोसिनों के लिए यह ‘दूसरे घर का मामला’ है,तो पति और सास की यह सोची-समझी रणनीति|फूली बाल-विधवा थी |’नाता-प्रथा’से इस घर में लाई गयी थी |’नाता-प्रथा’समाज द्वारा मान्य वह प्रथा है,जिसमें विवाहित पुरूष बिना विवाह के किसी स्त्री [विधवा या किसी वजह से अकेली]को घर लाता है |उससे स्त्री व सन्तान-सुख प्राप्त करता है |पर स्त्री को समाज और कानून से कोई सुरक्षा नहीं मिलती,वह पूरी तरह पति और उसके परिवार पर निर्भर होती है |वे चाहें उसे आजीवन रखे या घर से निकाल दें|वह किसी अधिकार का दावा नहीं कर सकती |फूली का तब तक मान-सम्मान किया जाता है,जब तक वह घर को वारिस नहीं दे देती |उसके बाद ही उसके खिलाफ षड्यंत्र शुरू हो जाता है |पहले बच्चे को ऊपर के दूध की आदत डाली जाती है,फिर एक दिन ब्याहता पत्नी को बच्चा सौंप दिया जाता है |फूली के विरोध पर पति उसे पीटते हुए कहता है –‘ऐसी औरतें सिर्फ नाते लायक होती है,घर बसाने लायक नहीं |’ सास एक औरत होने के बावजूद कहती है –अभी जवान हो,जैसे हम नाते पर लाए थे,वैसे कोई और ले जाएगा |
इतना अपमान!इतनी अमानवीयता!इतना निर्मम प्रहार! क्या इसलिए कि फूली एक बाल-विधवा थी?भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही विधवा निकृष्टतम प्राणी मानी जाती रही है,भले ही वह बचपन में ही विधवा हो गयी हो |बाल-विधवा से जीवन के सारे रंग छीन लिए जाते थे |उसके सामने बस दो ही विकल्प थे |या तो वह तीर्थ-स्थान पर रहकर संन्यासिनी का जीवन जीये या समाज में रहकर कठोर नियमों का पालन करे| इसके पूर्व एक और रास्ता था -सती बन जाने का ,पर उसपर रोक लगा दिया गया था |बाल-विधवाएं ना तो समाज में चैन से जी पाती थीं,ना ही तीर्थ-स्थानों पर |दोनों जगह उनकी दुर्दशा थी | संयम-नियम के बावजूद उन्हें जवान तो होना ही होता था|और जवान होते ही उन पर कहर टूट पड़ता था |अपने ही घर-परिवार के मर्द और  बाहर के शोहदे जब-तब उनसे छेड़खानी या बलात्कार करते रहते थे |और बात खुलने पर सारा दोष उन्हीं के सिर पर मढ़ देते थे|तीर्थ-स्थानों पर पंडे उनका शोषण करते थे|उनसे वेश्यावृति तक कराई जाती थी | आज भी तीर्थ-स्थानों पर विधवाएं बुरी अवस्था में हैं |उनके श्रम का भरपूर शोषण किया जाता है |सिर्फ वृन्दावन में ही इस समय तीन हजार १०५ निस्सहाय विधवाएँ हैं,जो मंदिरों में भजन-गायन करके जीवन-यापन करती है |पर प्रतिदिन आठ घंटे भजन गायन करने पर उन्हें मात्र छह से आठ रूपये मात्र मिलते हैं |इससे उनकी दयनीयता की सहज ही कल्पना की जा सकती है |यह अच्छी खबर है कि केन्द्र-सरकार विधवाओं के भजन-गायन को न्यूनतम मजदूरी से जोड़ने जा रही है और उत्तर-प्रदेश सरकार से भी यह करने को कहा गया है |अब यह हो जाए तो बड़ी बात होगी |अभी तो उनकी हालत ऐसी है कि उनकी दुर्दशा  देखकर हाल में ही वृन्दावन आई भूतपूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर की पत्नी रो पड़ी |उनका कहना था कि यहाँ के एन.जी.ओ भी सक्रिय नहीं हैं |यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि १८५६ में भी अपने ‘राज्य-हड़प’नीति के लिए कुख्यात लार्ड डलहौजी तक भारत की विधवाओं की बुरी स्थिति से द्रवित होगया था|उसने ही ‘विधवा-पुनर्विवाह अधिनियम [१८५६]को पारित किया,जोकि ईश्वरचंद विद्यासागर की महान उपलब्धि मानी गयी थी |विदेशी भी जिन विधवाओं की बुरी हालत से द्रवित हो जाते हैं,उनसे उनके ही अपने मुँह फेरे रहते हैं |दया-ममता के लिए सुविख्यात इस देश के लोगों की इस संवेदनहीनता को क्या नाम दिया जाए|
आज भी स्त्रियों की दशा में खास सुधार नहीं हैं |कोख की आजादी वह प्राप्त नही कर पाई है |यदि यह आजादी मिल गयी होती,तो ना तो इतने कन्या-भ्रूण मारे जाते,ना ही उसे अपनी कोख किराए पर देनी पड़ती |जो लोग यह कहते हैं कि इसमें स्त्री की अपनी इच्छा शामिल हैं,वे स्त्री को सही ढंग से नहीं जानते | कोई भी स्त्री ममता-रहित होकर सिर्फ पैसे के लिए अपनी कोख में शिशु सृजित नहीं कर सकती |अगर कोई ऐसा करती है,तो ऐसी मजबूरी समाज के मुँह पर तमाचा है |इस समाज ने स्त्री को अपनी कोख के बारे में कभी निर्णय नहीं लेने दिया |याद करें,कुंती ने इस विषय में स्वतंत्रता का परिचय दिया,तो उसका क्या परिणाम हुआ ?अपने प्रेम-परिणाम कर्ण का उसे परित्याग करना पड़ा,पर वहीं पति की सहमति से तीन अन्य पुरूषों से संतान प्राप्ति पर उसे गौरवान्वित किया गया |नैतिकता के मानदंड सत्ताधारी के हिसाब से बदल कैसे जाते है ? माधवी के बारे में सोचकर तो मन तड़प ही जाता है |माधवी को उसके पिता ने ऋषि को इसलिए सौंप दिया था कि दान देने के लिए श्यामवर्णी घोड़े कम पड़ गए थे |उनका कहना था कि विभिन्न राजाओं के पास माधवी को रेहन रखकर वे उसके बदले घोड़ें प्राप्त कर लें|यही किया गया,पर माधवी को ब्याज के रूप में राजाओं को संतान भी देनी पड़ी | कल्पना करें –अपनी संतान का मोह त्याग कर जब माधवी राजा-दर-राजा सफर करती होगी ,तो कैसा लगता होगा उसे ?कितना तड़पती होगी मन ही मन ..छटपटाती होगी |फूली भी तड़प रही है..छटपटा रही है |क्या कोख होना स्त्री की सजा है ?नहीं तो इस सजा से स्त्री को मुक्ति कैसे मिलेगी ?|    

Monday 5 December 2011

अंधविश्वास

दीवाली के एक दिन पूर्व प्रातःदलिदर को सूप से बाहर हांकने की प्रथा है ताकि दूसरे दिन लक्ष्मी बिना रूकावट गृहप्रवेश कर सकें |इस प्रथा को जिलायें रखती  हैं महिलाएं |बिना इस बात की चिंता किये कि यह प्रकारांतर से उनके ही खिलाफ है |यह उसी तरह है,जैसे दहेज न ला पाने वाली बहू को घर से निकालकर या जलाकर नई बहू लाई जाती है |इस वर्ष कई ऐसी घटनाएँ हुई हैं |क्या यह जरूरी नहीं कि स्त्रियों द्वारा इन कुप्रथाओं का विरोध किया जाए ?

कितना अंतर है ?

भतीजे की शादी में खाने की बर्बादी देखकर मन दुखी हुआ|प्लेटों में इतना कुछ छूटा था कि जाने कितने भूखों का पेट भर जाता |दूसरे दिन कुछ गरीब बच्चे अपनी थालियों के साथ दरवाजे पर पंक्तिवत बैठे दिखे |वे खाना माँग रहे थे |निश्चित रूप से बासी |भाई ने जब गत्ते-भर पुडियाँ उनके सामने रखवाईं,तो उनकी आँखें खुशी से चमकने लगीं |वे बार -बार पुडियों को निकालकर देखते और जोर से किलकारी मारते |उनके लिए वह कीमती चीज थी |उनकी खुशी से मेरी आँखें भर आईं|आज भी कितना अंतर है दो इंसानों के बीच |कितनी खाई है दो नागरिकों के बीच और कितना अंतर है दो खुशियों के बीच !