Monday 13 February 2012

प्रेम-एक विचार



प्रेम जीवन का रंग महोत्सव है |कोमल अनुभूतियों का समुच्चय |स्त्री-पुरूष के बीच दुःख-सुख,संयोग-वियोग,राग-द्वेष,त्वरा-आवेग,उद्वेलन सब का आवर्तन-प्रत्यावर्तन |एक खूबसूरत अहसास |प्रेम में स्त्री प्रकृति बन जाती है|फूल,तितलियाँ,चांदनी,सागर,नदियां,झरने सभी तो शामिल हो जाते हैं उसके प्रेम में,यहाँ तक कि सारी दुनिया भी |कितना अच्छा लगने लगता है जीवन..कम भी लगता है|वक्त खलनायक की तरह हो जाता है,जो प्रेम में व्यवधान डालता है|मुझे बार-बार लगता है कि प्रकृति और पुरूष सृष्टि के प्रारम्भ में अलग-अलग नहीं,एक रहे होंगे |किसी कारण उनको दो भागो में बाँट दिया गया होगा |तभी तो दोनों एक-दूसरे के लिए तड़पते हैं|अवसर मिलते ही पूर्व रूप में आने की कोशिश करते हैं |अनेकानेक प्रेम-कहानियाँ प्रकृति व पुरूष के एकमेव होने की ही कहानियाँ हैं |कहाँ रोक पाती हैं आसुरी शक्तियाँ दो दिलों को मिलने से ?असुर भी तो अक्सर प्रेम में पड़ जाते हैं |बड़े से बड़ा अपराधी प्रेम के कारण विनाश को प्राप्त हुआ,क्योंकि प्रकृति ने उससे प्रेम नहीं किया |प्रकृति तो सिर्फ पुरूष से प्रेम कर सकती है |उस पुरूष से,जिसमें स्त्री समाहित है |पुरूष भी उसी स्त्री से प्यार करता है,जिसमें पुरूष समाहित है |दोनों जब एक-दूसरे में खुद को पाते हैं,तभी उनमें आकर्षण के बीज अंकुरित होते हैं |जहाँ भी ऐसा नहीं होता हैं,वहाँ प्रेम भी भ्रम साबित होता है|