Sunday 22 January 2012

विचार



अपने लिए जगह बनाती स्त्री को “परिवार- भंजक” माना जाता है |वह घर से बाहर निकली है, तो शोषण के लिए तैयार होकर निकले ,वरना घर की सुरक्षा के साथ मिलनेवाले निकट सम्बन्धियों के ‘अतिचारों” पर चुप्पी साधे |बोले तो “बेशर्म” यानी सबके लिए उपलब्ध होने का अवसर |जो भी अधिकार मिले हैं ,उसका सही उपयोग ही कहाँ हो रहा है| गर्भपात के अधिकार को ही लें |उसे इस अधिकार के साथ ही मिली है- कन्या –भ्रूण की बेदखली |स्त्री पुर्विवाह करे ,तो कोंचती निगाहें |अकेली रहे तो प्रश्नचिह्न !चौके और शयन कक्ष भी उसके बधस्थल|ऐसे में जरूरी है कि वह अपने पक्ष में खुद लड़े ,और अपने हक के लिए खुद खड़ी हो |जब तक यह लड़ाई अपनी और से नहीं लड़ी जायेगी ,स्त्री के पक्ष में नहीं जायेगी |भारत की विडम्बना यह है कि यहाँ स्त्री के लिए आज भी उन्नीसवीं सदी की और पुरुषों के लिए  इक्कीसवीं सदी की आचार संहिता है |
वैसे यह भी सच है कि सामाजिक परिवर्तन की गति सदी के अंतिम दशक में काफी तेज रही है और भूमंडलीकरण ने सभी वर्ग की स्त्रियों को बाहर निकलने के अवसर दिए हैं |आर्थिक स्वावलम्बन के कारण भी स्त्रियां कई अर्थों में बदली हैं ,कई वर्जित क्षेत्रों में उन्होंने ठोस दावेदारी प्रमाणित की है |नए वैज्ञानिक शोधों के अनुसार भी जैविक दृष्टि से स्त्रियां दोयम दर्जे की नहीं हैं |यह एक नई स्त्री है ,जो जीवन और सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन का संकेत देती है ,पर यह जानना भी बेहद जरूरी है कि ये नई स्त्रियां कौन हैं और कितनी हैं ?और भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के तहत उनकी गांठ में कितनी पूँजी ,कितनी आजादी है और वे खुद को कितना सामने ला पा रही हैं ?

Saturday 21 January 2012

तुम करो तप पुण्य हम करें तो पाप|अच्छा है इंसाफ !



वैसे तो जाने कब से स्त्री-पुरूष के लिए यह दोहरी नीति चली आ रही है और समाज के रगों में यह इतना घुल गया है कि किसी को इसमे कुछ गलत नहीं लगता ,पर न्याय तो यही कहता कि यह विभेद मिटना चाहिए |स्त्री सदियों से इस न्याय के लिए लड़ रही है |पहले अंदर-अंदर ही घुटती थी,अब खुलकर चीखने लगी है |कोई यूँ ही तो नहीं चीखता है|असहनीय पीड़ा होती है,तभी चीखता है |पर समाज की दृष्टि में यह स्त्री की बगावत है| गरिमा और शालीनता के खिलाफ बगावत!उसने फतवा जारी कर दिया कि जो चीखती है,वह अच्छी स्त्री नहीं है |अच्छी स्त्री में धैर्य,त्याग और विनम्रता होती है |वह अपने पुरूष की खुशी के लिए जीती-मरती है | यदि उसके पुरूष को हजार स्त्रियाँ और चाहिए,तो अच्छी स्त्री को कोई एतराज नहीं होना चाहिए|आखिर वह पुरूष है,कोई स्त्री तो नहीं कि छूने मात्र से अपवित्र हो जाए|जो पुरूष यह कहते हैं कि यह पुराने जमाने की बात है,वे खुद को टटोलकर देखें कि क्या एकाधिक स्त्रियों की कामना से उनका मन उद्वेलित नहीं होता रहता?यह अलग बात है कि ना तो स्त्री इतनी आसानी से उपलब्ध है,ना ही सबके पास इतनी सामर्थ्य है |पर ज्यों ही स्थिति जरा भी अनुकूल हुई,वह हाथ-पाँव मारने से बाज नहीं आता|अपने लिए इतनी आजादी चाहने वाला पुरूष अपनी स्त्री को आज भी सती-सावित्री के रूप में देखना चाहता है|किसी की कारण से स्त्री के पैर फिसले नहीं कि उसके साथ क्या-क्या नहीं किया जाता ?शादी के बाद की बात तो छोड़ दें,यदि शादी से पूर्व भी स्त्री के किसी से भावनात्मक रिश्ते भी रहे हों,तो वह बर्दाश्त नहीं कर पाता |यह सिर्फ इसी देश की बात नहीं है,दूसरे देशों में भी यह दोहरी नीति व्याप्त है |अभी हाल में इटली के ९९ वर्षीय बुजुर्ग एंटोनियो सी ने अपनी ९६ वर्षीया पत्नी रोसा सी से तलाक माँगा है| क्योंकि उसे अभी-अभी पता चला है कि उसकी पत्नी का १९४० में किसी से प्रेम था |’द डेली टेलीग्राफ’की रिपोर्ट के अनुसार अपने गुप्त प्रेम-प्रसंग के दौरान महिला ने अपने प्रेमी को खत भी लिखे थे |वैवाहिक जीवन के आठ दशक से ज्यादा समय साथ गुजारने और पाँच बच्चों और दर्जन-भर नाती-पोती तथा एक प्रपोत्र के बावजूद ,बुजुर्ग पत्नी के इस विश्वासघात को भुला नहीं पा रहा है |अब इसे क्या कहा जाए|सिद्ध तो यही हुआ कि स्त्री की यौन-शुचिता विदेशी पुरूषों के लिए भी उतनी ही मायने रखती है,जितनी इस देश के पुरूषों के लिए |पर पुरूष की यौन-शुचिता !क्यों उसके लिए अधिकाधिक स्त्रियों से रिश्ता गर्व का विषय है |’द डर्टी पिक्चर’का नायक सिल्क से पहली ही मुलाक़ात में गर्व से बताता है कि –‘वह अब तक ५०० से अधिक ट्यूनिंग कर चुका है|’सभी यहाँ तक कि उसकी पत्नी भी उसके गलीज चरित्र को जानती है |पर क्या उसे कोई फर्क पड़ता है ?तब भी उसके नाम से फ़िल्में चलती हैं |सिल्क जैसी लड़कियाँ उससे ट्यूनिंग के लिए आतुर रहती हैं और पत्नी गर्व से उसकी संतान को गोद में लिए फिरती है |और सिल्क ...उसके भाई से संपर्क बनाते ही द्रोपदी यानी डर्टी हो जाती है |सिल्क के हारने का वह जश्न मनाता है और कहता है –‘ऐसी औरत का यही होता है|’ ऐसी औरत यानी डर्टी औरत |पर ऐसी औरत बनाता कौन है ?अजीब न्याय है ?औरत को डर्टी करने वाला पुरूष डर्टी नहीं कहलाता |ग्लैमर की दुनिया के चमकते सितारे अक्सर छल-प्रपंच और विश्वासघात के शिकार होते रहे हैं |दक्षिण की सेक्सी क्वीन ‘सिल्क-स्मिता’ही नहीं,धीर-गम्भीर,विचारशील ‘मीनाकुमारी’,चर्चित कोरियन सुपर मॉडल ‘किम डूऊल’,बिंदास ‘प्रवीन-बॉबी’यहाँ तक कि हॉलीवुड की खूबसूरत हीरोइन ‘मर्लिन-मुनरो’को भी ग्लेमर की दुनिया के जगमगाती रोशनी के पीछे के काले,घने अँधेरे ने लील लिया था |उनकी अस्वाभाविक मृत्यु पर सारी दुनिया रोई,पर क्या दुनिया ने सोचा कि उन स्थितियों को बदला जाए,जिसके कारण अद्भुत सौंदर्य,प्रतिभा-सम्पन्न स्त्रियों का इतना दुखद अंत होता है|उपरोक्त  सारी स्त्रियों का बस एक ही अपराध था कि उन्होंने सामान्य स्त्री ना होते हुए भी प्रेम की आकांक्षा की |जिस पुरूषवर्चस्ववादी समाज में यौन-शुचिता का इतना महत्व है,वहाँ उन्हें कैसे प्रेम मिलता ?जिन्हें मेरी बातों पर विश्वास नहीं हो रहा है,वे मर्लिन मुनरों के सुसाइड नोट को पढ़ लें –‘मैं उस बच्चे जैसी हूँ,जिसे कोई नहीं चाहता |’ 

Tuesday 17 January 2012

अतिथि देवो भव



उड़ते खग जिस ओर मुँह किए समझ नीड़ निज प्यारा
अरुण, यह मधुमय देश हमारा |
जयशंकर प्रसाद की कविता की यह पंक्तियाँ यह बताती हैं कि हमारा देश सभी को आश्रय देता है |विदेशी पक्षी तक इसे अपना घर समझ कर आते हैं |पर आज इन प्रवासी पक्षियों की जो हालत भारत में हो रही है,उसे क्या कहा जाए ?ये विदेशी पक्षी ५०० रूपये पीस बिक रहे हैं |कुछ पक्षी-तस्कर बेखौफ इनका धंधा कर रहे हैं |वर्दीधारी भी उनसे मिले हुए हैं |इन पक्षियों की एडवांस बुकिंग करानी पड़ती है |बुकिंग के दो दिन बाद [पुराने ग्राहक को ही ] ये उपलब्ध कराए जाते हैं,वह भी जिन्दा नहीं काटकर |गोरखपुर शहर में भी कई स्थानों पर यह धंधा चोरी-छिपे चलाया जा रहा है |इस पक्षियों की कीमत मुँहमांगी मिलती है |बखिरा झील में सैकड़ों नरकटो के झुण्ड हैं,जहाँ इन पाखियों के घोंसले होते हैं |वहीं वे अपने जोड़े के साथ रहते हैं |शिकारी मुँह-अँधेरे ही मछुआरों के वेश में छोटी डोंगी से उन झुरमुटों तक जाकर इनका शिकार करते हैं |उनकी नाँव भी वही छिपी रहती है | निश्चित रूप से वन-विभाग और पुलिस विभाग शिकारियों के क्रिया-कलाप से अनभिज्ञ नहीं होगी |लाख नियम-कानूनों के बाद भी पक्षियों की तस्करी का जारी रहना क्या साबित करता है ?दोष किसकों दें खाने वालों को कि माल बेचने वालों को या देश की मौजूदा कानून व्यवस्था को –निर्णय आप करें |मैं तो यह समझती हूँ कि दोषी को सजा मिले क्योंकि देश की खास विशेषता इस कारण प्रभावित हो रही है |’अतिथि देवो भव’वाले देश में प्रवासी पक्षियों का शिकार अपराध से कम नहीं है |

Friday 13 January 2012

औकात

मेरी पड़ोसन का नौकर है रमेसर |उसके बेटे की ही उम्र का होगा |घरेलू काम-काज के लिए गाँव से ले आई थी |शहर में महरी से उनकी नहीं पट पाती थी |रमेसर के माँ-बाप ने पहले तो मना कर दिया,पर जब उसने उन्हें बच्चे को पढाने-लिखाने का लालच दिया,तो उन गरीबों की आँखों में एक सपना जगा कि यहाँ रहकर तो गुल्ली-डंडा खेलेगा|बहुत हुआ तो बड़ा होकर रिक्शा खींचेगा |वहाँ रहकर पढ़-लिखकर कुछ बन जाएगा |घर आकर उसने उदारता से अपने बेटे के पुराने कपड़े,काँपी-किताब रमेसर को दे दिया था|रमेसर की आँखों में खुशी चमकी थी |पर धीरे-धीरे पड़ोसन को काम शेष रहते उसका पढ़ना-लिखना खलने लगा |एक दिन उसे कसकर डपट दिया,तो सुधरा |अब काम खत्म होने का इंतजार करता है और काम को खत्म न होते देख उदास हो जाता है |सुबह जब पड़ोसन का बेटा स्कूल-यूनिफार्म में सजकर स्कूल-बस में बैठता |वह उसे हसरत से देखता हुआ पानी की बोतल थमाताऔर उदास लौटता |वह तब खुश होता,जब पड़ोसन का बेटा अंग्रेजी-धुन पर नाचता |उस समय बर्तन माँजते उसके हाथ-पैर भी थिरकने लगते |पड़ोसन बेटे के लिए तरह-तरह के व्यंजन बनाती,तो वह ललचाई दृष्टि से देखता |पड़ोसन नजर लगने के डर से उसे एक-दो टुकड़ा देकर बाहर जाने को कहती |वह इस बात को समझ जाता और देर तक बाहर उदास बैठा रहता |पड़ोसन को  सबसे अधिक बुरा तब लगता है,जब वह उसे खरीदारी का सामान ढोने के लिए ले जाती है और वह जूते,कपड़े,चाकलेट की दूकान पर हर चीज को अजूबे की तरह देखकर उन्हें छूने की कोशिश करता है |कभी-कभी दबी जुबान से अपने लिए कुछ खरीदने को भी कहता है |घर पहुँचकर वह उस पर चिल्लाने लगती है कि नौकर हो औकात में रहो|

Saturday 7 January 2012

दूध

महरी के दो नन्हें बेटे उसके साथ-साथ काम पर जाते हैं |बड़े की उम्र पाँच वर्ष तो छोटी की उम्र तीन वर्ष है |महरी जब तक घरों में काम करती है,बच्चे बाहर या ओसारे में खेलते रहते हैं |मालकिन का दिया रूखा-सूखा,बासी रोटी -भात खाकर खुश रहते हैं |उस दिन लाख मिन्नतों के बाद मालकिन का बेटा दूध पीने को राजी हुआ था और नाक-भौंह चढ़ाए दूध पी रहा था |महरी के बेटे खेलते-खेलते उधर आ निकले |छोटे ने दूध देखा और बड़े से पूछा-'भैया ये क्या है?'बड़े ने बताया-'दूध|'
-'दूध मीठा होता है क्या?'-छोटे ने पूछा |
"नहीं ..नहीं दवा-सा कड़वा होता है|"बड़े ने समझदारी दिखाई |
-'छिः,गंदा लड़का है |दवा पीता है |'छोटे ने भी अक्लमंदी का परिचय दिया |
उनको दूध की तरफ देखते पाकर मालकिन चिल्लाई-जाओ बाहर नजर लगाओगे क्या ?खुद तो घास-भूसा भी पचा लेते हो,मेरे बेटे को तो दूध भी नहीं पचता | 

Friday 6 January 2012

राहत

गोरखपुर के गोलघर के सुप्रसिद्ध काली मंदिर के बाहरी दीवारों से एक बूढ़ी,बीमार औरत देर रात के सन्नाटे में  टिका दी गयी थी |निश्चित रूप से कोई अपना ही रहा होगा |वह पति-जिसने उसके यौवन का सुख उठाया होगा या वह पुत्र-जो उसके रक्त पर पला होगा |वे अपने -जिसने उसके श्रम का दोहन किया होगा |कोई भी हो सकता है,पर सुबह-सुबह भक्त-जनों ने उसे मंदिर की बाहरी दीवारों से टिके हुए देखा और अपनी पवित्रता बचाते हुए मंदिर में गए और लौटते हुए उसे हिकारत से देखा |कुछ जो दयावान ज्यादा थे,उन्होंने दो-चार पैसे भी उसकी तरफ फेंक दिए |मंदिर के बाहर स्थाई रूप से बैठने वाले पेशेवर भिखारियों ने उन पैसों को हथिया लिया |औरत में उठने-बैठने की शक्ति भी नहीं थी |वह निर्जीव वस्तु की तरह लग रही थी.जबकि जिन्दा थी |उस दिन कोई मंत्री शहर में आने वाले थे,इसलिए  उन सड़कों-गलियों का सुन्दरीकरण किया जा रहा था,जिधर से माननीय को गुजरना था |मंदिर के बाहर के सुंदरीकरण में वह बदसूरत औरत बाधक दिख रही थी |इसलिए सफाई-कर्मियों ने उसे उठाकर मंदिर के पीछे कचरे के पास वाली दीवार से टिका दिया |सबने राहत की सांस ली |

Sunday 1 January 2012

स्त्री की मर्मान्तक चीख



स्त्री चाहें कितनी भी आधुनिक,हॉट,बिंदास और मशहूर हो जाए,उसके भीतर की पुरातन स्त्री कभी नहीं मरती |वह पुरातन स्त्री,जो सच्चा प्रेम चाहती है |अपना घर-संसार चाहती है और यहीं वह मात खा जाती है,क्योंकि समाज का संस्कार और पुरूष की मानसिकता ऐसी नहीं है कि बिंदास-बोल्ड स्त्री को प्यार व सम्मान दे सके|उसके लिए वह बस मन-बहलाव का साधन-मात्र होती है |शायद ही कोई ऐसा पुरूष मिले,जो बदनाम स्त्री को सहर्ष अपनाये और समाज में उसे लेकर गर्व के साथ  चल सके |अगर विरले कोई पुरूष ऐसा करता भी है,तो समाज इस कदर उसके पीछे पड़ जाता है कि वह पुरूष डिप्रेशन में चला जाता है या पीछे हट जाता है |इस सम्बन्ध में प्रेमचन्द की कहानी ‘आगापीछा’को देख सकते हैं |इस कहानी में जाति का हरिजन एक युवक वेश्या के प्रेम में पड़ जाता है और उससे विवाह करना चाहता है,पर स्थिति ऐसी बनती है कि उसे इतना आगा-पीछा सोचना पड़ता है कि उसे सन्निपात हो जाता है |वेश्या हतप्रभ रह जाती है कि कैसा है यह समाज,जो उसके पैरों पर लोट सकता है,पर इज्जत की जिंदगी जीने नहीं देना चाहता ?यह सच है कि समाज ऐसी स्त्री को सम्मान नहीं देता,जो उसके द्वारा तय मानदंडों पर खरा नहीं उतरती |ऐसी स्त्री को तब-तक तो कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता,जब तक वह युवा तथा बुलंदी पर होती है और समाज की परवाह नहीं करती,पर ज्यों ही वह उम्र व कामयाबी के ढलान पर आती है,समाज अपना भरपूर बदला लेता है |इसी कारण वेश्याएं या बिगड़ी कही जाने वाली स्त्रियाँ बुलंदी पर रहते ही अपनी आर्थिक स्थिति को इतनी मजबूत कर लेती थीं,कि ढलान पर उन्हें किसी का मुहताज न होना पड़े |चमकदार फ़िल्मी दुनिया की कहानी भी इससे अलग नहीं है |वहाँ भी कई नायिकाओं को अपनी ढलान पर ऐसे ही दारूण यथार्थ का सामना करना पड़ता है| आज भी फ़िल्मी-दुनिया के जगमग उजालों के पीछे कई थरथराते,उदास और गर्दिश में डूबे चेहरे हैं,जिन्हें आज कोई नहीं पूछता|एक समय इनकी तूती बोलती थी | इनमें समझदार नायिकाओं ने तो अपनी जिंदगी से समझौता कर लिया,पर जो नहीं कर पाई,उनका अंत बड़ा ही दुखद रहा |उनकी दास्तान बड़ी ही मार्मिक है |इन्हीं मार्मिक दास्तानों में एक दास्तान ‘सिल्क स्मिता’की भी है |दक्षिण-भारतीय अभिनेत्री ‘विजय-लक्ष्मी’,जो पहले‘स्मिता’फिर 'सिल्क स्मिता' कहलाई,अस्सी के दशक की स्वतंत्र स्त्री थी |बेहद बोल्ड,बिंदास,हॉट,सेंसुअलिटी की रानी |उसने अपनी देह के बल पर एक्स्ट्रा से‘मोस्टवांटेड’अभिनेत्री का सफर तय किया,पर उसे इसकी भरपूर कीमत चुकानी पड़ी |वह आज का समय नहीं था,जब लड़कियाँ अपने जीवन के बारे में खुली हुई हैं और जो कुछ करती हैं,उस पर गर्व करती हैं |उनके कपड़े भी उस तरह आलोचना के विषय नहीं हैं और अगर है भी,तो वे उसकी परवाह नहीं करतीं | सिल्क समय से पूर्व पैदा हो गयी स्त्री थी,इसलिए उसे ज्यादा बोल्ड कहा गया |उसके कपड़े भी बोल्ड माने गए,जबकि उसकी बिकनी,साड़ी,हॉट पैंट और बुनाई वाले ब्लाउज सब कुछ उस दौर की स्त्रियों को खूब पसंद आईं थीं |सिल्क से ही दक्षिण-भारतीय अभिनेत्रियों को'लो वेस्ट साड़ी’पहनने की प्रेरणा मिली थी |फैशन की दुनिया को उसने अपनी कल्पनाओं से खूब समृद्ध किया |दर्शकों को नया सौंदर्य-बोध भी सिल्क से मिला |वह गोरी-छरहरी नहीं थी|आज की हीरोइनों सा जीरो फीगर उसके पास नहीं था |उसका सौंदर्य आम स्त्री जैसा था |यही कारण है कि आम भारतीय स्त्रियों में वह मर्दों से ज्यादा लोकप्रिय थी |अपने देशी यौवन से उसने जिस मांसलता व मादकता का परिचय दिया,वह अद्भुत था |मादकता के नए बिम्बों को उसने जिस तरह आकार दिया,वैसा हिंदी-सिनेमा में भी बहुत कम अभिनेत्रियों ने जीवंत किया था | एक और खास बात उसमें यह थी कि उसने आम भारतीय स्त्रियों की बरसों से दबी-कुचली दैहिक संतुष्टि की इच्छाओं को पर्दे पर जीवंत कर दिया |उसने उन भावनाओं को पर्दे पर जीने की कोशिश की,जिसकी झलक सिर्फ खजुराहों की मूर्ति-शिल्प में देखने को मिलती है |सिल्क सिर्फ पर्दे पर ही नहीं,बल्कि जीवन में भी उतनी ही बोल्ड,निर्भय व जीवंत थी |वह जिंदगी को भरपूर जीने में विश्वास करती थी |उसके अनुसार जिंदगी एक ही बार मिलती है |ऐसी सोच,ऐसा जीवन कोई अपराध नहीं,फिर क्यों सिल्क अपने जीवन-काल में वह सम्मान नहीं पा सकीं ?यह जानने के लिए हमें बीस वर्ष से भी पीछे जाना पड़ेगा|निश्चित रूप से उस समय का समाज स्त्री के मामले में और भी ‘बंद’रहा होगा |स्त्री की उन्मुक्तता अपराध से कम नहीं होगा |ऐसे समय ने समय से पूर्व पैदा हो गयी सिल्क को खराब स्त्री मान लिया,क्योंकि उसके पास मादक यौवन था,उसकी अदाओं में शराफत नहीं थी,ना ही उसकी आँखें शर्म से झुकती थीं|उसे ना तो द्विअर्थी व बोल्ड संवाद बोलने में हिचक थी,ना बोल्ड सीन देने में |भला ऐसी स्त्री को दोहरी जिंदगी जीने वाला दोमुंहा समाज कैसे स्वीकार कर सकता था?
ऐसा नहीं कि सिल्क को लोकप्रियता नहीं मिली |१९८० से १९८३ तक उसकी लोकप्रियता का यह आलम था कि लीक से हटकर फ़िल्में बनाने वाले ‘बालू महेंद्रा’और ‘भारतीय राजा’को भी उसे काम देने पर मजबूर हो पड़ा |बालू महेंद्रा ने सिल्क को ‘मूरनम पिराई’ में खास रोल दिया था |’सदमा’में फिर उसे रिपीट किया |मसाला फ़िल्में तो मानों उसके बिना चलती ही नहीं थीं |अच्छे-अच्छे निर्माता अपनी फिल्म में उनका एक गाना जरूर रखते थे |कई तो सिल्क के गाने की प्रतीक्षा में अपने फिल्म का प्रदर्शन रोके रहते |हिंदी-निर्माताओं ने भी उनकी लोकप्रियता को भुनाया |सिल्क को फिल्मों में पहला ब्रेक १९८० में ‘वाडी चक्रम’से मिला था,फिर वह नहीं रूकी |अपने दस साल के कैरियर में उसने पांच-सौ फ़िल्में की और ग्लैमर के आसमान की चाँद बनने का उसका सपना पूरा हुआ |कौन जानता था कि आन्ध्रप्रदेश के ‘राजमुंदरी केएल्लुरू’में २ सितम्बर १९६० को बेहद गरीब परिवार में जन्मी वह एक दिन स्टारों की बेहतरीन जिंदगी जी पाएंगी |उनके माता-पिता इतने गरीब थे कि चौथी कक्षा के बाद उसे सरकारी स्कूल भी नहीं भेज पाए थे |पहला काम भी उसे फिल्मों में ‘मेकअप असिस्टेंट’का मिला,जहाँ से उसके सपनों ने उड़ान भरी थी |उसकी सफलता के पीछे उसकी कड़ी मेहनत थी |उसने तीन-तीन शिफ्टों में काम किया और एक-एक गाने के पचास-पचास हजार तक पारिश्रमिक लिया,पर अपने शोहरत के उस दौर में  वह अपने निजी जीवन को संतुलित नहीं रख सकी |इस भूल की कीमत उसे अपने कैरियर के ढलान पर आते ही चुकानी पड़ी |जिंदगी में उसे लगातार छल-कपट,धोखेबाजी का सामना करना पड़ रहा था,जिसके कारण मनोवैज्ञानिक रूप से कमजोर पड़ती गयी |एक करीबी मित्र ने उसे फिल्म-निर्माता बनने का लालच भी दिया,पर दो फिल्मों के निर्माण में ही उसे दो करोड़ का घाटा हो गया |तीसरी फिल्म शुरू तो हुई,पर पूरी ना हो सकी |बैंक में निरंतर रकम कम हो रही थी,उसपर उसे काम भी नहीं मिल पा रहा था |स्टार की जीवन-शैली भी खर्चीली ही होती है |इन सब दवाबों ने उसके मानसिक संतुलन को हिला दिया |२३ सितम्बर १९९६ को उसकी लाश उसके घर के पंखे से झूलती मिली थी,जिसे आत्महत्या का केस मानकर पुलिस ने उसकी फाईल बंद कर दी | इस तरह एक बोल्ड स्त्री का दुखद अंत हुआ और आम स्त्री ने सोच लिया कि पारम्परिक स्त्री बने रहने में ही भलाई है,भले ही परम्परा के पिंजरे में दम घुट जाए |कम से कम ऐसे मरने से सम्मान तो मिलेगा,जो सिल्क जैसी स्त्रियों को कभी नहीं मिलता |
बीस वर्ष के बाद सिल्क ‘द डर्टी पिक्चर’के माध्यम से फिर चर्चा का विषय बनी है |जितने मुँह उतनी बात | सहानुभूति कम थुक्का-फजीहत ज्यादा है |’देह की आजादी’,‘स्त्री-विमर्श’के इस समय में सिल्क की तरफ उठती अंगुलियाँ बता देती हैं कि बीस वर्ष पूर्व सिल्क के प्रति लोगों की क्या धारणा रही होगी?क्यों उसे प्यार व सम्मान नहीं मिला?क्यों वह टूट गयी ? इस फिल्म ने एक बार फिर ‘देह’के बारे में सोचने पर विवश कर दिया है |प्राचीन काल से ही देह स्त्री का हथियार रहा है,पर यह कैसा हथियार है,जो अंततःउसे ही लहुलूहान करता है |देह के माध्यम से पाई सफलता कितनी क्षणिक साबित होती है |ना तो इस सफलता से सम्मान मिलता है,ना इसमें स्थायित्व होता है |यह सब जानने के बाद भी स्त्रियाँ ‘देह’ बनने को क्यों ब्याकुल हैं ?सिल्क यदि ‘दिमाग’के कारण जानी जाती,तो क्या उसका अंत इतना ही भयावह होता ?विज्ञापन,फिल्में व बाजार स्त्री की देह का मनमाना इस्तेमाल करके उससे लाभ कमाता है और जब चाहे उठाकर बाहर फेंक देता है |स्त्री की अस्मिता उसके अस्तित्व पर कितना बड़ा खतरा है ये !इसके बावजूद आज की स्त्री सौंदर्य को टिकाऊ बनाने के पीछे इतनी पागल है कि ‘दिमाग’बनने की दिशा में कुछ सोच ही नहीं रही |सिल्क की विवशता तो एक बार समझी भी जा सकती है कि चौथी पास,साधारण रूप-रंग की लड़की के पास देह-प्रदर्शन के अलावा कोई चारा नहीं था |ग्लैमर का चाँद बनने और स्टार की तरह जीवन जीने की आकांक्षा ने उसे आत्मा को मारकर समझौते की राह दिखाई,पर समर्थ अभिनेत्रियों को क्या हुआ है,जो देह उघाड़कर फिल्म-निर्माताओं की दुकान चला रही हैं ?सिल्क की जिंदगी को भी फ़िल्मी-बाजार ने भुनाया,अब उसकी मौत को भी भुना रही है |यह विडम्बना नहीं तो और क्या है कि ज्यादातर लोग फिल्म के अश्लील डांस,गाने व दोहरे सम्वाद देखने-सुनने जा रहे हैं|सिल्क की ट्रेजडी लोगों को सही जगह छू भी नहीं रही है,ना ही उसकी मर्मान्तक चीख किसी को सुनाई पड़ रही है |ऐसा होता तो शायद समाज की मानसिकता में बदलाव की उम्मीद भी बंधती |सिल्क का दुखद अंत समाज के सामने एक प्रश्न है,तो देह को हथियार समझने वाली स्त्रियों के लिए एक सबक भी! फिल्म की सिल्क का एक प्रश्न आज भी उत्तर की प्रतीक्षा में है कि –‘जो डर्टी फिल्म बनाते,बेचते व देखते हैं,जब वे इज्जतदार माने जाते तो उसमे काम करने वाली अभिनेत्री क्यों गलत मानी जाती है?’स्त्री को हमेशा उपभोग की सामग्री माना गया |उसे बेचा-खरीदा गया |मनोरंजन की चीज बनाकर पेश किया गया,उपर से बदनाम भी किया गया |आज स्त्री को इसके खिलाफ खड़ा होना पड़ेगा,वरना सिल्क-स्मिताएं बनती रहेंगी और असमय मरती रहेंगी |