Friday 16 December 2011

कोख की विडम्बना



सीपी का हक
स्वाति की बूँद भर
कीमत मोती गढ़ने तक \
फिर खाली सीपी
सूखा तट |
स्त्री की कोख की विडम्बना पर बहुत पहले यह कविता लिखी थी और आज कलर्स पर ‘बालिका-वधू’की ‘फूली’चीख रही है –‘मेरा बेटा मुझे दे दो ||मैंने नौ महीने उसे कोख में रखा |अपने रक्त से सींचा |उस पर मेरा हक ज्यादा है |वह मेरी आँखों का सपना है ..उम्मीद है खुशी है ..मैं उसके बिना नहीं जी सकती |’वह पति-सास,पड़ोसिनों सबसे फरियाद करती है,रोती-गिड़गिड़ाती है,अनकिये अपराधों के लिए भी माफ़ी मांगती है,पर कोई नहीं सुनता |सताई गयी स्त्री की आवाज भला कौन सुनता है?पड़ोसिनों के लिए यह ‘दूसरे घर का मामला’ है,तो पति और सास की यह सोची-समझी रणनीति|फूली बाल-विधवा थी |’नाता-प्रथा’से इस घर में लाई गयी थी |’नाता-प्रथा’समाज द्वारा मान्य वह प्रथा है,जिसमें विवाहित पुरूष बिना विवाह के किसी स्त्री [विधवा या किसी वजह से अकेली]को घर लाता है |उससे स्त्री व सन्तान-सुख प्राप्त करता है |पर स्त्री को समाज और कानून से कोई सुरक्षा नहीं मिलती,वह पूरी तरह पति और उसके परिवार पर निर्भर होती है |वे चाहें उसे आजीवन रखे या घर से निकाल दें|वह किसी अधिकार का दावा नहीं कर सकती |फूली का तब तक मान-सम्मान किया जाता है,जब तक वह घर को वारिस नहीं दे देती |उसके बाद ही उसके खिलाफ षड्यंत्र शुरू हो जाता है |पहले बच्चे को ऊपर के दूध की आदत डाली जाती है,फिर एक दिन ब्याहता पत्नी को बच्चा सौंप दिया जाता है |फूली के विरोध पर पति उसे पीटते हुए कहता है –‘ऐसी औरतें सिर्फ नाते लायक होती है,घर बसाने लायक नहीं |’ सास एक औरत होने के बावजूद कहती है –अभी जवान हो,जैसे हम नाते पर लाए थे,वैसे कोई और ले जाएगा |
इतना अपमान!इतनी अमानवीयता!इतना निर्मम प्रहार! क्या इसलिए कि फूली एक बाल-विधवा थी?भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही विधवा निकृष्टतम प्राणी मानी जाती रही है,भले ही वह बचपन में ही विधवा हो गयी हो |बाल-विधवा से जीवन के सारे रंग छीन लिए जाते थे |उसके सामने बस दो ही विकल्प थे |या तो वह तीर्थ-स्थान पर रहकर संन्यासिनी का जीवन जीये या समाज में रहकर कठोर नियमों का पालन करे| इसके पूर्व एक और रास्ता था -सती बन जाने का ,पर उसपर रोक लगा दिया गया था |बाल-विधवाएं ना तो समाज में चैन से जी पाती थीं,ना ही तीर्थ-स्थानों पर |दोनों जगह उनकी दुर्दशा थी | संयम-नियम के बावजूद उन्हें जवान तो होना ही होता था|और जवान होते ही उन पर कहर टूट पड़ता था |अपने ही घर-परिवार के मर्द और  बाहर के शोहदे जब-तब उनसे छेड़खानी या बलात्कार करते रहते थे |और बात खुलने पर सारा दोष उन्हीं के सिर पर मढ़ देते थे|तीर्थ-स्थानों पर पंडे उनका शोषण करते थे|उनसे वेश्यावृति तक कराई जाती थी | आज भी तीर्थ-स्थानों पर विधवाएं बुरी अवस्था में हैं |उनके श्रम का भरपूर शोषण किया जाता है |सिर्फ वृन्दावन में ही इस समय तीन हजार १०५ निस्सहाय विधवाएँ हैं,जो मंदिरों में भजन-गायन करके जीवन-यापन करती है |पर प्रतिदिन आठ घंटे भजन गायन करने पर उन्हें मात्र छह से आठ रूपये मात्र मिलते हैं |इससे उनकी दयनीयता की सहज ही कल्पना की जा सकती है |यह अच्छी खबर है कि केन्द्र-सरकार विधवाओं के भजन-गायन को न्यूनतम मजदूरी से जोड़ने जा रही है और उत्तर-प्रदेश सरकार से भी यह करने को कहा गया है |अब यह हो जाए तो बड़ी बात होगी |अभी तो उनकी हालत ऐसी है कि उनकी दुर्दशा  देखकर हाल में ही वृन्दावन आई भूतपूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर की पत्नी रो पड़ी |उनका कहना था कि यहाँ के एन.जी.ओ भी सक्रिय नहीं हैं |यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि १८५६ में भी अपने ‘राज्य-हड़प’नीति के लिए कुख्यात लार्ड डलहौजी तक भारत की विधवाओं की बुरी स्थिति से द्रवित होगया था|उसने ही ‘विधवा-पुनर्विवाह अधिनियम [१८५६]को पारित किया,जोकि ईश्वरचंद विद्यासागर की महान उपलब्धि मानी गयी थी |विदेशी भी जिन विधवाओं की बुरी हालत से द्रवित हो जाते हैं,उनसे उनके ही अपने मुँह फेरे रहते हैं |दया-ममता के लिए सुविख्यात इस देश के लोगों की इस संवेदनहीनता को क्या नाम दिया जाए|
आज भी स्त्रियों की दशा में खास सुधार नहीं हैं |कोख की आजादी वह प्राप्त नही कर पाई है |यदि यह आजादी मिल गयी होती,तो ना तो इतने कन्या-भ्रूण मारे जाते,ना ही उसे अपनी कोख किराए पर देनी पड़ती |जो लोग यह कहते हैं कि इसमें स्त्री की अपनी इच्छा शामिल हैं,वे स्त्री को सही ढंग से नहीं जानते | कोई भी स्त्री ममता-रहित होकर सिर्फ पैसे के लिए अपनी कोख में शिशु सृजित नहीं कर सकती |अगर कोई ऐसा करती है,तो ऐसी मजबूरी समाज के मुँह पर तमाचा है |इस समाज ने स्त्री को अपनी कोख के बारे में कभी निर्णय नहीं लेने दिया |याद करें,कुंती ने इस विषय में स्वतंत्रता का परिचय दिया,तो उसका क्या परिणाम हुआ ?अपने प्रेम-परिणाम कर्ण का उसे परित्याग करना पड़ा,पर वहीं पति की सहमति से तीन अन्य पुरूषों से संतान प्राप्ति पर उसे गौरवान्वित किया गया |नैतिकता के मानदंड सत्ताधारी के हिसाब से बदल कैसे जाते है ? माधवी के बारे में सोचकर तो मन तड़प ही जाता है |माधवी को उसके पिता ने ऋषि को इसलिए सौंप दिया था कि दान देने के लिए श्यामवर्णी घोड़े कम पड़ गए थे |उनका कहना था कि विभिन्न राजाओं के पास माधवी को रेहन रखकर वे उसके बदले घोड़ें प्राप्त कर लें|यही किया गया,पर माधवी को ब्याज के रूप में राजाओं को संतान भी देनी पड़ी | कल्पना करें –अपनी संतान का मोह त्याग कर जब माधवी राजा-दर-राजा सफर करती होगी ,तो कैसा लगता होगा उसे ?कितना तड़पती होगी मन ही मन ..छटपटाती होगी |फूली भी तड़प रही है..छटपटा रही है |क्या कोख होना स्त्री की सजा है ?नहीं तो इस सजा से स्त्री को मुक्ति कैसे मिलेगी ?|    

Monday 5 December 2011

अंधविश्वास

दीवाली के एक दिन पूर्व प्रातःदलिदर को सूप से बाहर हांकने की प्रथा है ताकि दूसरे दिन लक्ष्मी बिना रूकावट गृहप्रवेश कर सकें |इस प्रथा को जिलायें रखती  हैं महिलाएं |बिना इस बात की चिंता किये कि यह प्रकारांतर से उनके ही खिलाफ है |यह उसी तरह है,जैसे दहेज न ला पाने वाली बहू को घर से निकालकर या जलाकर नई बहू लाई जाती है |इस वर्ष कई ऐसी घटनाएँ हुई हैं |क्या यह जरूरी नहीं कि स्त्रियों द्वारा इन कुप्रथाओं का विरोध किया जाए ?

कितना अंतर है ?

भतीजे की शादी में खाने की बर्बादी देखकर मन दुखी हुआ|प्लेटों में इतना कुछ छूटा था कि जाने कितने भूखों का पेट भर जाता |दूसरे दिन कुछ गरीब बच्चे अपनी थालियों के साथ दरवाजे पर पंक्तिवत बैठे दिखे |वे खाना माँग रहे थे |निश्चित रूप से बासी |भाई ने जब गत्ते-भर पुडियाँ उनके सामने रखवाईं,तो उनकी आँखें खुशी से चमकने लगीं |वे बार -बार पुडियों को निकालकर देखते और जोर से किलकारी मारते |उनके लिए वह कीमती चीज थी |उनकी खुशी से मेरी आँखें भर आईं|आज भी कितना अंतर है दो इंसानों के बीच |कितनी खाई है दो नागरिकों के बीच और कितना अंतर है दो खुशियों के बीच !

Friday 18 November 2011

मनोरंजन

ट्रेन के इंतजार में मैं प्रतीक्षालय में बैठी हुई थी| रात का समय ...उस पर कड़ाके की ठंड |स्वेटर ..शाल ...गर्म बिस्तर के बाद भी हाथ-पैर सुन्न हुए जा रहे थे|तभी बाहर प्लेटफार्म से गाने की आवाज आई |मासूम गले की लोच भरी आवाज,पर गीत के बोल अश्लील -'आधी-आधी रतिया बुढऊ माँगत बाने पानी|' गीत के हर बोल के साथ लोगों का अट्टहास गूंजता था|उत्सुकता के कारण खिड़की का दरवाजा थोड़ा-सा खोलकर देखा |एक दस वर्षीय बालिका लोगों से घिरी हुई थी ||जगह-जगह से फटे ..पेबंद लगे घाघरे-चोली में बड़ों की तरह अभिनय करती वह बार-बार वही गीत गाये जा रही थी |लोग आपस में मजाक करते उससे उसी गीत की फरमाईश कर रहे थे|शायद गीत की उत्तेजना में वे इंतजार और ठंड को भूले जा रहे थे |उन्हें तो यह भी याद नहीं था कि इसी उम्र की उनकी बेटी,बहन या पोती घर में आराम से सो रही होगी और यह पेट के लिए .....|वे मगन थे ....|ऐसा मनोरंजन और कहाँ मिलता उन्हें ,वह भी चंद पैसों में?|इससे ज्यादा पैसा तो वे पान की पीक में थूक देते हैं | 

Wednesday 16 November 2011

पंगा मत लो

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के दिन मेधा-केन्द्र विश्वविद्यालय में एक लड़की का दुपट्टा खींच कर अपमान किया गया |सैकड़ों पुरूष तमाशाई बने खड़े रहे |लड़की ने पुरूष तमाशाइयों पर थूका और बिफरी हुई गुरूजनों के पास गयी |गुरूजनों ने लड़की को समझाया -जो हुआ,उसे भूल जाओ |तुम लड़की हो ...चुप रहो ...|वे लड़के हैं,कुछ भी कर सकते हैं तुम्हारे साथ|पढ़ने के लिए तुम्हें रोज यहाँ आना है|कहाँ तक कोई तुम्हारी रक्षा करेगा ?लड़कों से पंगा मत लो |

Sunday 6 November 2011

ये कैसा प्रेम ?


रात के बारह बजे थे |अभी –अभी बड़ी मुश्किल से उसकी आँखें लगी थीं |तभी ट्रिन...ट्रिन ..ट्रिन लगातार फोन की घंटी बजने लगी |उसने घड़ी की तरफ देखा और झुंझलाकर उठ बैठी|
-उफ़, इतनी रात को कौन हो सकता है?अपने सभी परिचितों,मित्रों व रिश्तेदारों को रात दस बजे के बाद फोन करने को वह मना कर चुकी थी |कहीं कोई इमरजेंसी तो नहीं |सोचते हुए उसने फोन उठा लिया |
-हैलो ,कौन बोल रहा है ?
पहचानो ....|कोई लार टपकाऊ आवाज थी |उसका मन घिना गया |
-नहीं पहचान रही ,नाम बताएँ...|
अब ये हाल हो गया कि आवाज नहीं पहचान पा रही हो |लगता है बहुत सारे फोन आते हैं आशिकों के ...|
-नाम बताएँ...वरना फोन रखती हूँ ...इतनी रात को पहचान कराने के लिए फोन किया है |
अरे..रे .. नहीं डियर ऐसा गजब नहीं करना ...मैं हूँ इंद्र ...|
-आप सर..इतनी रात को ...क्या बात है ?
कुछ नहीं ..अकेला था |पत्नी मायके गयी हैं |नींद नहीं आ रही थी |सोचा तुम भी तो अकेली रहती हो |तुमसे ही बात करके मन बहलाऊँ |क्या कर रही थी ?
आवाज से टप-टप कामुकता टपक रही थी |उसका जी चाहा,कसकर उन्हें झाड़ दे |वैसे तो बड़े आदर्शवादी बनते हैं,पूरे सत्यवान !पर एक रात भी औरत के बिना नहीं गुजार पा रहे |पत्नी नहीं तो दूसरी औरत ही सही |दूसरी औरत भी शिक्षित ,सम्भ्रांत,सुंदर और जवान हो,साथ ही फूटी खर्च या बदनामी का डर भी ना हो |वाह रे आदर्श ! 
पर वह चुप रहकर वह गुस्सा पीती रही |कितनों को दुश्मन बनाया जाए |
क्या हुआ ,कुछ बोल नहीं रही |आई लव यू |
-क्या यह बात आप सबके सामने कह सकते हैं ?
प्रेम को पोस्टर बनाना जरूरी तो नहीं |यह दो लोगों के बीच की बात है |मन की बात है | देखो ,हर पुरुष को पत्नी के अलावा एक ऐसी प्रेयसी की चाहत होती है ,जो उसके मन को झंकृत करती रहे |तुम मेरी जीवन-प्राण हो |मुझे जीवंत करने वाली ,ऊंचाईयों तक पहुँचाने वाली प्रेयसी |
-पर मैं आपसे प्रेम नहीं करती |आप एक विवाहित पुरूष हैं |आप कैसे किसी दूसरी स्त्री से प्रेम कर सकते हैं?
क्यों नहीं कर सकता ?प्रेम कोई बंधन नहीं मानता |
-पर प्रेम किसी का हक भी नहीं छीनता |
यह आदर्शवादी बातें है,सच्चाई नहीं |फिर मैं पत्नी को छोड़ तो रहा नहीं,उसे तन –मन –धन का सारा सुख व सम्मान तो दूंगा ही |
और मुझे ....सारा उच्छिष्ट ...|
ऐसा क्यों सोचती हो ,तुम्हें भी प्यार मिलेगा ,पर समाज के सामने नहीं |मेरी कुछ सामाजिक –पारिवारिक मर्यादाएं हैं|
-आप ऐसे प्रेम के सहारे अपने जीवन में रंग भर सकते हैं ,पर मैं नहीं |
आखिर क्यों नहीं?तुम मुझसे प्रेम क्यों नहीं कर सकती ?
-वह इसलिए कि आपके जीवन में मेरे लिए बस थोड़ा-सा स्पेस है |आप अनगिनत रिश्तों को जीते हुए पार्ट-टाईम में प्रेम कर सकते हैं |इससे आपका व्यवस्थित सामाजिक व पारिवारिक जीवन सामान्य गति से चलता रह सकता है |शायद आप मुझसे जो चाहते हैं ,वह आपको मिल जाए,पर मेरी चाहत आप पूरी नहीं कर सकते |
तुम्हारी चाहत जान सकता हूँ क्या ?
-मैं ज्यादा नहीं,पर अपने पुरूष का सम्पूर्ण व सर्वकालिक प्रेम चाहती हूँ |कुछ क्षणों के मिलन के बाद प्रेमी से अलग हो जाना,उसकी याद में तडपते रहना |अपनी जरूरतों,चाहतों के लिए दूसरों का मुँह अगोरना |सर्वस्व समर्पण के बाद भी साधिकार उसकी बांह पकडकर समाज में न चल सकना मुझे पसंद नहीं आ सकता |
ऐसा पुरूष तुम्हें नहीं मिलेगा |मुझे तो लगता है जीवन में जो कुछ सहजता से मिल रहा हो,उसे अपना लेने में ही सुख है |तुम सुंदर हो,मेधावी भी,इसलिए मैं तुमसे आकर्षित हूँ,वरना मेरे पास तुमसे भी अधिक सुंदर पत्नी है और शहर में स्त्रियों की कमी नहीं |मैं तो दयावश तुम्हारे सूने जीवन में खुशी के कुछ फूल खिलाना चाहता था |
वह हतप्रभ थी |क्या इस समाज में अकेली स्त्री इतनी दयनीय व बेचारी समझी जाती है कि उसकी योग्यता,आत्मनिर्भरता को कोई मोल नहीं रह जाता ?अगर प्रेम दया वश ही मिलना है,तो ..थू है ऐसे प्रेम पर | कोई जरूरी तो नहीं पुरूष और उसका प्रेम |
किस सोच में डूब गयी?कुछ मीठी बात करो ना ,मुझे नींद नहीं आ रही |
-पर मुझे बहुत नींद आ रही है |
कहते हुए उसने फोन काट दिया |सच ही उसे सुकून की नींद आ गयी |

Saturday 5 November 2011

अंतर

एक तलाकशुदा पुरूष ने एक परित्यक्ता से विवाह किया |स्त्री हर मामले में पुरूष से बीस थी |पुरूष के मित्रों में चर्चा छिड़ी |एक ने कहा-'भाग्यवान है रमेश,पहले से भी अधिक रूपवती,गुणवती पत्नी मिली है उसे|'दूसरे ने कहा-'माडल कितना भी बढ़िया हो,लेकिन यार माल तो सेकेंडहैंड है|'सभी मित्रों ने समवेत स्वर में ठहाका लगाया |
स्त्री की सहेलियों ने कहा-"कितने महान हैं जीजा जी !बिलकुल देवता,वरना आजकल कौन बासी फूल स्वीकारता है ?चाहते तो कुँवारी लड़की आसानी से मिल सकती थी|"
शादी के एक सप्ताह बाद पुरूष ने स्त्री से कहा-'मैं जब भी तुम्हें छूता हूँ |मेरे मन में ख्याल आता है,तुम्हें पहले भी किसी ने इसी तरह छुआ है और फिर मेरा मन घृणा से भर जाता है|'स्त्री ने कहना चाह-"ऐसा ख्याल मुझे भी तो आ सकता है |तुम भी तो मेरी ही तरह वर्षों दूसरी स्त्री के पास रह चुके हो|"पर वह चुप रही| वह जान गयी थी कि ऐसी शिकायत सिर्फ पुरूष करते हैं,स्त्री नहीं | 

Thursday 3 November 2011

प्रेमी- पांच लघु-कथाएँ

एक -सच 
एक तरफ प्रेमी दूसरी लड़की से विवाह करने जा रहा था,दूसरी तरफ प्रेमिका से 'आई लव यू' कहे जा रहा था |प्रेमिका हैरान थी कि सच क्या है ?
दो -दुनियादार 
एक दिन प्रेमी कहने लगा -मुझे हमउम्र लड़कियाँ पसंद हैं |विचारोंके आदान-प्रदान,सहज रिश्ते और आपसी सामंजस्य के लिए यह जरूरी है |
दूसरे ही दिन उसने अपने से आधी उम्र की लड़की से शादी कर ली |
तीन -मजबूर 
प्रेमी प्रगतिशील था |जाति-धर्म,छूआछूत से उसे नफरत थी |विभिन्न जाति-धर्म की अनगिनत लड़कियाँ इसी कारण उसकी दोस्त थी |एक से तो उसके रिश्ते अंतरंग भी हो गए थे |उस लड़की ने उसके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा,तो उसने कहा -तुम सुंदर हो |तुममें वे सारे गुण हैं,जो मुझे पसंद है,पर मैं मजबूर हूँ |तुमसे विवाह नहीं कर सकता |दरअसल मैं अपनी माँ और बहनों से बहुत मोहब्बत करता हूँ और उनके हित के लिए मुझे अपनी जाति में ही विवाह करना होगा |
चार -खुशी 
'तुम मेरी शादी में आ रही हो ना'-प्रेमी ने फोन पर प्रेमिका से पूछा |
प्रेमिका ने लगभग रोते हुए कहा -कैसे आ पाऊँगी?अपनी आँखों के सामने तुम्हें किसी और का होते कैसे देख पाऊँगी ?
प्रेमी गुस्से से बोला -तुम मेरी खुशी नहीं देख सकती|आज से हमारा रिश्ता खत्म ...|
पांच -आत्महत्या 
प्रेमी ने दूसरी लड़की से शादी कर ली |बहुत दिनों बाद उसे प्रेमिका की याद आई |उसने अपने दोस्त से पूछा-कहाँ है?जिन्दा है कि मर गयी |
दोस्त -उसने नए ढंग से आत्महत्या कर ली |
'क्या मतलब ?'
उसने एक शराबी से शादी कर ली है |

Sunday 23 October 2011

पुत्र-यज्ञ

मेरे कस्बे में लंगड़ा पंडित मशहूर थे |सभी हिन्दू घरों में पूजा-पाठ,शादी-ब्याह वे ही कराते थे |क्या मजाल कि कोई दूसरा पंडित आस-पास फटक भी जाए|वैसे भी कस्बे वालों का उन पर बहुत ही विश्वास था |वे सबके पाँव-पूजित थे |पता नहीं वे पढ़े-लिखे थे भी या नहीं,क्योंकि जब मैंने संस्कृत पढ़ना सीख लिया, तो उनका अशुद्ध श्लोक बोलना खलने लगा था |एक बार टोक दिया,तो नाराज हो गए |माँ ने उनसे क्षमा माँग ली और मुझे भी मांगने को कहा |पर उस दिन से वे मुझसे आँखें चुराने लगे |पंडित जी की सबसे बड़ी ख्याति इस वजह से थी कि वे पुत्र-यज्ञ कराते थे |ना जाने कितने निसंतानों को उस यज्ञ के कारण संतान-सुख मिला था |पंडित जी के अनुसार यह वही पुत्र-यज्ञ था,जिसके करने से राजा दशरथ को चार-चार पुत्र प्राप्त हुए थे | यह बहुत ही महंगा यज्ञ था,इसलिए बेचारे गरीब मन मसोस कर रह जाते थे |इस यज्ञ के कारण पंडित जी मालामाल हो गए| ऊपर से लोग उन्हें भगवान की तरह पूजने लगे  |पंडित जी ने तीन विवाह किए थे पर इस बात से उनकी प्रतिष्ठा पर कोई आँच नहीं आती थी |किसी को उनके व्यक्तिगत जीवन से कुछ लेना-देना नहीं था |पढ़ाई के सिलसिले में मैं शहर आ गयी |एक बार दीपावली की छुट्टियों में घर आई,तो माँ घर में नहीं मिली |पता चला,लंगड़ा पंडित गुजर गए हैं और माँ उनके घर गयी हुई हैं |मैं भी वहाँ जा पहुंची |देखा कि उनकी लाश यूँ ही पड़ी हुई है |उनकी तीनों पत्नियाँ बिलख रही हैं |लोगों की भीड़ जमा है और विचार-विमर्श हो रहा है कि क्या किया जाए ?परेशानी क्या है -मैंने माँ से पूछा और यह जानकर सन्न रह गयी कि पुत्र-यज्ञ कराने वाले पंडित जी की तीन पत्नियों के बावजूद अपनी कोई संतान नहीं थी| 

Saturday 22 October 2011

कितना अंतर ?

मेरे कॉलोनी में अक्सर एक फकीर आते हैं |श्वेत वस्त्र,गले में कौडियों की माला,कंधे पर सफेद झोला,हाथ में अंडाकार कटोरा,निर्मल,स्वच्छ आँखें आकाश की ओर उठी हुईं |वे किसी के दरवाजे पर रूकते नहीं |बस यह गाते हुए चलते जाते हैं कि -'अल्लाह सबका भला कर| देने वाले का भला कर,ना देने वाले का भी भला कर|' जो कोई कुछ भी दे देता है,वह ले लेते हैं |कोई शिकायत नहीं करते |फिर भी हिन्दू बहुल कॉलोनी वालों को उनका आना अच्छा नहीं लगता |कॉलोनी में एक बाबा जी भी अक्सर आते हैं |गेरुआ वस्त्र,माथे पर त्रिपुंड,गले में रूद्राक्ष ,आँखें लाल,कंधे पर बड़ा-सा गेरुआ झोला,चाल में एक ठसक |दरवाजों पर पहुँच कर जोर से आवाज लगाते हैं-'कोई है,देखो कौन आए हैं ?' दरवाजा खुलने में देर होने पर क्रोधित होकर शाप देने लगते हैं |कितना भी दो,कभी संतुष्ट नहीं दीखते |खुद ही मांग लेते हैं |खुश कर देने वालों को उनका आशीर्वाद मिलता है,ना कर पाने वालों को शाप |फिर भी कॉलोनी वालों को उनका इंतजार रहता है |

धोकरकसवा


गोरखपुर मंडल के ग्रामीण क्षेत्रों में आजकल धोकरकसवा का खौफ छाया गया है |वैसे भी इस मंडल में किसी न किसी का खौफ छाया रहता है ||बस नाम बदल जाता है |पहले लकड़सुंघवा फिर मुँहनोचवा और अब धोकरकसवा |धोकरकसवा बच्चों को उठा ले जाता है,इस डर से ग्रामीण शाम ढलते ही अपने बच्चों को घरों में कैद कर दे रहे हैं और खुद जग कर गाँव की रखवाली कर रहे हैं |धोकरकसवा स्त्री-पुरूष किसी भी रूप में हो सकता है |उसके हाथ में बोरा या बड़ा-सा झोला होता है|जिसमें वह बच्चों को भर कर उठा ले जाता है|लीजिए भई २१ अक्टूबर को बोरे में बालक को भरते दो धोकरकसवा ग्रामीणों द्वारा पकड़े गए हैं |बहरहाल पुलिस की पूछ-ताछ जारी है और निश्चित रूप से वे भी उन्हीं लोगों में से निकलेंगे,जो शक के कारण इन दिनों ग्रामीणों के शिकार हुए हैं |आजकल गांवों में शाम-ढले किसी रिश्तेदारी में जाना मुहाल है|कुछ लोग इसी बहाने अपने दुश्मनों से बदला भी चुका ले रहे हैं |धोकरकसवा की कहानी मैंने अपने बचपन में माँ से भी सुनी थी |हम बच्चे दुपहरिया या शाम ढलने के बाद घर से बाहर न निकले,इसलिए माँ ने धोकरकसवा से डरा रखा था कि धोकरकसवा बच्चों को उठा कर अपने घर ले जाता था और उन्हें पका कर खा लेता है |यह बात तब उतनी विश्वस्त नहीं लगती थी,पर अब निठारी कांड के बाद यह भी असम्भव नहीं लगता |पुराने धोकरकसवा को शायद आज की तरह बच्चों का उपयोग करना नहीं आता था |या यूं कहें कि वह इस कदर गिरा हुआ नहीं होता होगा |नया धोकरकसवा भी पुराने की तरह ही है |शायद ग्रामीणों की कल्पना आज भी उस क्रूरता तक नहीं पहुँच पा रही है,जो आजकल अपहृत किए गए बच्चों का नसीब बनी हुई है |बच्चों को अपंग कर उनसे भीख मंगवाना अब पुरानी बात है,बलि चढाना भी |अब तो बच्चों के अंगों को निकाल कर बेच दिया जा रहा है |उनसे देह-व्यापार कराया जा रहा है|मनुष्य के गिरने की इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है ?बच्चों को इस गलीज काम के लिए दूसरे देशों में भेजा जा रहा है |अभी इसी सप्ताह झारखंड के पश्चिमी सिंघभूम जिले में रेलवे पुलिस ने तीन नाबालिक बच्चों के साथ एक फ्रांसीसी नागरिक गोएट को गिरफ्तार किया है|बच्चे पश्चिम बंगाल के हैं,बच्चों को बहला –फुसलाकर ले जा रहा यह विदेशी शालीमार से कुर्ला जा रही कुर्ला एक्सप्रेस ट्रेन के प्रथम श्रेणी के वातानुकूलित कोच में ही बच्चों के साथ कथित तौर पर गलत हरकत कर रहा था |
बच्चों का शोषण विविध तरीकों से किया जा रहा है|कहीं वे बंधुआ मजदूर हैं,कहीं कबाड़ी |चोरी-चकारी से लेकर नशा बेचने का काम वे कर रहे हैं |आतंकवादी भी अब उनका उपयोग करते देखे जा रहे हैं | चूड़ी व पटाखे बनाने जैसे खतरनाक कामों में भी बच्चे देर रात तक काम करके अपना बचपन व स्वास्थ्य गँवाते देखे जा सकते हैं |बच्चे यह सब मजबूरी के कारण कर रहे हैं |इनमें सारे बच्चे अपहृत नहीं हैं |कुछ घर से भागे हुए हैं,तो कुछ अपने माता-पिता की सहमति से भी ये सब कर रहे हैं| बच्चों का बचपन खतरे में हैं |ना जाने कितने धोकरकसवा रक्तबीज की तरह बढ़ते जा रहे हैं |वे काल्पनिक धोकरकसवा नहीं हैं,ना ही उनकी तरह बोरा लेकर घूमने वाले गँवार|उनके हाथ बड़े हैं और पहुँच भी |उनको पहचानने की जरूरत है और उनके खिलाफ कठोर कदम उठाने की भी,वरना देश के भविष्य को नहीं बचाया जा सकता |

सैंया भए कोतवाल अब डर काहें का


किसी पति-मुग्धा की यह गर्वोक्ति एक समय के कोतवालों की साफ़-सुथरी छवि को प्रस्तुत करती है |यह कथन मुहावरा बन गया |मतलब साफ़ था कि कोतवाल के होते स्त्री को कोई खतरा नहीं था और पति कोतवाल हो जाए तो बिलकुल ही नहीं |वह स्त्री निश्चिन्त होकर रात-बिरात मनपसंद कपड़ों और भरपूर जेवर पहन कर भी बाहर निकल सकती थी |उसकी इज्जत और जेवर दोनों की सुरक्षा की गारंटी मिल जाती थी [वैसे भी उस समय के रजनीचरों में चोर-डाकू ही रहे होंगे,किडनेपर्स और रेपिस्ट नहीं]शायद कोतवाल उन दिनों रात को जगकर जनता के जान-माल की सुरक्षा करते रहे होंगे और उस समय के चोर-उचक्के,डाकू उनसे भय भी खाते होंगे |आज समय बदल गया है |रजनीचरों में चोर-उच्चके,डाकू-स्मगलर के साथ रेपिस्ट,किडनेपर्स,हत्यारे और बाईकर्स भी शामिल हो गए हैं,तो निश्चित रूप से कोतवालों का काम बढ़ गया है |कुछ कोतवाल तो उनके मौसेरे भाई की भूमिका में आ गये हैं,तो कुछ आराम से रात को सोते रहते हैं |वैसे भी रात को जागना सेहत के लिए अच्छा नहीं होता[वैसे वे तो दिन में भी सोते ही रहते हैं तभी तो अपराधी दिन में भी अपराध करने लगा है,रात का इंतजार कौन करे? कोतवाल साहब दिन में भी अपराध हो चुकने के बाद ही पहुँचते हैं |समय से पहुंच कर अपनी जान जोखिम में क्यों डालें आखिर उनके भी बाल-बच्चे हैं |
कहा जाता है कि किसी शहर का रात भर जागना उसकी जिंदादिली को दर्शाता है |कोतवाल साहब को यह जिंदादिली पसंद नहीं |नालायक ना खुद सोते हैं,न सोने देते हैं |ऊपर से शहर की स्त्रियाँ भी कम नहीं |रात-बिरात भी निकलती हैं,कपड़े भी ढंग से नहीं पहनती हैं और जब उनके साथ कुछ बुरा हो जाता है तो कोतवालों को कोसती हैं,यह तो बेइंसाफी है |इधर राजधानी में स्त्री-अपराध कुछ ज्यादा ही बढ़ गए हैं,इसलिए कोतवाल साहब ने सलाह दी है कि –महिलाऐं रात –बिरात घर से बाहर ना निकलें |हो सकता है उनकी अगली सलाह कपड़ों के बारे में हो –कि वे मार्डन कपड़े ना पहनें |जेवर पर तो वे पहले ही प्रतिबंध लगा चुके हैं |भई गुण्डे-मवालियों को तो नसीहत दी नहीं जा सकती,वे तो नालायक हैं ही |स्त्रियाँ तो समझदार हैं |फिर दुर्घटना से सावधानी भली |उक्ति भी तो है –‘सावधानी हटी दुर्घटना घटी’|अब आजादी के नाम पर ‘आ बैल मुझे मार’को आजमाना स्त्री के हित में तो नहीं ही है |कोतवाल साहब अपना नैतिक कर्तव्य निभा रहे हैं और स्त्रियाँ हैं कि इसे अस्मिता का प्रश्न बना रही हैं |अब इनसे कड़ाई से कुछ कहना भी मुश्किल है |अब भला क्या बुरा कह दिया था कनाडा के उस पुलिस अधिकारी ने,यही ना कि ‘लड़कियों को बलात्कार से बचने के लिए स्लट जैसे कपड़े नहीं पहनने चाहिए|’लीजिए भई फिर तो पूरी दुनिया में ही स्लट-वाक् शुरू हो गया |कोतवाल साहब तो चाहते हैं कि स्त्रियाँ घर में रहें |चूल्हा और बच्चे संभालें |बाहर निकलें,तो पूरे कपड़ों में निकलें |कोशिश करें कि सिर भी ढंका हो|यही तो कुलीन स्त्रियों का धर्म है |उनके इस कदम से कोतवालों का काम कितना आसान हो जाएगा |
अब अपराधी पहले की तरह कोतवाल साहब के दबदबे को नहीं मानते,उनसे भय नहीं खाते|कारण यह भी हो सकता है कि पहले के कोतवाल अपराधियों से नहीं खाते थे,इसलिए उनके हित में नहीं गाते थे |आज स्थिति उलट है |आज तो कोतवाल खुद ही राह चलती स्त्री को ऐसे घूरते हैं कि वह शर्म से पानी-पानी हो जाती है |अपने प्रति हुए अपराध की शिकायत करने स्त्री थाने जाए,तो ऐसे सवाल-जबाब कि भागते ही बने |कई बार तो बलात्कार की शिकार का ही बलात्कार कर दिया जाता है और कई बार अपराध छिपाने के लिए हत्या भी |इधर लगातार कई घटनाएँ ऐसी घटी हैं कि जिसने प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है कि कोतवाल रक्षक की भूमिका में है कि भक्षक की |
यह अच्छा है कि शिकारी का तो कोतवाल कुछ ना बिगाड़ पाए,बस शिकार को ही नसीहतें देते रहे,वह भी सुरक्षा के नाम पर |यह कैसा गणतन्त्र है,जहाँ स्त्री ही हिंसा का शिकार हो रही है और उसको ही सजा दी जा रही है?ढेर सारी पाबंदियां और जकड़न सिर्फ इसलिए कि स्त्री अपनी सुरक्षा खुद नहीं कर सकती |होना तो यह चाहिए कि कोतवाल शोहदों को गिरफ्तार करें,ताकि दूसरे ऐसा करने से डरें,पर नहीं स्त्री को नसीहत देना ज्यादा आसान है |इस तरह से तो वे असामाजिक तत्वों को सन्देश दे रहे हैं कि स्त्रियाँ ही दोषी हैं |कोतवाल को असामाजिक तत्वों के खिलाफ नियम बनाकर,सुनसान सड़कों पर सुरक्षा गार्डों की व्यवस्था कर,स्त्री की शिकायत को तत्काल दर्ज करके उस पर कार्रवाई कर अपनी बिगड़ रही छवि को सुधारना चाहिए |

Monday 17 October 2011

साम्य

 सुखिया और दुखिया जुड़वा बहनें थीं |सुखिया अपूर्व सुन्दरी होने के कारण अमीर घर में ब्याही गयी |यूँ कहें कि उसका रिश्ता खुद पाँव चलकर उसके घर आया |दुखिया साधारण,सीधी-सादी घरेलू टाइप की लड़की थी |उसकी शादी में बड़ी मुश्किलें आई |वह एक गरीब किसान के घर की शोभा बनी |भाग्य की विडम्बना -कुछ दिन बाद ही उसके खेत बिक गए और उसका पति किसान से मजूर हो गया |दुखिया रोटी की समस्या से जूझते हुए एक दिन कुपोषण का शिकार होकर मर गयी |
सुखिया ससुराल में राज कर रही थी |कुछ दिनों बाद उस पर विश्व-सुन्दरी बनने की सनक सवार हुई |शरीर को स्लिम बनाने के लिए व्यायाम,डाईटिंग वगैरह करने लगी |मात्रा कुछ ज्यादा हो गई और एक दिन वह चक्कर खाकर गिरी और स्वर्ग सिधारी
दोनों बहनों की मृत्यु में एक साम्य था |दोनों के पेट में अन्न का दाना नहीं था|

परिवर्तन

"माँ ...माँ सुना तुमने ?डाक्टर रमेश तिवारी के बेटे ने एक हरिजन कन्या से विवाह कर लिया ...|"
"बहुत अच्छा किया |हमारे नौजवान ही देश की दशा सुधार सकते हैं |जाति-धर्म व्यर्थ के ढकोसले हैं |विवाह की सफलता तो सच्चे और अच्छे जीवन-साथी पर निर्भर है और अच्छा साथी जिस जाति-धर्म में मिले,चुन लेना चाहिए |"
"माँ" कितनी अच्छी हो तुम !कितने महान विचार हैं तुम्हारे!बहुत दिनों से तुम्हें एक बताना चाह रही थी |मैं ...कल्लू धोबी के बेटे रवि चौधरी से प्यार करती हूँ और उससे ....|"
'चटाक....|कमबख्त ...बेशर्म ....नीच ...कुलबोरनी!ब्राह्मण कन्या होकर एक शूद्र से ...!हमारे खानदान में ना तो ऐसा हुआ है ,ना होगा |दो अक्षर पढ़ क्या गयी ...परम्परागत नियमों को तोड़ने चली हो |कल से तुम्हारा कालेज जाना बंद ...|

Friday 14 October 2011

शोक

दो सम्प्रदाय के युवक एक दिन एक-दूसरे से भिड़ गए |पहले ने दूसरे को माँ की गाली दी |दूसरे ने माँ के साथ बहन को भी शामिल कर लिया |दोनों ने अपने-अपने मर्द पूर्वजों के संबंध एक-दूसरे की स्त्री पूर्वजों से साभिमान स्थापित करवाया |बात बढ़ती गयी|लोगों ने बीच-बचाव कर दोनों को घर जाने को कहा |युवकों का क्रोध तो समय के साथ थोड़ा कम हुआ,पर वैर मुरब्बे की तरह टिकाऊ हो गया|एक दिन पहले ने दूसरे की बहन को छेड़ दिया,तो दूसरे ने मौका पाकर उसके बहन की इज्जत लूट ली |दुश्मनी बढ़ गयी,यहाँ तक कि एक दिन दोनों संप्रदायों में ठन गयी |दंगा भड़का|दोनों संप्रदायों ने एक-दूसरे के घर की स्त्रियों को लूटा-पीटा और अपमानित किया |दंगा खत्म हुआ,तो दोनों तरफ के मर्द अपनी जीत का जश्न मनाने लगे, पर उनकी औरतें अपने औरत होने पर शोक मना रही थीं |  

Thursday 13 October 2011

मजहब

गफूर मियाँ शिल्पकार थे, देवी-देवताओं की मूर्तियां बनाया करते थे |राम कृष्ण,गणेश,दुर्गा जैसे देवी-देवताओं से उनकी दुकान जगमगाती रहती थी |उनकी मूर्तियां बड़े-बड़े मंदिरों की शोभा बढाती थी और विदेशों में भी उनकी मांग थी |दुकान से उनकी गृहस्थी आराम से चल रही थी |वे पाँचों वक्त के नमाजी थे,धर्म-कर्म में उनकी बड़ी आस्था थी | आदमी भी बड़े बढियां थे |अभिमान तो मानो उन्हें छू तक नहीं गया था |सबके सुख-दुःख में हिस्सेदार रहते थे
दंगे में उनकी दुकान लूट ली गयी |मूर्तियां तोड़-फोड़ दी गयीं और वे इसलिए कत्ल कर दिए गए कि मुसलमान थे |यह रहस्य ही है कि उनके कातिल का मजहब क्या था ?

Wednesday 12 October 2011

नौकरी

रोटी एक थी |कुत्ते बहुत सारे |सभी भूखे थे और एक-दूसरे पर गुर्रा रहे थे |रोटी ऊँची जगह पर रखी हुई थी |भूखे कुत्तों की पहुँच से काफी ऊपर |वहाँ  तक पहुंचना काफी जद्दोजहद का काम था |रोटी और भूखे कुत्तों के बीच पहरेदारों की लंबी फ़ौज थी,जो हथियारों से लैस खड़ी थी |रोटी तक पहुँचने के लिए कुत्तों को सबसे निपटना पड़ता |
इसी बीच ऊंची नस्ल का एक कुत्ता,जो एक संपन्न परिवार का पालतू था,शान से अकड़ता हुआ आया |पहरेदारों ने उसे कोर्निश की |उसे सम्मानपूर्वक रोटी सौंप दी गयी |भूखे कुत्ते इससे बेपरवाह खड़े अभी तक एक-दूसरे पर ही भौंक रहे थे |

Sunday 9 October 2011

स्त्री के खल रूप का प्रचार


२८ मार्च २०१० को तिर्वा[कन्नौज]कोतवाली क्षेत्र के हरिहरपुर गाँव में देर रात एक माँ ने अपने दो मासूम बच्चों को हंसिए से काट डाला था |अखबार के अनुसार तो उसने उनके खून को भी गटक लिया था |४ जनवरी को पूर्णिया में भाजपा विधायक राजकिशोर केसरी की निर्मम हत्या उन्हीं के आवास पर रूपम पाठक ने कर दिया था |संतकबीरनगर के ग्राम बरईपार में कुछ दिन पूर्व एक प्रेमिका ने अपने प्रेमी को मिट्टी का तेल उड़ेल कर जला दिया |६ जुलाई,२०११ को कप्तानगंज[कुशीनगर] में संजू नामक स्त्री ने अपने पति की गला दबाकर हत्या कर दी |लन्दन में मई,२०१० को एक प्रेमिका ने प्रेमी की जीभ चुम्बन के बहाने काटकर अलग कर दिया तो,९ नवम्बर २०११ को वहीं की एक माँ ने अपनी नवजात बच्ची को वाशिंग मशीन में डालकर मार डाला |प्रेमी के साथ मिलकर पति की हत्या की खबरें तो हर दूसरे-तीसरे दिन मिल जाती हैं |ऐसी खबरें भी पूर्वांचल में नियमित छप रही हैं,जब औरतें बच्चों को मारकर खुद मर जा रही हैं |कोई जहर खाकर,कोई नदी-नालेमें कूदकर,तो ज्यादातर ट्रेन के नीचे लेटकर |कभी-कभी बच्चों को फेंकने या बेचने वाली,उनसे भीख मंगवाने वाली तथा दूसरे कई और अपराध करवाने वाली माओं का भी पता चलता है |इस तरह स्त्री के हिंसक रूप की कई तस्वीरें हमारे सामने आती हैं |स्त्री के हिंसक रूप का प्रचार-प्रसार मीडिया ऐसे करता है,जैसे बदला ले रहा हो |जबकि ऐसी खबरें इक्का-दुक्का ही होती हैं और उनके पीछे भी स्त्री पर कई मनोवैज्ञानिक दबाव होते हैं|सोचने की बात है कि जिस माँ ने नौ महीने बच्चे को गर्भ में रखा,उसे अपना रक्त पिलाया ,उसी का रक्त वह पी सकती है?जिस डायन की कल्पना हर देश में मौजूद है,वह भी अपने बच्चों को बख्श देती है,फिर कैसे कोई माँ अपने बच्चे को इस क्रूरता से मारेगी?माँ तो गुस्से में बच्चे को पीटने के बाद खुद रोने लगती है |बचपन में एक फिल्म देखी थी |नाम था –‘समाज को बदल डालो’|उस फिल्म में एक माँ पर आरोप है कि उसने अपने पांच[कम-ज्यादा हो सकते हैं]बच्चों को जहर खिलाकर मार डाला था| वह एक ऐसी औरत थी,जो अकेले समाज से लड़ते हार जाती है और भूख से तड़पते बच्चों को मुक्त करने के लिए भात में जहर सानकर खिला देती है |वह खुद भी खाती है,पर उसके प्राण नहीं निकलते और वह अपराधिनी मान ली जाती है | उस माँ की अंतर्वेदना की कल्पना करें |दूसरी तरफ वही समाज,जो उसकी इज्जत के बदले रोटी देने की बात कर रहा था |जो बच्चों के साथ भिखारियों से बदतर व्यवहार कर रहा था,उस माँ पर थूकने लगता है |समाज आज भी कहाँ बदला है?आज भी वह मजबूरी का सौदा करता है |ऐसे ही तो नहीं देह-व्यापार फल-फूल रहा है |
हंसिए से बच्चों को काट देने वाली सुमन की उम्र मात्र ३५ थी,पर बच्चे पांच थे |पति मजूर,वह भी हमेशा घर से बाहर| उसकी सबसे बड़ी बेटी बबली ११ वर्ष,अंजली १० वर्ष,अतुल ९,तन्नू ६ तथा सबसे छोटा अन्नू ५ वर्ष का था |सभी बच्चे पढ रहे थे |जाहिर है लड़ते-झगड़ते भी होंगे |उस दिन बच्चों के ना पढ़ने से बवाल हुआ |स्थिति बेकाबू हो जाने पर गुस्से से पागल हुई सुमन ने अन्नू-मन्नू को काट डाला |कह सकते हैं,उसे खुद पर काबू रखना चाहिए था |बच्चे तो शरारती होते ही हैं |समस्या सुमन के स्वास्थ्य की लगती है | बच्चों की परवरिश,शिक्षा की चिंता   के साथ अर्थाभाव मानसिक दबाव बना रहा होगा |बढ़ती  मंहगाई में मात्र मजूरी से सुमन कैसे घर और बच्चों को सम्भाल रही होगी?ऊपर से पति का कोई सहयोग नहीं |निश्चित रूप से वह चिड़चिड़ी हो गयी होगी और बच्चों के ना पढ़ने पर आपा खो बैठी होगी |लेकिन इस तरह ..?कह सकते हैं कि जब संभाला नहीं जा रहा था,तो क्या जरूरत थी,इतने बच्चों की ?इस विषय में इतना ही कहा जा सकता है कि अभी तक भारतीय स्त्रियों को कोख के बारे में निर्णय का अधिकार नहीं है,उपर से जननी की सेहत की इस देश में घोर उपेक्षा होती है|सुमन शायद ही अपनी सेहत पर ध्यान दे पाती होगी?उस पर हमेशा मानसिक दबाव रहता होगा |खाना-कपड़ा,किताब-कापी,स्कूल-फीस,हारी-बीमारी पचासों समस्याएं |सुमन संतुलन खो बैठी |नहीं खोना चाहिए था,पर खो बैठी |उसकी मानसिक पीड़ा की कल्पना करें कि जिन बच्चों की वह जननी थी,उन्हीं की हत्यारिन बन बैठी |
मंजू ने भी पति की हत्या जानबूझकर नहीं की |शराब व जुए की अपनी लत पूरी करने के लिए पति ने अंतिम बचे पुश्तैनी मकान को सस्ते में बेचकर रूपए किसी पट्टीदार के खाते में जमा कर दिया था | ऊपर से शराब के नशे में धुत्त मछली लेकर घर आया |पत्नी ने मछली पकाने से इंकार किया,तो झगडा शुरू होगया |पति अपना मफलर गले में लपेटकर उसे खिंच देने की धमकी देने लगा,तो नाराज पत्नी ने खुद मफलर कस दिया,जिससे पति की मौत हो गयी |सोचा जा सकता है कि मंजू ने किस डिप्रेशन में ऐसा किया होगा,पर वह गुनहगार तो है  ही |कई बार अपनी ही बेटी को पति की हवस से बचाने के लिए औरत अपराध कर बैठती है |कई ऐसे उदाहरण हैं,जिन्हें उद्धृत करते हुए भी शर्म आती है |देहरादूनमें १३ अगस्त को दमयन्ती नामक स्त्री ने अपने पति के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई कि जब वह तीन महीने अपने मायके में थी |आरोपी ने अपनी ही १६ साल की बेटी के साथ लगातार बलात्कार किया|निश्चित रूप से महिला ने संयम का परिचय देकर क़ानून का सहारा लिया,अन्यथा ऐसे हालत में पति की हत्या हो सकती थी |
आज अधिकांश आदमी डिप्रेशन में जी रहा है |तमाम दबाव उस पर हैं |बढ़ता प्रदूषण भी उनमें से एक है |एक शोध में बताया गया है कि आदमी तो आदमी,बंदर भी डिप्रेशन में हैं और लोगों को बेवजह काट रहे हैं |कारण –पर्यावरण का नष्ट होना,पेड़-पौधों का कटते जाना |प्राकृतिक आहार की किल्लत से बंदर मनुष्यों का जूठन खा रहे हैं और उसी की तरह डिप्रेशन के शिकार हो रहे हैं |मेरे इस विवरण का यह अर्थ कदापि नहीं लिया जाना चाहिए कि मैं स्त्रियों  के अपराध को कम करके देख रही हूँ |मेरा सिर्फ यह कहना है कि किसी भी स्त्री को दोषी करार देने से पहले उन स्थितियों-परिस्थितियों पर भी विचार किया जाए,जो ममतामयी माँ को इस कदर निर्मम बना रही है |
पारिवारिक कारणों से हत्या-आत्महत्या करने वाली स्त्रियों पर अंगुली उठाने से पहले विवाह संस्था को कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए,जिसमें आज भी स्त्री चैन से नहीं जी पा रही है|जो ना तो उसे संरक्षण दे पा रही है,ना खुशी |जहाँ अराजकता का बोल-बाला है|स्त्री को किसी भी प्रकार का फैसला लेने का अधिकार नहीं |ऐसे में उसे लगता है कि उसको अपनी या अपनी संतान पर ही हक है,जिसे वह खत्म कर सकती है |यहाँ भी मामला डिप्रेशन का ही है |गरीबी के कारण जो स्त्री अपराध कर रही है,उसका जबाव तो सरकार ही दे सकती है |
स्त्री अपने स्त्रीत्व का अपमान ज्यादा देर नहीं सह सकती |प्रेमी हो या पति जब वह उससे बेवफाई करता है या बार-बार उसे अपमानित करता है,उसकी कमियों का सबके सामने मखौल उड़ाता है,तो वह प्रतिशोध से भर जाती है |परिणाम किसी की जीभ कटती है,तो किसी की गर्दन |रूपम पाठक ने क्या यूँ ही भाजपा विधायक की हत्या कर दी थी ?सत्ता के नशे में स्त्रियों को ‘यूज और थ्रो’ करने वाले कभी-कभी स्त्री के प्रतिशोध में जल ही जाते हैं |स्त्री देह से दुर्बल होने के कारण अकेले पुरूष का सामना नहीं कर पाती,तो उस पुरूष को हथियार बनाती है,जो उसकी देह का कद्रदान[प्रेमी] है,फिर उस हथियार से अपना प्रतिशोध लेती है |अक्सर वह प्रेमी देह-सुख के लिए नहीं,अपने स्त्री होने को महसूसने के लिए बनाती है |प्रेमी उसके स्त्रीत्व को सम्मान देता है,उसको समझता है |क्यों पति यह नहीं कर पाता?क्यों घर की दाल समझकर उसे दलता ही रहता है?प्रेमी प्रेमिका को अपनी तरह इंसान मानता है,मनाने के लिए पैर तक छू लेता है,उसका अहं कभी उसके प्रेम पर हावी नहीं होता,पर वही प्रेमी पति बनते ही अहंकार से भर जाता है |अपनी गलती कभी नहीं मानता |पत्नी को हर बात में उसके पैर छूने पड़ते हैं |यदि पति प्रेमी बन जाए,तो ना जाने कितने स्त्री-अपराध बंद हो जाएँ |पर पति होने के अहंकार में वह लगातार स्त्री को प्रताड़ित व जलील करता रहता है,इसलिए उसके कमजोर पड़ते ही स्त्री उस पर हावी हो जाती है या फिर अपराध का रास्ता अख्तियार कर लेती है | ये सारी बातें मैं अपराधिनी मान ली गयी कई औरतों से बात करके जान पाई हूँ |मैं एक ऐसी औरत से मिली,जिसे पहली बार देखकर चीख पड़ी थी,उसका मुँह बुरी तरह जला हुआ था |ऊपर के होंठ उलट जाने से दांत दिखाई देते थे |नाक इस तरह सिकुड़ चुकी थी कि मात्र छिद्र ही दीखते थे |बस चेहरे में आँखें  ही ठीक [बहुत सुंदर] थी,साथ में देह भी |पता चला उसके चेहरे को उसके पति ने ही इस तरह जलाया है कि कोई पुरूष आकर्षित न हो सके |कभी वह अपने कस्बे की सबसे सुंदर लड़की हुआ करती थी |पिता की इकलौती पुत्री थी,इसलिए पिता के बाद उन्हीं के विशाल घर में पति के साथ रहती थी |समय बिता एक रेलवे का अफसर उसके घर में किरायेदार बन कर आया और मुंहजली का होकर ही रह गया |कस्बे में सभी उस स्त्री को ‘एक फूल दो माली’ कहते हैं |उसे गलत समझते हैं |पति को कोई कुछ नहीं कहता,जबकि सब जानते हैं कि वह पूर्ण पुरूष भी नहीं|उस स्त्री के प्रेमी से ही तीन बच्चे हैं |वह चाहती तो पति को अपने घर से निकाल सकती थी,पर उसने ऐसा नहीं किया |
फूलन देवी को ही लें,क्या वह बुरी स्त्री थी ?अपने प्रारम्भिक दिनों में बिना मर्जी की शादी और कई बार यौन-उत्पीड़न का शिकार होने के बाद ही वह डाकू बनी |१९८१ में उसने अपने साथी डकैतों की मदद से उच्च-जातियों के गाँव में २० से अधिक लोगों की हत्या कर दी थी |उत्तरी और मध्य प्रदेश के उच्च-जाति वाले ही उसकी हिंसा के शिकार हुए|अगर वह बुरी होती,तो भारत सरकार से समझौता करके ११ साल जेल की सजा नहीं काटती और जेल से रिहा होकर सांसद नहीं चुनी जाती |फूलन ने जाति-व्यवस्था के खिलाफ जो विरोध किया,उसने उसे समाज के दबे-कुचले लोगों के अधिकारों का प्रतीक बना दिया |तभी तो अन्तरराष्ट्रीय महिला-दिवस के अवसर पर ‘टाईम’ मैगजीन ने इतिहास की ‘सबसे विद्रोही महिलाओं’की सूची में फूलन देवी को चौथे नम्बर पर रखा है |उसका कहना है कि भारतीय ग़रीबों के संघर्ष को स्वर देने वाली और इस आधुनिक राष्ट्र के सबसे दुर्दांत अपराधी के रूप में फूलन को याद किया जाएगा |
 इन प्रसंगों को एक साथ रखने का कारण मीडिया द्वारा स्त्री के खल रूप का व्यापक प्रचार है |धारावाहिकों में सजी-संवरी औरतों के षड्यंत्र,उनकी आँखों व भौंहों का संचालन,टेढ़ी मुस्कान को देखकर कोफ़्त होने लगी है कि क्या स्त्रियों के पास इन सबके अलावा और कोई काम नहीं ?कहीं यह सब स्त्री को पीछे खींचने की सोची-समझी साजिश तो नहीं ?स्त्री को इन्हीं सब में उलझाकर रचनात्मक होने या विविध क्षेत्रों में पुरूषों के समकक्ष खड़ा होने से रोका तो नहीं जा रहा ?यह सच है कि स्त्री भी खल होती रही है और आगे भी हो सकती है,पर इतनी भी नहीं कि उसके सारे स्त्री-गुण तिरोहित हो जाएँ |पुरूष-मानसिकता का अनुकरण करने वाली स्त्रियाँ ही खलनायिका होती हैं और यह पुरुषप्रधान व्यवस्था के कारण है |इसलिए स्त्रियों को एकजुट होकर स्त्री के खल रूप के प्रचार-प्रसार को रोकना चाहिए|इस काम में वे पुरूष भी उनके साथ होंगे,जो परिवार-समाज के रिश्तों में लोकतंत्र के समर्थक हैं |

Thursday 6 October 2011

इज्जत

शाम के धुंधलके में एक स्त्री तेजी से सुनसान गली को पार कर रही थी कि अचानक एक उचक्का चाकू लिए उसके सामने आ गया |बोला -'जो कुछ पास में है ,चुपचाप निकाल दो |'कहते हुए उसने स्त्री की देह पर नजर डाली |उसकी देह पर उतारने लायक कुछ ना था |हाँ,एक छोटे से बटुए को वह अपने ब्लाउज के अंदर छिपाए हुए थी |
'बटुआ निकालो -वह गरजा| 
स्त्री ने कस कर अपने ब्लाउज को पकड़ लिया और गिड़गिड़ाई -इसे मैं नहीं दे सकती |कभी ,किसी हालत में नहीं |
उचक्के ने सारे दाव-पेंच आजमा डाले |जान ले लेने से लेकर तेज़ाब से चेहरा बिगाड़ देने की धमकी दी ,पर स्त्री टस से मस नहीं हुई |तब उसने सोचा -स्त्री को अपनी इज्जत से सबसे ज्यादा प्यार होता है,इसे खोकर वह जीना भी नहीं चाहती |
वह चेहरे पर क्रूर भाव लाकर हँसा-दे दो बटुआ ,वरना तुम्हारी इज्जत लूट लूँगा |
स्त्री नहीं डरी |उदासीन भाव से बोली -'लूट लो भैया |लूटी हुई इज्जत एक बार और लूट जाएगी,तो क्या फर्क पड़ेगा ?मैं तो वैसे भी मरी हुई हूँ |पर यह बटुआ नहीं दूंगी |इसमें जो रूपएं हैं, वह मेरे मर रहे बच्चे के इलाज के लिए हैं और इसे अपनी इज्जत बेच के लाई हूँ |'कहते हुए वह फफक पड़ी,उचक्के के हाथ से चाकू छूटकर गिर पड़ी |

जिगर

एक स्त्री-[ दूसरी से]चाहें कुछ भी हो जाए ,स्त्री को अपने सारे रहस्य मन के तहखाने में दफ़न रखना चाहिए |प्रेम के आवेग या विश्वास में पुरूष को नहीं बताना चाहिए,क्योंकि गुबार उतरते ही पुरूष स्त्री की कमजोरियों पर ताने कसने लगता है |उसका जीना मुहाल कर देता है ,परित्याग भी कर सकता है 
दूसरी स्त्री -लेकिन अपने प्रिय से कोई बात छिपाना ,उसके साथ धोखा नहीं होगा क्या ?
पहली स्त्री -कदापि नहीं ,क्योंकि किसी भी पुरूष के पास इतना बड़ा जिगर नहीं होता कि स्त्री की फिसलन को क्षमा कर दे |ऐसा जिगर तो सिर्फ स्त्री के पास होता है |

देह

स्त्री -तुम अपनी ताकत से मेरी देह पर राज कर सकते हो,दिल-दिमाग पर नहीं |
पुरूष -दिल का क्या करना है?दिमाग होता नहीं स्त्री के पास |देह ही बहुत है |

Wednesday 5 October 2011

'पुत्र बिना गति नहीं' की मानसिकता



पिछले वर्ष जब भक्त-जन मिट्टी की माँ दुर्गा की आरती कर रहे थे,एक बेटा अपनी माँ को जिन्दा जला रहा था| भीख मांगती बूढ़ी औरतों से पूछो तो बेटों के अत्याचार की अनगिनत कहानियां सुनने को मिल जाती हैं|बचपन में माँ से भी एक कहानी सुनी थी,जिसमें बेटे ने प्रेमिका को खुश करने के लिए माँ का कलेजा ही निकाल लिया था |परशुराम ने भी तो पिता के कहने पर अपनी माँ का सिर काट लिया था| रवना [सुप्रसिद्ध गणितज्ञ आर्यभट्ट की विदुषी पत्नी] की जीभ भी उसके पुत्र ने पिता की आज्ञा से काट ली थी,जिससे उसकी मौत हो गयी | ‘ना आना इस देश लाडो’ की अम्मा जी भी बौरा गयी हैं |जबर्दस्त सदमा लगा है उन्हें |जिस बेटे पर उन्हें नाज था ,उसी ने षड्यंत्र कर ना केवल उनकी सत्ता हथिया ली,बल्कि उन्हें घसीट कर घर से बाहर कर दिया|यह वही अम्मा जी हैं,जिन्होंने अपने गांव वीरपुर में कन्या जन्म का निषेध कर रखा था |कन्याएं जन्म लेते ही मार दी जाती थीं |यह नियम उन्होंने अपने घर पर भी लागू की थीं |अपनी बेटी के परित्याग व पोतियों को मृत्युदंड देने में भी वे एक पल की देरी नहीं करतीं |वे स्त्री विरोध में पूरी तरह से पुरूष मानसिकता का प्रतिनिधित्व करती थीं |समय के साथ वे थोड़ा बदलती हैं,पर उनके रोपे विष-बीज अब मजबूत वृक्ष बन चुके हैं |अब वे भी उसी शिकंजे में हैं |इस आपातकाल में उनके साथ वे ही स्त्रियाँ हैं,जिनपर उन्होंने अनगिनत अत्याचार किए थे |दो बहुएँ,पोते की गर्भवती बहू,दो पोतियाँ,एक बच्ची के साथ सिर्फ दो पुरुष हैं –एक पालित पुत्र, दूसरा पोता |इस कुनबे को उनकी बहुत चिंता है |वे उन्हें ठीक करना चाहते हैं |अम्मा जी का कमजोर रूप वे सहन नहीं कर पा रहे हैं |बहू सलाह देती है कि वे वर्षों पहले छोड़ चुके वीरपुर चलें ,तो शायद अम्माजी इस सदमे से बाहर आ जाएँ |
पर वीरपुर बदल चुका है |अम्माजी की गद्दी पर एक ऐसा दबंग आदमी काबिज हो चुका है,जो घोर पतित है |सारे बुरे कामों के साथ वह लड़कियों की खरीद-फरोख्त करता है |उसके गुण्डे दूसरे गांवों से लड़कियों को अगवा करके लाते हैं,जिनकी वीरपुर में बोली लगती है|वीरपुर में लड़कियों के जन्म न लेने देने की परम्परा के कारण लड़कियाँ नहीं हैं,इसलिए वीरपुर के मर्द अपना घर बसाने के लिए लड़कियाँ खरीदते हैं |दूसरे गांव के लोग वीरपुर में लड़की ब्याहना नहीं चाहते,क्योंकि वहाँ औरत सिर्फ मादा है |ऐसे वातावरण में पांच जवान स्त्रियों के साथ अम्माजी का वीरपुर आना [वह भी बौरही रूप में]समस्याओं को जन्म दे रहा है |गांव के मर्द अम्माजी का शासन भूल चुके हैं,उन्हें नए शासक का समर्थन मिला हुआ है |अम्माजी के घर की पाँचों स्त्रियाँ की इज्जत खतरे में है|गांव के मंदिर का पुजारी उन्हें मंदिर में छिपाए हुए है ,पर कब तक !उनके बाहर निकलने का रास्ता भी बंद है और राशन-पानी भी |कब तक वे हथियार नहीं डालेंगी ?निश्चित रूप से धारावाहिक माँ दुर्गा का चमत्कार दिखाएगा,जिससे अम्माजी फिर से शक्तिरूपा होकर अपने परिवार की रक्षा करेंगी |
पर मैं सिर्फ उस भविष्य की ओर संकेत करना चाहती हूँ,जो निरंतर तेजी से घटते कन्या-अनुपात के कारण होने की प्रतीक्षा में है |यदि इसी तरह कन्या-भ्रूणों को मारा जाता रहा,तो क्या कल यह देश वीरपुर में तब्दील नहीं हो जाएगा?निश्चित रूप से जब पुरूषों को स्त्री उपलब्ध नहीं होगा तो जो शक्तिशाली व संपन्न होगा,वही स्त्री को प्राप्त करेगा |ज्यादातर परिवारों में कई पुरुष एक स्त्री के साथ रहने को विवश होंगे |एक अराजक स्थिति होगी |स्त्री मात्र मादा होगी,वस्तु होगी |स्त्री के लिए युद्ध होंगे ,छीना-झपटी,बलात्कार में बढ़ोत्तरी होगी |समाज से नैतिकता पूरी तरह विलुप्त हो लाएगी |अभी समय है,हम चेत सकते हैं,संभल सकते हैं |पर कहाँ खुल रही है हमारीआँखें?प्रसिद्ध नर्सिंगहोमों के करीबी नालों में असंख्य कन्या-अस्थियों का मिलना क्या सिद्ध करता है ?कचरे,जंगल व वियावनों में [मरने के लिए फेंकी गयी ]बच्चियों को देखकर यही लगता है कि आज भी बेटियों से लोगों को कितनी नफरत है|  ५ अक्टूबर दुर्गा नौमी- इस दिन अधिकतर हिन्दू परिवारों में नौ कन्याओं की पूजा-अर्चना की परम्परा है]गोरखपुरमें एक नर्सिंगहोम के पास से पांच माह की बच्ची का शव मिला है |बच्ची का शव अखबार में लिपटा हुआ था |ऐसी ना जाने कितनी बच्चियाँ इस तिथि को मिली होंगी |
समाज की मानसिकता इक्कीसवीं सदी में भी बेटियों के प्रति बदली नहीं है |वह बोझ है,पराया धन है |उसके पैदा होने से धरती धँस जाती है |आज भी स्त्रियाँ[विशेषकर अशिक्षित]पुत्र-मोह से ग्रस्त हैं | पुत्र के लिए कई व्रत रखती हैं[बेटी के लिए एक भी नहीं]| बेटे को दूध-मलाई खिलाती हैं,बेटी को रूखी-सूखी [धारणा कि बेटियां तो रूखी-सूखी खाकर भी ताड़ की तरह बढ़ जाती ] |बेटे का कैरियर महत्वपूर्ण मानती हैं,इसलिए अच्छे से अच्छा स्कूल,उच्च शिक्षा व खर्चीले संसाधन बेटे के लिए जुटाती हैं |बेटी के लिए तो बस शादी जरूरी है,इसलिए उसके लिए दहेज जुटाना ही पर्याप्त मानती हैं |मान्यता है कि लड़की तो जैसे चाहे,पढ़ ही लेगी |फिर उसकी शिक्षा भी तो बस उसे विवाह लायक बनाने के लिए है,कैरियर के लिए नहीं |कल पति नहीं चाहेगा,तो सब कुछ छोडना पड़ेगा,इसलिए ज्यादा खर्चा करना फिजूल है [हालाँकि शिक्षित व शहरी स्त्रियों की सोच अब काफी बदल चुकी है] मेरा एक शिक्षित मित्र चार बेटियों का पिता बनकर परेशान है|माँ की पोते की जिद ने उसे मजबूर कर दिया था |माँ तो रही नहीं और अब वह बच्चियों की शिक्षा और विवाह के खर्चे के बारे में सोच-सोचकर बीमार रहने लगा है |मैंने उसे बच्चियों की शादी की चिंता छोड़कर उन्हें अच्छी तरह शिक्षित करने का सुझाव दिया है,पर महंगी होती जा रही शिक्षा को देखकर मुझे भी चिंता हो रही है |आज के कठिन व महंगे समय में जहाँ किसी एक बच्चे की परवरिश ही मुश्किल है,वहाँ बेटे की प्रतीक्षा में बेटियों की लाईन लगाना या फिर भ्रूण का लिंग पता कर उसे नष्ट करवा देना या पैदा हो जाने के बाद मरने के लिए छोड़ देना या फिर बेच देना कहाँ की बुद्धिमानी है ?पर यह घटित हो रहा है ,जो चिंता का विषय है |समाज की मानसिकता जब तक नहीं बदलेगी ,लिंग-भेद जब तक नहीं मिटेगा ,तब तक इस समस्यां क समाधान नहीं हो सकेगा| यह प्रश्न उठ सकता है कि जब इतनी कन्याएँ पैदा हो रही हैं कि उन्हें मारने की जरूरत पड़ रही है,तो फिर बेटों के सापेक्ष बेटियों का अनुपात घट कैसे रहा है?पर यह हो रहा है ,क्योंकि ज्यादातर को बेटियां नहीं चाहिए ||कुछ लोगों का यह भी कहना है कि गरीबी इसका मुख्य कारण है |बढ़ती जाती दहेज की मांग के कारण माता-पिता बेटियों के साथ नाइंसाफी कर रहे हैं |उत्तर –प्रदेश की मुख्य मंत्री सुश्री मायावती जी ने इसी कारण से १५ जनवरी २००९ से महामाया गरीब बालिका आशीर्वाद योजना शुरू की ,जिसमें गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले परिवारों में बालिका के जन्म होने पर एक मुश्त धनराशि १८ वर्ष के लिए राष्ट्रीय बैंक में सावधि जमा कर दी जाती है |१८ वर्ष की आयु तक बालिका के अविवाहित रहने की स्थिति में उक्त जमा धनराशि से लगभग एक लाख रूपये की धनराशि उपलब्ध होगी |अब तक ४२५७१५ बालिकाएं इस योजना से लाभान्वित हो चुकी हैं |[यह सरकारी आकड़ा है,इसका लाभ कितनों को,कितना और कैसे मिलता है यह अलग शोध का विषय है]
निश्चित रूप से समाज की मानसिकता बदले बिना बेटियों को सम्मान नहीं मिलेगा ,न उनकी हत्याएं रूकेंगी |शिक्षा का प्रसार,जागरण-अभियान,मीडिया के प्रयास और सरकारी कोशिशें,सख्त कानून सबकी जरूरत पड़ेगी |मीडिया को लड़कियों के प्रति होने वाली हिंसा,यौन-शोषण,बलात्कार की खबरों के साथ उन खबरों को भी छापने में दिलचस्पी दिखानी चाहिए,जिसमें बेटियों ने कीर्तिमान बनाएँ हैं|उसे उनकी उपलब्धियों,सफलताओं का अधिकतम प्रचार-प्रसार करना चाहिए |ऐसा करने का सकरात्मक प्रभाव पड़ेगा |लोग बेटियों की सुरक्षा के लिए चिंतित नहीं रहेंगे |बेटियां भी आत्मविश्वास से भरेंगी और आत्मनिर्भर बनेंगी |जल्द ही वह दिन आने वाला है ,जब बेटी के जन्म का स्वागत होगा और लिंग-भेद हमेशा के लिए समाज से मिट जाएगा |३अक्तूबर को पुरूषों के लिए सुरक्षित मानी जाने वाली भारतीय सेना में पहली बार एक महिला जवान को शामिल किया गया है |अब तक महिलाओं को सशस्त्र बलों में सिर्फ गैर लड़ाकू इकाइयों में अधिकारी के तौर पर शामिल किए जाने की अनुमति थी ,लेकिन दो बचों की माँ ,३५ वर्षीया सैपर शांति तिग्गा ने शारीरिक परीक्षण में अपने पुरूष समकक्षों को पीछे छोड़ दिया |उसे ९६९ रेलवे इंजीनियर रेजिमेंट आफ टेरिटोरियल आर्मी में शामिल किया गया है |कहने का तात्पर्य यह कि धीरे-धीरे बेटियां हर क्षेत्र पर काबिज हो रही हैं |वे न कमजोर हैं,न अक्षम,न पुरूषों से किसी बात में कम, इसलिए समाज को उनके प्रति अपनी सोच बदल देनी चाहिए |’ना आना लाडो’की अम्मा जी भी अपनी सोच बदलने को वाध्य हो रही हैं सरकार भी ‘बेटी बचाओ’अभियान को युद्ध-स्तर पर लागू करने के लिए कृतसंकल्प है,तो देर किस बात की है |आइए हम सब भी इस पवित्र यज्ञ में शामिल हों और ‘पुत्र बिना गति नहीं’की मानसिकता को बदलें |

उफ़ ये जाति!

जाति का दंश बचपन में मैंने भी झेला है|वैसे मैं जन्म से वर्णिक[बनिया]हूँ ,जो दलित जाति नहीं |पहले यह पिछड़ी जाति में भी शामिल नहीं थी,पर ब्राह्मणों के मुहल्ले में पीठ पीछे हमें 'छोट जतिया' जैसा संबोधन जरूर सुनने को मिल जाता था |विशेषकर ब्राह्मणियों द्वारा ,जो जन्मजात श्रेष्ठता की भावना से भरी रहती थीं |उनके जैसे कपड़े हम नहीं पहन सकते थे|पहन लिया,तो उनकी नकल मानी जाती थी |उनके घर जाते समय हमें सावधान रहना पड़ता था कि उनकी पवित्र वस्तुएँ छू न जाएँ |मुझे बहुत बुरा लगता था और मैं उनके घर कभी नहीं जाती थी |हाँ,एक बार एक घर में जरूर गयी थी ,जब उनके यहाँ पहली बार टीवी  आया था |मेरे लिए वह अजूबा था ,पर उनकी झिड़की से आहत होकर मैंने अपने घर टीवी लाने के लिए माँ पर जोर डाला था |वे एक जूनियर इंजीनियर साहब थे ,पंडित थे, इसलिए उनकी पत्नी पंडिता थीं |किसी को अपने में नहीं लगाती थीं |उनकी बेटी राजकुमारी की तरह पल रही थी |उसकी हर बात निराली थी ,हम लोगों से हट कर थी |साधारण परिवार से होने के कारण न तो उसके जैसे कपड़े हमारे पास थे ,ना वैसा घर |थी भी वह बेहद गोरी और सुंदर |माँ उसकी खूब सराहना करती ,हर बात में उससे तुलना करती |माँ खुद जाति को मानती थी ,इसलिए पंडिताईन उनके लिए 'बड़े आदमी'थीं और हरिजन दाई माँ 'छोट आदमी'|पंडिताइन जैसा व्यवहार वे दाई माँ से करती थीं और वे भी इसे स्वाभाविक मानती थीं |पर मेरा बाल-मन इस भेद-भाव से सहमत नहीं होता था |वह राजकुमारी मेरे साथ पढ़ती थी और पढ़ाई में मुझसे तेज नहीं थी ,फिर कहाँ की राजकुमारी ?
पुरानी बात याद आने का एक कारण आज उपस्थित हुआ |एक दुकान पर एक ब्राह्मणी नौमी में कन्या पूजन का सामान खरीद रही थीं |बातों ही बातों में उन्होंने बताया कि -'ब्राह्मण कन्या के पूजन से ही पुन्य लाभ मिलता है ,चाहे एक ही कन्या हो |'मैंने कहा -कन्या में भी भेद ! दुर्गा क्या इस भेद-भाव से प्रसन्न होंगी ?तो वे पूरे आत्मविश्वास से बोलीं -देवी हमेशा ब्राह्मणों की पूजा से ही प्रसन्न होती हैं |किसी दूसरी जाति को देखा है कथा बांचते ,पूजा कराते |जो ऐसा करते हैं ,वे पाप के भागी होते हैं |मैं तो हमेशा ब्राह्मण कन्या को ही जिमाती हूँ ,और यही परम्परा हमारे खानदान में चलती है|'
मैं हतप्रभ हो उठी |'क्या तीस सालों में ये स्त्रियाँ जरा भी नहीं बदली हैं ?क्या इनके घरों के पुरूष भी नहीं बदले हैं ?क्या आज भी छोटी जाति के प्रति इनके मनों में वही पहले जैसी अकूत घृणा है ?कहीं दलित बच्चियों के साथ बलात्कार में यही घृणा तो काम नहीं कर रही ?पर कुछ तो जरूर बदला है ,जो आश्वस्त करता है |अखबार में खबर है कि -आज विश्व हिन्दू महासंघ महानगर [गोरखपुर]इकाई के तत्वाधान में दलित कुंवारी कन्याओं का नवदुर्गा रूप में पूजन शीतला माता के मंदिर पर होगा |पर कहीं न कहीं मन डरता भी है कि यह सिर्फ सियासी दिखावा ना हो ,क्योंकि अब तक जाति -पाति से लोगों की मानसिकता उबरी नहीं है |

Saturday 1 October 2011

शक्तिपूजा की सार्थकता

शक्ति-पूजा यानी स्त्री-पूजा के दिन हैं |अच्छा लग रहा है कि कम से कम वर्ष के दस दिन तो पुरूष स्त्री के आगे नतमस्तक होता है'|पर उसके बाद ....३५५ दिन ....!.क्या स्त्री देवी रह जाती है ?रहे भी कैसे !खामोश जो नहीं रहती ,साकार जो हो जाती है ,खिलाफत जो करती है ,उनकी इच्छा के अनुसार आचरण जो नहीं करती |मिट्टी की देवी हो या पत्थर की ,उसे वे अपनी इच्छा से गढ़ते हैं ,जेवर-कपड़े पहनाते  हैं,जो चाहते हैं,करते हैं और वह चुप रहती है ,इसीलिए तो पूजनीय है|बिगड़ी हुई स्त्री का पुरूष क्या करे ?
आप तो जानते ही होंगे कि शक्ति का उदभव पुरूष-देवों के सम्मलित तेज से हुआ था,किसी देवी का तेज उसमें शामिल नहीं था|शिव के तेज से शक्ति का मुख ,यमराज से माथा व केश ,विष्णु से भुजाएं ,चन्द्रमा से वक्ष ,इंद्र से कमर ,ब्रह्मा से चरण ,सूर्य से पैरों की अंगुलियाँ प्रजापति से दांत ,अग्नि से तेज ,वायु से कान तथा अन्य देवताओं के तेज से अलग-अलग अंग बने [अपवाद स्वरूप इनमें तीन देवियाँ शामिल हैं ,पर उनका पर्याय भी पुलिंग है ] शक्ति पुरूषों द्वारा गढ़ी गयी है ,इसलिए उसे पूजा जाता है |अपनी रक्षा करवाई जाती है और काम निकलते ही विदा कर दिया जाता है ,फिर शुरू हो जाता है स्त्री -हिंसा का दौर |वैसे कुछ बड़े मर्द [?]दस दिन भी सब्र नहीं कर पाते |उदाहरण देखिए -३०सितम्बर को गोरखपुर में ही[ऐसी घटनाएं दुसरे स्थानों पर भी हुई होगी] नौ वर्ष की बालिका से दुराचार हुआ |दहेज की मांग को लेकर एक  गर्भवती को इतना पीटा गया कि उसकी हालत गम्भीर है, पिता ने उसे जिला महिला अस्पताल में भरती कराया है|[ज्यादा बताकर उन भक्तों का मन खराब नहीं करना चाहती,जो सच्चे मन से पूजा-व्रत कर रहे हैं,यह टिप्पणी उनके लिए है भी नहीं] इसी शक्ति-पूजा के दिन एक बेटे ने अपनी ही माँ को जिन्दा फूंक दिया था |एक ने बाकायदा सुपारी देकर माँ को बुरी तरह तड़पाकर मरवाया[माँ ने उसकी आवारगी के कारण पिता को रूपये देने से मना कर दिया था ,इसलिए सबसे पहले उसने माँ की वह जीभ कटवाई ,जिससे मना किया था] बूढ़ी माँ को सड़क,जंगल व वृद्धाश्रमों में पटक आने वाले,या घर में ही अपमानित व प्रताड़ित करने वाले बेटों की शक्ति पूजक इस देश में कमी नहीं है | 
क्या स्त्री का सम्मान न करने वालों से स्त्री रूपा शक्ति प्रसन्न हो सकती है ?कदापि नहीं|तो आओ मित्रों,स्त्री के प्रति सम्मान भाव  जगाने के लिए सामंती मानसिकता बदलें ,स्त्री-हिंसा समाप्त करने का संकल्प लें |ऐसा करने से ही शक्ति प्रसन्न होंगी,और यह समाज-संसार सुखी होगा |

काश ऐसा होता

आज फिर अखबार में खबर है कि 'एक माँ ऐसी भी...|' कारण -दो बच्चे लावारिस मिले हैं |इधर लगातार' डायन माँ ने ...,हवस की मारी माँ ने ....अपने बच्चे को मरने के लिए छोड़ दिया |' ऐसी खबरें पढ़ने को मिलीं|ये खबरें  मुझे विचलित करती हैं |क्या आज भी स्त्री उतनी ही मजबूर ,कमजोर और बेवकूफ है ,जितनी पहले हुआ करती थीं ?कुंती ने कर्ण,विधवा ब्राह्मणी ने कबीर और ऐसी ही अनगिनत माओं ने अपनी संतान का परित्याग क्या खुशी से किया होगा ?क्या संतान उन्होंने खुद गढ़ कर अपनी कोख में डाल लिया होगा ?क्या पूरे नौ महीने अपनी कोख में रखते और असीम पीड़ा सहकर जन्म देते समय वे डायन ,कठकरेज ,निर्मम ना थीं ?फिर क्यों वे अपनी संतान को त्यागने पर मजबूर हुईं ?कहाँ था उस समय वह पुरूष ,जिसने स्त्री की कोख को हरा किया था? क्यों नहीं समाज ऐसे बच्चों को सम्मानजनक स्थान देता है ?क्यों नहीं ऐसी स्त्री को चरित्रवान समझा जाता है ?उसे मनुष्य की तरह जीने दिया जाता है ?
आज जब कि परिवार नियोजन के साधन आसानी से उपलब्ध हैं ,क्योंकर स्त्री गर्भवती हुई ?निश्चित रूप से वह प्रेम के विश्वास में मारी गयी होगी ,या फिर इस काबिल ना होगी कि बच्चे को पाल सके |ऐसी स्त्रियों को गा ली देने वालों को अपने गिरेवान में भी झाँक कर देखना चाहिए |भरे पेट अय्याशी करने वाले क्या जाने अभाव की पीड़ा ?क्या जाने भूख ?स्त्री होने की लाचारी ?चलिए मान लिया देह की भूख के कारण स्त्री ने संबंध बनाए थे ,जिसका परिणाम गर्भ हुआ |तो क्या यह भूख सिर्फ उसे लगी?बड़े-बड़े महात्मा ,देवता काम के वशीभूत हुए |स्त्री भोली होगी ,वरना समझदार  स्त्री फंसने वाला काम भला क्यों करती ?मेरे शहर में एक गंदी सी पगली है ,वह अब तक दो बार माँ बन चुकी |संभ्रांतों के इस शहर में कोई तो उसके बच्चों का पिता होगा|काश ,स्त्री के पास उपजाऊ कोख ना होती ,तो जाने कितने महापुरुषों का पाप आकार न लेता और स्त्री को गरियाने का मौका समाज के हाथ से निकल जाता | 

Friday 30 September 2011

संवेदना

एक बुजुर्ग कवि ने पितृपक्ष के आखिरी दिन ब्राह्मणों को दान देने की अपेक्षा गरीब-भिखारियों को खाना खिलाना उचित समझा और काली मंदिर के पास जा पहुँचे|सबसे पहले उन्होंने दो बुजुर्ग स्त्रियों को भोजन दिया |उपर से दस-दस रूपये भी |फिर सभी भिखारियों को भोजन और रूपये बाँटने लगे |तभी एक रिक्शा वाला दौड़ा आया और उसने भी भोजन की मांग की |कवि ने कहा -'यह भोजन गरीबों के लिए है |गिनकर मंगवाया गया है ,इसलिए वह माफ़ करे|'रिक्शे वाला आग -बबूला हो उठा |लगा बद् दुआ देने -'तहके हम अमीर लउकत बानी ,तहार सब नष्ट हो जाई|'बेचारे कवि अभी दुखी हो ही रहे थे कि वे दोनों बुजुर्ग औरतें फिर खाना लेने वालों की लाइन में आ खड़ी हुईं |कवि ने उन्हें पहचान कर कहा -'आप लोगों को तो सबसे पहले ही भोजन दिया था|'वे इंकार करने लगीं |जब कवि नहीं माने तो उन्होंने ऐसी -ऐसी गालियां व बददुआएं उन्हें दीं कि उनके होश फाख्ता हो गए |यह घटना मुझे बताते समय कवि की आँखों में आँसू थे |मैं सोचने लगी -क्या संवेदना भी आज बिकाऊ माल है |

Tuesday 27 September 2011

बहती गंगा


मुझे बड़ी उम्र की लड़कियाँ पसंद हैं ...इसलिए तुम्हें प्यार करता हूँ ...|"
तीस वर्षीय युवती से बीस वर्ष के नवयुवक ने कहा |
-लोग क्या कहेंगे ?हमारी जोड़ी देखकर हँसेंगे या नहीं ..|
"मुझे लोगों की परवाह नहीं |"
-दस वर्ष बाद मैं अधेड़ हो जाऊँगी, तो क्या तुम मुझसे विरक्त नहीं हो जाओगे ?
"इतना नीच नहीं हूँ ...फिर प्रेम सिर्फ शरीर से थोड़े होता है ..|शरीर तो माध्यम है आत्मा तक पहुँचने का |"
-तुम इतनी कम उम्र में इतनी बड़ी -बड़ी बातें कैसे कर लेते हो ?
"खबरदार !जो आज के बाद मुझे कम उम्र कहा |मैं बुद्धि से वयस्क हूँ तुमसे |कम उम्र की लड़कियाँ तो मुझे बच्ची लगती हैं |"
-फिर भी मैं उम्र में तुमसे बड़ी तो हूँ ही |
"एक थप्पड़ लगाऊंगा ...|.बच्ची -सी अक्ल और चली हैं बड़ी बनने ..|"
           और दोनों में दोस्ती हो गयी |दोस्ती प्यार में बदली और लड़की सपने देखने लगी |लोगों ने कहा -लड़की चालू है ...लड़के को फंसा लिया |लड़के के दोस्तों ने पूछा -क्यों यार ,बड़े चर्चे हैं तुम्हारे |शादी करोगे क्या उससे ?
लड़का हँसा -'शादी ..!और उस बुढिया से !अरे ,टाईम-पास कर रहा हूँ  |....बहती गंगा है ..हाथ धो रहा हूँ |'

Wednesday 21 September 2011

हिसाब

वह बेचैनी से बार-बार घड़ी की तरफ देख रहा था |काम तो बस चार घंटे का था ,उस हिसाब से दो बजे तक उसे आ जाना चाहिए था ,लेकिन चार बज रहे हैं |अचानक कुछ सोचकर वह मुस्कुराने लगा |लगता है ओवरटाइम करना पड़ गया है |तभी दरवाजे पर एक कार रूकी |लड़खड़ाती हुई एक लड़की उतरी और अपने कमरे की ओर जाने लगी |वह चीखा -"हिसाब|"लड़की ने घृणा से पिता की तरफ देखा और अपना पर्स उसकी तरफ उछालकर अंदर चली गयी |वह पागलों की तरह रुपये निकलकर गिनने लगा -'बस दस हजार ....और ओवरटाइम के दो हजार!...धोखा!!'वह गुस्से से भरा लड़की के कमरे की और बढ़ा|लड़की बेसुध सो रही थी |उसका जी चाहां कि उसे झकझोर कर पूछे ,फिर कुछ सोचकर कमरे की तलाशी लेने लगा |लड़की के ब्लाउज से झांकते दो हरे नोट उसे दिख गए |उसकी आँखें चमकने लगीं |

Tuesday 13 September 2011

चौथा रास्ता

तीन अधेड़ स्त्रियाँ थीं |उनमें पहली ने विवाह नहीं किया था |सफल ,आत्मनिर्भर ,अपने ढंग से जीवन जी चुकी वह स्त्री उम्र के इस ढलान पर एक बच्चे के लिए ललक रही थी ,जो जवानी में डंके की चोट पे नहीं चाहिए था उसे |बच्चे के बिना उसे अपनी सफलता बेमानी लग रही है|
 दूसरी स्त्री इसी उम्र में जोड़ो के दर्द का शिकार है |बच्चे बड़े और आत्मनिर्भर हो चुके हैं |उन्हें अब माँ की जरूरत नहीं रही |माँ को ही उनकी जरूरत है ,पर वे उसे बोझ समझ रहे हैं |वह सोच रही है कि काश .बच्चों की परवरिश में अपनी प्रतिभा क उत्सर्ग नहीं किया होता ,तो वह भी आज सफल व आत्मनिर्भर होती |
तीसरी स्त्री पूरी जवानी बच्चों और नौकरी के बीच झूलती रही थी |वह हमेशा तनाव में रही |कभी सोचती -कहीं अपनी महत्वाकांक्षा में बच्चों  की उपेक्षा तो नहीं कर रही ,तो कभी सोचती -बच्चों के कारण अपने पेशे के साथ बेईमानी तो नहीं कर रही| आज वह डिप्रेशन की मरीज है |
तीनों स्त्रियाँ तड़प रही हैं और मैं सोच रही हूँ |चौथा रास्ता कौन है ?

Monday 12 September 2011

सफल स्त्री

वह बड़ी नेता है |
"अमुक नेता की रखैल जो है |"
वह नामी खिलाड़ी है | 
"अपने कोच की विशिष्ट..|" 
वह अच्छी लेखिका है |
'प्रसिद्ध लेखक की ..|"
वह अच्छी पत्रकार है |
"संपादक की पत्नी बीमार रहती है ..|"
वह प्रिंसिपल बन गयी |
"मैनेजर का बिस्तर ...|'
आपका मतलब हर सफल स्त्री किसी न किसी पुरुष की ....?
'जी नहीं मेरा मतलब यह नहीं था -बहुत सी स्त्रियां अपने बल पर भी सफल हैं |जैसे मेरी बहन सफल डॉक्टर है ,मेरी माँ प्रिंसिपल है और मेरी बेटी अच्छी खिलाड़ी |"

Sunday 11 September 2011

दयालु

वे बड़े दयालु थे |बाल -श्रमिकों को देखकर उनका दिल रो पड़ता |उन्होंने बाल -कल्याण के लिए अनेक कार्यक्रम चला रखे थे ,जिनमें सरकार भी सहयोग कर रही थी |
उस दिन वे एक समारोह में भारत के नौनिहालों के भविष्य पर भावुक भाषण देकर लौटे |तपती दुपहरिया थी |घर पर सिवाय दस वर्षीय नौकर के सिवा कोई न था |घंटी बजाने पर दरवाजा खोलने में दो मिनट की देर हुई |नौकर नींद से बोझिल आँखों को खोल नहीं पा रहा था |वे गुस्से से भर उठे -"हरामजादे .....मादर.....तेरी ......|" गाली बकते हुए उन्होंने उसे झन्नाटेदार तमाचा दे मारा |नौकर रोता हुआ अंदर गया और खाने की मेज पर खाना लगाने लगा |उन्होंने खाना खाया और बेडरूम में चले गए |नौकर ने उनकी जूठन को मुँह लगाया ही था कि उन्होंने आवाज दी |हाथ धोकर वह सहमता  हुआ -सा अंदर गया |उन्होंने बड़े ही रोमांटिक दृष्टि से उसे देखा और बिस्तर पर खींच लिया |

Saturday 10 September 2011

कुम्भीपाक नरक

चुनाव का मौसम समीप था|नाजुक -सी वे एक गरीब बस्ती में गयी |वहाँ न पानी था ,न बिजली|जगह -जगह बदबूदार नालियां और रेंगते कीड़े से लोग |सलाहकार ने उनके कान में कहा -"एक बच्चे को गोद में उठाइए ,उसकी बहती नाक पोंछ दीजिए ,बस यहाँ के सारे वोट आपके ..|"
उन्होंने बच्चे की बहती नाक को देखा |उन्हें धर्मग्रन्थों में वर्णित कुम्भीपाक नरक की याद आ गयी |वे बेहोश हो गयीं |
दूसरे दिन एक खबर अखबार की सुर्ख़ियों में था -"वे भारत के नौनिहालों की बदतर हालत न देख सकीं और दुःख से बेहोश हो गयीं |"

Friday 2 September 2011

दोषी कौन ?


जून महीने में गोरखपुर के अख़बारों में शिखा उर्फ पूजा हत्याकांड प्रमुखता से छपा इस हत्याकांड में कई बातें गौरतलब थीं -
१ -जिस लड़की की हत्या हुई ,वह शिखा नहीं, सोनभद्र की पूजा थी
२ -शिखा ने पूजा की हत्या का षड्यंत्र अपने प्रेमी दीपू यादव के साथ मिलकर किया ,दीपू का ट्रकचालक लल्ला व उसके मित्र सुमित ने भी इसमें उनका साथ दिया |
३ -हत्या के बाद शिखा ने पूजा के शव को अपने कपड़े पहनाएँ,ताकि उसके घर वाले उसे मरा हुआ मान लें |
४ -लल्ला और सुमित ने पूजा के शव को विकृत कर दिया, ताकि वह  दुर्घटना का शिकार लगे |
५ -पूजा के चयन के पीछे उसकी कद -काठी का शिखा जैसा होना था |
६ -पूजा वर्षों से लल्ला व दूसरे ट्रक चालकों के संपर्क में थी, क्योंकि अपने बेटे की परवरिश के लिए उसे पैसों की जरूरत थी |वह विधवा थी तथा ससुराल व मायके से उसे कोई मदद नहीं मिल रही थी |
                इस घटना ने जनमानस को हिला दिया |दीपू के पिता चन्द्रभान अपने पुत्र की करनी से शर्मिंदा हुए ,तो शिखा के पिता उसे अपनी पुत्री मानने से ही इंकार रहे हैं |पूजा के पिता होरीलाल बेटी की हत्या से दुखी हैं और सूद के पैसे से उसका ब्रह्मभोज करने की बात कर रहे हैं गौर करें कि पूजा अपने ७ वर्ष के पुत्र के साथ पटबंध में एक प्राथमिक स्कूल के बगल में किराये के मकान में रहती थी और लल्ला व अन्य चालकों का मन बहलाकर जीवन चला रही थी |आश्चर्य तो यह है कि जो पिता आज न्याय की गुहार लगा रहे हैं ,यह सोच कर  खुश रहा करते थे कि बेटी मेहनत -मजूरी करके जीवन चला रही है |पर कैसी मजूरी यह जानने की उन्होंने कभी कोशिश नहीं की थी |दीपू के पिता इस बात से इंकार कर  रहे हैं कि उन्हें दीपू और शिखा के अफेयर की जानकारी थी ,जबकि एक वर्ष पूर्व शिखा ने जहर खा कर  उन्हीं के घर में शरण लिया था और उनकी पत्नी ने ही उसे अस्पताल पहुँचाया था |इस हत्याकांड में सबसे दुखद पक्ष तो पूजा का है.बचपन के वह खौलते तेल में गिरकर जल गयी, फिर उम्र भर जलती ही रही| विवाह के चार साल बाद बाद ही पति -सुख से वंचित हो गयी |किसी ने भी उसकी मदद नहीं की |प्रेमी के नाम पर लल्ला मिला ,जिसने वर्षों उसका उपभोग किया -करवाया और अंततः उसकी मौत का सौदा भी कर लिया |तड़पा-तड़पा कर उसकी देह से आत्मा को निकाला गया |उस पर भी बस कहाँ हुआ? उसके शव को पहले विकृत किया गया ,फिर जाँच के नाम पर २ -२ बार चीर-फाड़ हुई | और दूसरे के नाम से दाह-संस्कार हुआ|आखिर उसका अपराध क्या था ?गरीब होना कि स्त्री होना ! क्यों ऐसी स्त्रियों के पास देह बेचने के अलावा कोई विकल्प नहीं ?हजारों-हजार पूजाएं इस देश में ऐसे ही नर्क में जी रही हैं और कुतिया की  मौत मर रही हैं |अक्सर हाइवे के सूनसान जगहों पर विकृत मादा -देह मिलती है ,जिनकी शिनाख्त तक नहीं हो पाती |चंद रुपयों के लिए रेलवे स्टेशनों व शहर के कोने -अतरों  में मोल -भाव करती औरतों को देखकर जहाँ वितृष्णा होती हैं ,वहीं  मजबूरी को खरीदने वालों को गोली से उड़ा देने को जी चाहता है |
            अब शिखा की बात करें ,आज पिता, परिवार -समाज सब उस पर थूक रहे हैं कि अपना प्यार पाने के लिए उसने एक निर्दोष लड़की की बलि ले ली |शिखा रो -रोकर फरियाद कर रही है कि माता -पिता को बदनामी से बचाने और उनको दुःख न पहुँचाने की मंशा ने उसे ऐसा करने को मजबूर किया ,तो क्या शिखा के पास इसके सिवा कोई विकल्प नहीं बचा था?क्या उसके माता -पिता किसी भी तरह उसके विवाह को राजी नहीं थे ?ऐसा तो हो नहीं सकता कि एक वर्ष पहले ,जब इस प्रेम में शिखा ने विष खा लिया था ,तो उसके अभिभावकों को पता नहीं चला होगा |फिर क्यों उन्होंने उनके प्रेम को स्वीकृति नहीं दी ?क्या ऐसा करके वे इस हादसे को होने से नहीं रोक सकते थे?लड़की को दोषी ठहरा देना सबसे आसान काम है ,इसलिए शिखा दोषी है,पर विचार करने की जरूरत है कि आखिर असली दोषी कौन है ?

Sunday 28 August 2011

स्त्री -विरोधी विज्ञापन

कोई पुरुष एक खास किस्म का  परफ्यूम लगाता है ,और कई स्त्रियां उससे चिपक जाती हैं ,मानों उनका अस्तित्व इसी काम से सार्थकता पाता हो |परफ्यूम ही क्यों ,चाकलेट ,सेविंग क्रीम ,कार,मोटरसाइकिल इत्यादि के विज्ञापन में भी स्त्रियों को इसी उद्देश्य से रखा जाता है ,पुरुष इन प्रोडक्टों का इस्तेमाल करके राह चलते किसी भी स्त्री का यौन निमंत्रण पा सकता है 
स्त्रियों की काम -भावनाओं को विकृत तरीके से पेश कर विज्ञापन निर्माता धन उगाही में लगे हुए हैं |वे जानते हैं कि यौन मनुष्य[विशेषकर युवाओं की ] की कमजोरी भी है और शक्ति भी |युवा नए -नए प्रयोगों की तरफ आसानी से आकृष्ट हो जाता है ,इसलिए अपने उत्पाद के साथ वे स्त्री को परोस रहे हैं |उस पर दावा यह कि वे स्त्रियों को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं |
स्त्रियों में अन्धविश्वास फैलाने का काम भी विज्ञापनों द्वारा खूब हो रहा है |यह भी कोई बात हुई कि गोरेपन की क्रीम लगाते ही स्त्री की किस्मत खुल गयी |कुंडली मिल गया ,प्रेमी वश में हो गया ,नौकरी मिल गयी |हद है!
स्त्रियों को पुरुष की तरह बलवान व आत्मनिर्भर बनाने का दावा करने वाले विज्ञापन भी दरअसल अपना उत्पाद बेचने के लिए तमाम भ्रम ही फैला रहे हैं | विचारों से आधुनिक व सक्षम हुए किसी परिवर्तन की उम्मीद की ही कैसे जा सकती है ?स्त्रियों को इन षड्यंत्रों को समझ कर खुद के इस्तेमाल किये जाने के खिलाफ उठ खड़ा होना पड़ेगा |

Saturday 20 August 2011

कितने कालिया ?

जन्माष्टमी पर मैं एक झांकी को देख रही हूँ _कालिया नाग के फणों पर नृत्य करते कृष्ण का |कालिया के अनगिनत फणों से अनेक चेहरे झांक रहे  हैं |ये वे चेहरे हैं ,जिन्होंने देश रूपी यमुना को प्रदूषित कर रखा है |ये हर क्षेत्र में प्रदूषण फैला रहे हैं -साहित्य ,संस्कृति ,शिक्षा ,धर्म,राजनीति,समाज ....सबमें |इनके हजारों सिर हैं |एक को दबाओं ,दूसरा उभर आता है |बड़े शक्तिशाली हैं ये ,ऊंची पहुँच वाले |आम जनता त्रस्त है इनसे ,मर रही है ,आत्महत्या कर रही है ,पर इनसे मुक्ति का कोई विकल्प नहीं सूझ रहाहै उसे |द्वापर युग में तो एक ही कालिया था ,तो ईश्वर को अवतरित होकर भगाना पड़ा उसे |पर आज तो कोई कृष्ण नहीं और अनगिनत कालिया हैं ,क्या होगा इस देश का ?आज के बाल -कृष्ण रोग से मर रहे हैं या शोषण से |नहीं तो कालियों द्वारा फैलाये मीठे जहर से |निरंतर कमजोर हो रहे इन कृष्णों  से कालियों का भला क्या बिगड़ेगा?मुझे तो डर है कि कहीं आज के कृष्ण कल के कालिया न बन जाएँ |क्या इस जन्माष्टमी पर हमें इस समस्या पर विचार नहीं करना चाहिए?

Wednesday 17 August 2011

आखिर कब ?

जब मेरी कवितायेँ नहीं छपती थीं ,तो वे कहते थे -"स्त्री है क्या खाक लिखती है,जो छपेगी ?"जब छपने लगी ,तो कहने लगे ",स्त्री होने के नाते छप रही है |" क्यों स्त्री के लेखन को संदेह की नजर से देखने की परम्परा है ?गनीमत है कि किसी पुरूष से जुड़ी नहीं हूँ ,वरना वे यह भी कह देते ,मैं नहीं वही लिख रहा है मेरे लिए ,जैसा कई अच्छी स्त्री रचनाकारों के बारे में  कहा जाता है |हाँ ,ज्यादा छपने के कारण उन लोगो ने मेरे बारे में तमाम खराब बातें लिखकर {जिसमें चरित्र हनन से लेकर बड़ी उम्र के होने का ताना भी था }संपादकों को भेजा |यानि कि मुझे लेखन से विरत करने का हर सम्भव प्रयास किया गया |सोचती हूँ कि कितने कमजोर होते हैं ,वे पुरूष ,जो स्त्री के लेखन को बकवास भी समझते हैं ,और उससे इतना डरते भी हैं कि ऐसे ओछे  हथकंडे अपनाते  हैं |आखिर कब ऐसा समझा जायेगा कि स्त्री भी दिमाग रखती है ,सोच सकती है ,लिख सकती है |स्त्री को व्यक्ति कब समझा जायेगा ? 

Saturday 13 August 2011

शर्म मगर उन्हें नहीं आती

अभी कुछ दिन पहले एक शहर में एक गैंग पकड़ा गया ,जो आठ वर्ष की बच्चियों को आक्सीटोसीन का इंजेक्शन लगाकर समय से पूर्व उन्हें बड़ा बनाकर देह व्यापार में धकेल देता था |रूपये कमाने के लिए इस हद तक गिर जाने वाले ये लोग कौन हैं ,और वे लोग कौन हैं ,जिनकी गलीज इच्छापूर्ति के लिए यह व्यापार देश में तेजी से फैल रहा है ?क्या उन्हें शर्म नहीं आती ?

रिश्ते

कल रक्षाबन्धन में घर गयी थी ,एक उदासी लेकर लौटी |रिश्तों में अब वह मिठास नहीं बची |सब कुछ औपचारिक सा होकर रह गया है |ज्यों -ज्यों भाई अमीर होते गए है ,उनका स्नेह घटता गया है ,बहनें  भी अब तोहफें ही देख रही हैं |तीन अमीर बेटों की माँ होकर भी माँ बीमार -कमजोर व लाचार दिखी,फिर भी बेटों का मोह उनपर भारी है |सभी अपने -आप में गुम हैं,सबकी अपनी परेशानियां हैं |उनके बीच मैं अपनी परेशानी भूल जाती हूँ,फिर भी जाने क्यों घर से आने के बाद उदास हो जाती हूँ ?