Thursday 20 December 2012

योनि मात्र रह गई रे मानवी

दिल्ली में हुए 'रेप-कांड'से मन बहुत विचलित है |वैसे तो लगभग प्रतिदिन इस तरह की घटनाएँ सुनने -पढ़ने  को मिल जाती हैं,पर इस बार तो बलात्कारियों ने हैवानियत की सारी हदें पार कर दी हैं |अक्सर मैं सोचती हूँ कि क्या ऐसे पुरूष सामान्य हैं ?वह कौन-सी मानसिक ग्रंथि हैं ,जो उन्हें इस तरह का कुकर्म करने को उकसाती है |निश्चित रूप से ऐसे मनोरोगी अपनी माँ तक का सम्मान नहीं करते,उससे प्यार नहीं करते |हो सकता है किसी कारण से उससे नफरत करते हों |कभी एक शोध पढ़ा था,जिसमें कई बड़े हत्यारों का मानसिक परीक्षण किया गया था और रिजल्ट में यही निकला था कि वे बचपन में अपनी माँ की किसी बात से नाराज थे,उसे प्रकट नहीं कर पाए,तो वह धीरे-धीरे एक ग्रंथि बन गई और ज्यों ही उन्हें अवसर मिला ,उन्होंने हत्या जैसे अपराध तक कर डाले |
किसी स्त्री से बलात्कार करना ,उसके स्त्री-अंग को क्षति पहुँचाना स्वस्थ मानसिकता नहीं हो सकती |जिस अंग-विशेष से  पुरूष का अस्तित्व धरती पर आकार लेता है,उसी से इतनी नफरत !छल-बल से उसे पाने की कोशिश,फिर उसकी छीछालेदर !कभी उसमें पत्थर भरना,कभी ताले लगाना,कभी रॉड इत्यादि खतरनाक हथियारों का इस्तेमाल ,कभी दोस्तों के साथ मिलकर सामूहिक बलात्कार !उफ़!नफरत की कोई सीमा है !
स्त्री से बलात्कार की कोई उमर सीमा भी निर्धारित नहीं है |६ माह की बच्ची से लेकर ६० वर्ष की वृद्धा तक का बलात्कार होता रहता है |कपड़ों व आजादी को इसका कारक बताने वालों को बता दूँ कि १८ दिसम्बर को कम्पेयर-गंज में मात्र १८ माह की बच्ची के साथ २५ वर्ष के विवाहित युवक ने दुराचर किया है|गाँव-कस्बों में प्रतिदिन ऐसी भोली-भाली बच्चियों के साथ दुराचार होता है,जो ना तो मार्डन  कपड़े पहनती हैं,ना उस हद तक आजाद हैं |खेत-खलिहानों में काम करने वाली ,मजदूरी करने वाली,विकलांग-बीमार,मजबूर ,गरीब ,पागल किस स्त्री के साथ दुराचार नहीं होता |महानगरों में उच्च-शिक्षा या नौकरी करने वाली स्त्रियाँ आते-जाते या कार्यस्थल पर कितनी छेड़छाड़,यौन-जनित टिप्पणियाँ सुनती हैं ,यह वही जानती हैं |कहाँ-कहाँ लड़े,किस-किसके खिलाफ रपट करें |पुरूषों की मानसिकता बदलने का नाम ही नहीं ले रही है |अपढ़ ही नहीं पढ़े-लिखे भी स्त्री को वस्तु मात्र समझ रहे हैं |आजकल के फ़िल्मी गानों और डायलाग्स सुनिए |मन क्षोभ से भर जाता है |पर वैसी ही फ़िल्में और गाने सुपर हिट हो रहे हैं |बच्चे उन्हें दुहरा रहे हैं |शराब पीकर दबंगई करना हीरोपन  है||'मैं चीज बड़ी हूँ मस्त-मस्त',मैं तंदूरी मुर्गी हूँ अल्कोहल से गटक लो 'चिकनी चमेली पऊवा चढाकर आई ''हलकट जवानी'इत्यादि| क्या यही है आज की स्त्री !पुरूषों को बहकाने वाली आईटम गर्ल |अभिनेत्रियाँ तो अपने आईटम से मदों का मन बहका कर,करोणों कमाकर अपने सुरक्षित महलों में चली जाती हैं और खामियाजा भुगतती हैं कैरियर और रोटी के लिए संघर्ष करती स्त्रियाँ या असहाय,मजबूर बच्चियाँ |क्या फिल्म बनाने वालों की समाज के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं बनती ?
अक्सर सामूहिक रूप से बलात्कार करने वाले शराब पीकर मत्त होते हैं और  नीली फिल्मों के आदी होते हैं |ये दोनों ही चीजें इंसान को पिशाच बनाती हैं,स्त्री को योनि मात्र मे बदल देती हैं |क्या इन दोनों चीजों पर प्रतिबंध लगाने के लिए सरकार कुछ कर रही है ?बलात्कारियों को कभी बड़े लोगों का संरक्षण मिल जाता है तो कभी पुलिस की ढिलाई का लाभ मिल जाता है |क़ानून भी उन्हें ऐसी सजा नहीं देता कि दूसरे दरिंदों के मन में डर पैदा हो|क्या सरकार,पुलिस,कानून स्त्री की इस दुर्दशा का जिम्मेदार नहीं |स्त्री-सशक्तिकरण का आलाप करने मात्र से क्या स्त्री सशक्त हो जाएगी ?कई प्रश्न है,जिसका जवाब खोजना होगा | आज तो सुमित्रानंदन पन्त जी का हाहाकार वातावरण में गूंज रहा है -योनि मात्र रह गई रे मानवी |   

Sunday 16 December 2012

सोशल नेटवर्किंग साइट्स अर्थात सामाजिक संपर्क सूत्र


सामाजिक सम्पर्क सूत्रों की परिकल्पना कहीं ना कहीं भारतीय संस्कृति के ‘विश्व-बन्धुत्व’व ‘वसुधैव कुटुम्बकम’की अवधारणा के करीब है |इन सम्पर्क-सूत्रों ने पूरे विश्व को एक परिवार में बदल डाला है और इस तरह हमारी सामाजिकता का विस्तार किया है |इसमें अधिक से अधिक लोगों के लिए जगह है |’नेट’ कम्प्यूटरों का एक नेटवर्क है,जो व्यक्ति को एक ऐसे विश्व में विचरण का मार्ग उपलब्ध करता है जहाँ उसके लिए कम्प्यूटरों के भंडारित सूचना-खजानों तक पहुँचने के द्वार अचानक खुल जाते हैं |ई-मेल भेजना या उन्हें प्राप्त करना,डेटा फाइल्स प्राप्त करना,एक साथ कई लोगों के साथ फैंटेसी खेल खेलना,स्वतंत्र रूप से उपलब्ध सरकारी दस्तावेज,वैज्ञानिक आँकड़े,शौकिया लोगों की सूची,व्यापारिक और वैयक्तिक विज्ञापन,मौसम या  शेयर बाजार संबंधी आंकड़े सम्बन्धी जानकारी ‘नेट’ हमें उपलब्ध करता है |इस पर हम पैसों से  या फ्री जानकारियां उपलब्ध करा सकते हैं या कर सकते हैं |जाति-धर्म,लिंग,रंग,राष्ट्र इत्यादि विभेदों को जाने बिना लोगों से मिलना,बातें करना भी इस पर संभव है |एक तरह से यह समाजवाद और सार्वभौमिकता को प्रकट करता है |यह एक ऐसा विशाल,विस्तृत,लगातार फैलते जा रहे महानगर की तरह है,जहाँ जरूरत की हर वस्तु उपलब्ध है |कुछ तो ऐसी भी वस्तुएँ हैं,जो अकल्पित व अदृष्ट हैं |कोई उग्र,तो कोई शालीन,पर सभी नयी और रोमांचक |अपने आप में इसे एक पूरा विश्व कह सकते हैं ,जिसमें स्वेच्छा से विचरण की हमें आजादी है |इसमें हम शेक्सपीयर की कविताओं को पढ़ सकते है तो मनचाहे पेंटिंग भी देख सकते हैं |कम लागत और समय में विश्व की हर बात जान सकते हैं |साहित्य-संगीत,कला,विज्ञान ही नहीं दूसरे तमाम ज्ञानों की भी आपसी साझेदारी कर सकते हैं |विचारों के आदान-प्रदान का यह बेहतरीन माध्यम  है |इसके माध्यम से संसार के किसी भी महत्वपूर्ण मसलें में अपनी उपस्थिति हम दर्ज करा सकते हैं |आज हमारी खूबियां या विशेष योग्यताएं पद-धन या पहुँच की मुहताज नहीं |नेट के माध्यम से हम सहजता से उन्हें पूरे विश्व के सामने ला सकते हैं |आर्थिक,व्यापारिक सामाजिक,राजनीतिक,धार्मिक,आध्यात्मिक सभी प्रकार के उद्देश्यों की आपूर्ति यहाँ संभव है |सभी प्रकार के भेदभावों से उपर उठकर सिर्फ मनुष्य रूप में अर्थात मानवीय भावना से प्रेरित होकर मानवाधिकारों की रक्षा में भी इसकी भूमिका है |इसके माध्यम से पर्यावरण सुरक्षा,युद्ध का विरोध,शांति का समर्थन,विश्व-बन्धुत्व की भावना का विस्तार ,जरूरतमंदों की सहायता,संस्कृति  का आदान-प्रदान इत्यादि क्या कुछ नहीं किया जा सकता?एक तरह से आज के मानव के लिए यह वरदान है |
पर इस वरदान का एक स्याह पक्ष भी है और वह है ‘साईवर क्राईम’|इसमें किसी के निजी फोटो का गलत इस्तेमाल  कर उसे आर्थिक,सामाजिक,शारीरिक हानि पहुँचाई जाती है |प्रतिष्ठित व्यक्तियों पर कीचड़ उछालकर उसकी प्रतिष्ठा से आसानी से खिलवाड़ किया जाता है|साईबर टेररिज्म,साईबर वॉर,हैकिंग,पासवर्ड ब्रेक,ईमेल स्फूनिंग,पासवर्ड कोपिंग और बड़े स्तर पर वायरस व वामर्स डालकर कम्प्यूटर को नुकसान पहुँचाना इस क्राईम के हथियार हैं |इसके अतिरिक्त भी १५२ से अधिक तरीके से यह क्राईम किया जा रहा है |
अफ़सोस की बात है कि एक बड़े उद्देश्य के लिए  शुरू किए गए संपर्क-सूत्र अपराधी प्रवृति के लोगों के हाथों में पड़कर विनाशकारी बन रहे हैं |इनके जरिए मानसिक विकृतियों के शिकार,यौन-कुंठित लोग अपनी विकृतियाँ परोस रहे हैं ,जिसके कारण बच्चों और किशोरों के लिए ये अभिशाप सिद्ध हो रहे है|स्वभाव से जिज्ञासु होने के कारण वे पोर्न-साईट्स खोलते हैं और उसके आदी हो जाते हैं | फिर गलत प्रवृति के लोग इन बच्चों को अपनी यौन-कुंठा का शिकार बनाते हैं और उनका हर तरह से शोषण करते हैं |जिसका परिणाम यह होता है कि वे चिडचिडे,कुंठित और हिंसक हो जाते हैं |उनका पढ़ाई में मन नहीं लगता |उनका शारीरिक,मानसिक,बौद्धिक,चारित्रिक,सामजिक विकास रूक होता है|वे ज्यादा समय ‘नेट’ से चिपके रहते हैं |बोलने में हकलाते हैं और तनाव के शिकार हो जाते हैं |किसी से मिलना-जुलना पसंद नहीं करते,ना ही खेल-कूद में रूचि लेते हैं | ये लक्षण बाद में उन्हें आत्मग्लानि से आत्मघात तक ले जाती है | युवा व वृद्ध भी नेट के आदी होने पर रिश्तेदारों व मित्रों से कटते जाते हैं |तमाम तरह के शारीरिक-मानसिक बीमारियों की चपेट में आ जाते है| इस तरह वे सामाजिक होने के वजाय असामाजिक होते जाते हैं |समाज में निरंतर बढ़ रहे यौन-अपराध व हिंसा में भी ‘नेट’की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता |
इस तरह सोशल नेटवर्किंग साईट्स गलत प्रकृति के लोगों के हाथों में पड़कर अपना मूल उद्देश्य खो बैठा है |यदि जल्द ही इसके संस्थापकों और विश्व-समाज व सरकार द्वारा इसकी बुराईयों की रोकथाम नहीं की गई,इसे बेलगाम होने से नहीं रोका गया,तो इसे भस्मासुर बनने से कोई नहीं रोक सकेगा,फिर ना ये समाज बचेगा,ना ही भविष्य |

Friday 8 June 2012

विभक्त स्त्री



अक्सर हम स्त्रियाँ पुरूषों की दोहरी मानसिकता का रोना रोती हैं,पर गहराई से देखे तो अधिकाँश स्त्रियाँ भी दोहरी मानसिकता में जीती मिलेंगी |उनके सिद्धांत और व्यवहार,कथनी और करनी,मन की चाहत और तन की प्रतिक्रिया में अंतर मिलेगा |हाँ,यह सब पुरूष की तरह सज्ञानता और अहंकार के कारण नहीं होगा,बल्कि उनके जिंस के कारण होगा |स्त्री के जिंस में ही ऐसे संस्कार हैं,जो उसके व्यक्तित्व को दुहरा बना देते हैं |स्त्री कितनी भी आधुनिका क्यों ना हो जाए,अक्सर पुरूष-प्रेम में पारम्परिक हो जाती है |वह अपना एक घर,पति व बच्चा चाहती है |यह उसके व्यक्तित्व का अनिवार्य हिस्सा बन चुका है,जिससे वह चाहकर भी मुक्त नहीं हो सकती |यह संस्कार,उसके जिंस में है और सृष्टि के प्रारम्भ से है|सभ्यता के शीर्ष पर पहुँचकर आज स्त्री आत्म-निर्भर,स्वतंत्र और प्रगतिशील जरूर हुई है,पर वह संस्कार उसके रक्त में आज भी प्रवाहित हो रहा है |यही कारण है कि स्त्री के अंदर-बाहर की स्त्री में लगातार संघर्ष की स्थिति बनी रहती है |इस कारण से कभी-कभी वह निर्णय लेने में कठिनाई महसूस करती है |पुरूष अगर अनुकूल हो और परिस्थिति सामान्य,तो सब ठीक रहता है,पर अगर पुरूष प्रतिकूल और स्थितियां असहनीय हुई,तो वह निर्णय नहीं कर पाती कि एक मनुष्य होने के नाते व अपने स्त्रीत्व के सम्मान के लिए ऐसे पुरूष को छोड़ दे या अपने संस्कार के कारण अलग होकर भी उसके नाम की माला जपती रहे | स्त्री की जागृत चेतना जहाँ पुरूष के समान हक चाहती है,वहीं परम्परा  उसे पति को अपने से उच्च समझने का संस्कार देती है |ऐसी स्थिति में उसके व्यक्तित्व का दो हिस्सों में विखंडन हो जाता है |वह समझ नहीं पाती कि सही क्या है?यह असमंजस आज की स्त्री के साथ ही नहीं है |सदियों से स्त्री का आदर्श रही सीता भी वनवास के समय दो तरह की बात करती है |अपने परित्याग से तिलमिलाकर वह राम के नाम जो संदेश भेजती है,उसमें वह पहले राम की भर्त्सना करती है,पर अंत में कहती है –‘मुझे हर जन्म में राम जैसे ही पति मिलें |’ हमारा पौराणिक इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है |
आधुनिक शिक्षित स्त्री की बात करें,तो मुझे एक स्त्री याद आती है-रखमा बाई |१८८७ में रखमा बाई ने ना केवल भारतीय समाज को,बल्कि अंग्रेजी सत्ता को भी झकझोर दिया था |एक ऐसे समय में,जब स्त्रियों का मुँह खोलना अपराध था,वे दमित तथा तमाम रूढियों के मकड़-जाल में कैद थीं,रखमा ने एक ऐसे मुद्दे की लड़ाई लड़ी,जो १०० साल बीतने के बाद भी अधर में लटकी हुई है,कानून और समाज उसे आज भी स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं | यह लड़ाई है –“स्त्री का अपनी देह पर पूर्ण अधिकार|” अर्थात स्त्री किससे सहवास करेगी,यह वह स्वयं तय करेगी,कोई बाहरी सत्ता नहीं |रखमा बाई का कहना था कि वे अपने विवाह के समय बालिग़ नहीं थीं और न ही इसमें उनकी सहमति ली गयी थी,इसलिए ऐसे विवाह को वे विवाह नहीं मानती | पति के साथ सहवास करने से भी उन्होंने इंकार कर दिया था |यह एक अजीब-सी बात थी,क्योंकि तब बाल-विवाह व अनमेल-विवाह मान्य था और इस आधार पर कोई स्त्री अपने पति से अलग नहीं हो सकती थी कि विवाह में उसकी मर्जी नहीं थी |रखमा बाई पर भी माँ,नाना,परिवार-समाज सबका दबाव पड़ा कि वे पति के पास वापस चली जाएँ,पर वे हार नहीं मानी|यहाँ तक कि जेल जाने तथा अपनी संपत्ति तक दांव पर लगाने को तैयार हो गईं |उनके अनुसार यह एक नैतिक प्रतिरोध था और इसका संबंध लड़की होने के नाते गुलाम बना दी गईं असंख्य स्त्रियों से था |यह वह समय था,जब ब्रिट्रेन में नारी-मुक्ति का मसला उभार पर था |रखमा जानती थीं कि उनके जीत की संभावना नहीं है,फिर भी वे अन्याय के खिलाफ हार मानने को तैयार नहीं थीं |वे जिस चीज को गलत समझ रही थीं,उसे मानने के पक्ष में नहीं थीं|उनका संघर्ष अंतत: रंग लाया और उन्हें सिर्फ भारत ही नहीं,ब्रिटेन के जागरूक लोगों तथा पत्रों का साथ मिला और वे विजयी हुईं |विजय के बाद जब वे डॉक्टरी पढ़ने ब्रिटेन जाने लगीं,उसी समय पति ने दूसरा विवाह कर लिया |
रखमा ब्रिटेन से लौट कर सूरत के एक अस्पताल में काम करने लगीं |यहाँ तक रखमा के जागृत व्यक्तित्व का एक अनुकरणीय पक्ष था,जिसकी कोई मिसाल नहीं |नारी-मुक्ति के इतिहास में वे अमर हैं,पर वही तेजस्विनी,अपराजिता रखमा पति की मृत्यु का समाचार पाकर विधवा का रूप धर लेती हैं और उसी रूप में अपना पूरा जीवन गुजार देती हैं|उनके क्रांतिकारी विचार संस्कार का हिस्सा क्यों बन गए,यह अध्ययन का विषय है |मेरे हिसाब से उनके संस्कारों की स्त्री उनकी जागृत स्त्री पर हावी हो गयी होगी |

Thursday 7 June 2012


महिला-लेखकों की उम्र कम क्यों ?
कुछ वर्ष पूर्व अमेरिका के कैलीफ़ोर्निया स्टेट विश्वविद्यालय के लर्निंग रिसर्च इंस्टीट्यूट के विज्ञानी जेम्स कॉफ़मैन ने ‘जर्नल ऑफ डेथ स्टडीज में अपनी एक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी कि ‘कवियों की उम्र कम होती है|’ इस रिपोर्ट में उन्होंने अमेरिका,चीन,तुर्की और पूर्वी यूरोप के १९८७ कवियों-लेखकों के जीवन का अध्ययन किया था| इस क्रम में रचनाकारों का जो वर्गीकरण उन्होंने किया,उनमें कहानी-लेखक,कवि,नाटक,रचनाकार और गैर-कथा-लेखक शामिल थे,पर उन्होंने अन्य रचनाकारों की अपेक्षा कवियों [विशेषकर महिला कवियों की]| पर ज्यादा खतरा बताया था |उनके अनुसार अन्य विधाओं के रचनाकार कवियों से कुछ ज्यादा जीते हैं |कारण- एक उपन्यासकार अपने पूरे जीवन में जितना काम करता है,उससे दोगुना काम कवि २० से ३० वर्ष की उम्र में ही कर डालते हैं |इसी कारण कवि कई मानसिक रोगों से ग्रस्त होकर या तो ज्यादा समय अस्पताल में बिस्तर पर गुजारते हैं या फिर आत्म-हत्या कर लेते हैं |अन्य विधाओं के मुकाबले ऐसे कवियों की,विशेषकर महिला-कवियों की संख्या बहुत ज्यादा है,जिन्होंने आत्म-हत्या की कोशिश जरूर की होती है |कॉफ़ मैन ने इस आत्म-हत्या की प्रवृति को ‘सिल्विया प्लाथ इफेक्ट’नाम दिया था |दरअसल सिल्विया प्लाथ एक मशहूर कवयित्री और उपन्यासकार थी,जिसने १९६३ में महज ३० वर्ष की उम्र में आत्म-हत्या कर ली थी |कॉफ़ मैन के इस रिपोर्ट के मद्देनजर मैं भारतीय महिला-रचनाकारों[सिर्फ महिला-कवि नहीं] पर विचार करना चाहती हूँ |
मेरे हिसाब से कॉफ़ मैन की यह रिपोर्ट उनके दिमाग की पारम्परिक पुरूष-ग्रंथि की उपज है | प्राचीन काल से मान्यता रही है कि स्त्रियों के पास दिमाग कम होता है या होता ही नहीं |ऐसे ही तो नहीं उन्हें पठन-पाठन से अलग रखा गया था |उनके लिए ‘तंदुल-मात्र’ प्रज्ञा ही मान्य एवं स्वीकृत रही |यानी भात पकाते समय एक चावल को टटोल कर भात के पकने की जानकारी देनेवाली बुद्धि |पर आज तो वैज्ञानिकों ने सिद्ध कर दिया है कि आकार में पुरूष से नाम-मात्र का छोटा होने के बावजूद बुद्धिमत्ता व गुणवत्ता में स्त्री का मस्तिष्क जरा-सा भी कम नहीं होता,तो फिर कैसे मान लें कि महिला-लेखक पुरूष-लेखक की तरह दिमाग का इस्तेमाल नहीं कर सकती |मेरे हिसाब से महिला-लेखकों की असामयिक मृत्यु के दूसरे कारण ज्यादा महत्वपूर्ण हो सकते हैं |महिला-लेखकों को एक साथ कई मोर्चों पर लड़ना पड़ता है और यह सब व्यवस्थागत यानी  पुरूष-वर्चस्व के कारण है |पहले तो घर-परिवार,मित्र-रिश्तेदार,समाज-संस्कार,परम्परा-रिवाज को उनसे ढेरों अपेक्षाएं होती हैं,जिसे पूरा करने ही उनका सारा समय निकल जाता है,सारी ऊर्जा चुक जाती है|यदि फिर भी आंतरिक ऊर्जा समेटकर वे कुछ लिखती हैं,तो उसे चोरी,नकल या फिर किसी लेखक की अनुकम्पा का प्रतिफलन मान लेने का चलन है |यदि इस अग्नि-परीक्षा से भी वे गुजर गईं,तो पुरूष आलोचक उनके लेखन पर ‘दोयम दर्जे की,सीमित दायरे वाली व्यक्तिगत रचना’ का ठप्पा लगाते देर नही करते | वे पत्र-पत्रिकाओं में नहीं छपतीं,तो दो कौड़ी की रचना  लिखने वाली कही जाती हैं और छपती हैं,तो ‘उसे संपादकों की कृपा’ या ‘स्त्री होने का लाभ’ कहा जाता है |सफल महिला-लेखक को चंचला से चरित्र-हीन तक की संज्ञा कब और कहाँ दे दी जाए,इसकी गारंटी नहीं ?
कृष्णा अग्निहोत्री की आत्म-कथा “और..और ...औरत”में महिला-लेखन की दुश्वारियों का अच्छा चित्रण है |साहित्य में व्याप्त राजनीति,षड्यंत्र,नैतिक पतन,दोहरे चरित्र का उन्होंने पर्दाफाश किया है |आत्म-कथा को पढते समय जाने कितने चेहरे सामने दिखने लगते हैं,अनगिनत लेखिकाओं का अनुभव सामने बोलने लगता है |यह किसी विशेष क्षेत्र या खास लेखिका के साथ नहीं,बल्कि कमोवेश हर जगह व हर लेखिका के साथ है |कृष्णा लिखती हैं –“खंडवा में कई साहित्यिक संस्थाएं एवं साहित्यिक लोग हैं,परन्तु आपस में दो-दो व्यक्तियों की दलबन्दी है |सब एक-दूसरे की कटाई करते हैं,मानवीय गुणों से शून्य हैं |आप मर भी रहे हों,तो वे आपके लिए डॉक्टर नहीं लायेंगे,लेकिन यदि इन्हें अपनी किसी गोष्ठी की शोभा बढ़ानी हो,तो आपको सादर आमंत्रित करेंगे,मानवीय मूल्यों की परख यहाँ लगभग शून्य है|”कृष्णा अग्निहोत्री की यह पीड़ा तब-तक मेरी भी पीड़ा बनी रही,जब तक मैंने ऐसे साहित्यिक संस्थाओं एवं लोगों की परवाह की थी|खंडवा की ही तरह गोरखपुर के साहित्यिक माहौल में ऐसी स्त्री-विरोधी मानसिकता को आज भी देखा जा सकता है|
कृष्णा अग्निहोत्री ने बड़े साहस से ऐसे साहित्यिक लोगों को बेनकाब किया है,पर मैं सिर्फ उस मानसिकता को बेनकाब करूंगी,जिसके कारण साहित्यिक माहौल प्रदूषित है |कृष्णा लिखती हैं ”नए साहित्यिक लोग अधिकांशत: संकीर्ण हैं,कुछ अच्छा व्यवहार भी देते हैं|....[?]खेमों से मुझे काटा जाता है |.वे[?]...सिर्फ माखनलाल चतर्वेदी के नाम का वट-वृक्ष इतना चौड़ा कर देना चाहते हैं कि दूसरा ऊंचा पेड़ खंडवा में सर ना निकाले|उनका नाम भी उनके साथ होता है |......ने अपने कुछ चापलूसों को आगे लाने की कोशिश की है,पुस्तक प्रकाशन एवं पुरस्कार दिलवाकर गुट पक्का कर लिया है |अफसरों व राजनीतिज्ञों की चाटुकारिता से उनका स्वार्थ सिद्ध होता है,इसीलिए वे उनके सम्मेलनों व गोष्ठियों के अध्यक्ष व मुख्य अतिथि के रूप में सम्मानित होते हैं |”पूरा का पूरा कथन आज के साहित्यिक-परिवेश को नंगा कर रहा है|हाँ,ये स्त्री-पुरूष सभी लेखकों के साथ संभव है |पर कृष्ण कहती हैं ‘पुरूष लेखक राजधानी जाकर अपना नम्बर प्रत्येक समिति में लगा सकते हैं,लेकिन मेरा नाम भी आ जाए,तो ये महाशय कटवाते रहते हैं |” यह पीड़ा स्त्री की है क्योंकि वह पुरूष की तरह ना तो जुगाड़ लगा पाती है,ना ही उस तरह की चापलूसी व भाग-दौड़ ही कर सकती है |जो चिकने-चुपड़े कामयाब नए लेखक लेखिकाओं को “स्त्री होने के लाभ-वश छपने वाली”बताते हैं,उनमें कई खुद अपनी देह का अप्राकृतिक दुरूपयोग कर सफल हुए होते हैं |काश कोई इस विषय पर शोध करता,तो एक नया ‘विमर्श’ सामने आता |
कृष्णा के अनुसार उनकी किताब”निष्कृति”पर कुछ लोगों ने गोष्ठी आयोजित की,पर ”प्लान मुझे धो देने का था |जैसे कई महारथियों ने अकेले अभिमन्यू को मार दिया था,उसी तरह शहर के लगभग ८-९ साहित्यकारों ने एक पूर्व नियोजित योजनानुसार मुझ पर आक्रमण कर दिया कि ‘इतनी पुस्तकें क्यों लिख रही हैं |महिला हैं,इसलिए छप रही हैं |इन्हें तो साहित्य से निवृति ले लेनी चाहिए,इन्होंने अनुचित साहित्य लिखा है |’ इस घटना में कोई भी अतिशयोक्ति नहीं हो सकती,क्योंकि ऐसा ही कुछ मेरी पुस्तक”जब मैं स्त्री हूँ”के विमोचन के समय हुआ था |साहित्यिक महारथियों ने मुझे धो देने की पूरी साजिश रची थी | कृष्णा कहती हैं कि जलन व ईर्ष्या से कई साहित्यकार कुछ भी कहते तथा करते थे |कई हमेशा से आलोचक थे,पर एकदम  से नहीं नकारते थे,पर साहित्यिक ऊँचाई भी नहीं देना चाहते थे |यशवंत व्यास प्रशंसक थे,पर जब वे खंडवा आए और कुछ सस्ते साहित्यकारों के अतिथि बने,तो कुछ बदल गए | पहले वे मन के साफ़ चश्में से मुझे देख रहे थे|अचानक वे काले चश्मे से ही मुझे देखने लगे |सहज ना रह गए |कह भी दिया –“आपके पास तो दिल्ली वाले संपादकों की लम्बी पंक्ति है,आप मुझे क्यों पूछेंगी ?”यह है सबसे घातक वार !जो अकेले संघर्षरत लेखिकाओं का नसीब बन जाता है |पर जो स्त्री परिवार को सँभालते हुए भी लेखन कर रही हैं,उनकी भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है |अभी हाल में चन्द्रकिरण श्रीवास्तव की आत्मकथा “पिंजरे की मैना” पढ़कर मैं हिल गयी | वे पारिवारिक दायित्वों को पूरा करने के बाद लिखा-पढ़ा करती थीं |जब वे ६५ वर्ष की हुईं,तब जाकर विष्णु प्रभाकर के सौजन्य से उनका एक कहानी-संग्रह छप पाया | यह बात उनके पति को हजम नहीं हुई |उन्होंने अपने जानने वालों से कहा कि ‘अपने पुराने सम्बन्धों के कारण विष्णु जी ने मेरी पत्नी की पुस्तक छपवाई |इसका नतीजा यह हुआ कि प्रकाशक ने उनके दूसरे कहानी-संग्रह की पांडुलिपि लौटा दी |पति क गुस्सा इतना था कि ‘अब विष्णु प्रभाकर ही नहीं,घर के हर वर्ग का पुरूष उन्हें अपनी पत्नी का प्रेमी लगने लगा-चाहें वह कोई संभ्रांत परिचित हो या अखबार देने वाला |’कल्पना की जा सकती है कि उम्र के इस पड़ाव पर पति के इस बर्ताव से चन्द्र किरण जी कितनी आहत हुई होंगी ?यह वे पति थे,जिनकी सबसे बड़ी खूबी इश्क लड़ाना रहा था |जब वे डिप्टी कलक्टर हो गए थे,तब जहाँ भी उनकी पोस्टिंग होती थी,वे किसी ना किसी महिला से इश्क लड़ा बैठते थे और अपनी माशूका को घर भी ले आते थे |ऐसे ही एक कांड में उनकी नौकरी जाती रही थी,पर चन्द्र किरण ने उनका साथ नहीं छोड़ा था |अब बुढ़ापे में वे पत्नी के चरित्र को उछाल रहे थे |चन्द्र किरण इसे भी सह गयी |जवाब भी दिया तो इस तरह-“बस मैंने लिखना बंद कर दिया |किसी साहित्यिक समारोह में जाना बंद कर दिया और कॉलोनी के भी कीर्तन,विवाह,जन्मदिन,मुंडन आदि में जाना छोड़ दिया |’यह आत्म-त्याग क्या सिर्फ महिला-रचनाकार होने के नाते नहीं था ?कृष्ण का अफसर पति भी ऐसा ही अय्याश था |उसके जीवन में निरंतर दूसरी आती रहीं और कृष्णा को सब-कुछ सहना पड़ा |कभी-कभी तो खुद   उसपर भी लड़की को भेजने के लिए दबाव डालता था |ख़ैर कृष्णा ने युवावस्था में ही पति का घर छोड़कर नयी राह बना ली,पर क्या उसका परित्यक्ता होना उसके जीवन व साहित्य का अवरोधक नहीं बना ?हर जगह,हर क्षेत्र में उसे “सहज-सुलभ”स्त्री नहीं माना गया ?लेखिकाओं के प्रति लेखकों का दृष्टिकोण भी अक्सर सामंती होता है,भले ही वे नए हों,आर्थिक परेशानियों से जूझ रहें हों |अधिकांशत: वर्तमान समय में आगे बढ़ने के सारे हथकंडे जानते हैं कि कब किस पार्टी से जुडना है या किस पत्रिका से जुडना है या किस व्यक्ति की प्रशंसा करनी है ?दल बदलते भी उन्हें देर नहीं लगती |कृष्णा के साहित्यिक व्यक्तित्व को दबाने में कई नामवर लेखक भी शामिल रहे |कुछ लेखकों ने उनको महत्व भी दिया,तो अपने निजी स्वार्थ-वश और स्वार्थ पूरा ना होते देख दूर हो गए |सारिका के संपादक राजेन्द्र अवस्थी से लेखिका का परिचय खंडवा से दिल्ली जाते समय स्टेशन पर हुआ था |अवस्थी जी ने उन्हें स्टेशन बुलवाया,फिर उसके घर गए |’अवस्थी जी ने शाम किसी सुनसान रास्ते पर टहलने की बात की |स्पष्ट संकेत कि वे उससे कुछ बात करना चाहते हैं |दुर्भाग्य-कथा सुनकर कृष्णा ने चाहा कि वे कहीं अच्छी नौकरी में सेटल करवाने में सहयोग करें,पर ”मैं अनुभव कर रही थी कि वे कुछ क्षणों को भी अकेले नहीं रहना चाहते थे और यह बात भी नहीं समझना चाहते थे कि भारतीय ब्राह्मण परिवार में लड़कियों को इतनी छूट नहीं होती कि वे अजनबियों से रात देर तक बात करती रहें |”बहन के इलाज के लिए कृष्णा बम्बई जाती है,जहाँ वे अपनी पत्नी व ५ बच्चों के साथ रहते थे |उनकी पत्नी उनके रसिक स्वभाव के कारण उनसे असंतुष्ट रहती थी |अवस्थी जी कहते –स्त्रियाँ खुद उनके पीछे रहती हैं| यदि उन्हें पसंद की स्त्री मिली,तो उसकी ही होकर रहेंगे|प्रकारांतर से वे कृष्णा को अपने प्रति आकृष्ट करना चाह रहे थे |वे उसके रूप,भोजन,हँसी की प्रशंसा करते तथा कई प्रकार की मदद[आर्थिक नहीं] करते |”अंतिम दिन तक सड़क पार करते समय मेरा हाथ पकडकर तेजी से भागते |आत्म-निर्भर बनाते,ट्रेन या बस की थकावट से थका मेरा सिर अपने कंधे पर टिका लेते |“उन दिनों कृष्ण अकेलेपन की गिरफ्त में फड़फड़ाती,अतृप्त आत्मा थी |उसकी भावनाओं पर कोमा लग चुका था,फिर भी अवस्थी के रूप में उसे सिर्फ एक दोस्त की जरूरत थी |वह पत्नी की पीड़ा से परिचित थी,इसलिए अवस्थी जी की पत्नी का हक नहीं छीनना चाहती थी,जबकि वे अपनी पत्नी की निंदा कर उसके प्रति अपनी चाहत व्यक्त करते रहते थे |कृष्णा सोचती कि पत्नी शारीरिक रूप से सुंदर,गृहकार्य दक्ष व उनके पाँच बच्चों की माँ है,फिर भी वे उसे शक्की-झगडालू,बार-बार मायके चली जाने वाली बता रहे हैं,ताकि कृष्णा को पा सकें,पर वह ऐसा नहीं चाहती थी |सतर्कता के बावजूद अवस्थी जी के परिवार में उसकी वजह से हलचल मच गयी |अवस्थी जी ने उससे कहा –‘तुम अपने पति से तलाक ले लो,तभी हम मिल-जुल सकते हैं |कोई तूफ़ान ना खड़ा होगा |’पर वे खुद तलाक के लिए राजी ना थे |कृष्णा उनके दबाव पर क्रोधित होकर एक दिन बोल पड़ी –‘मैं रखैल बनकर नहीं जी सकती और आवेश के क्षणों में सुख के लिए कोई मेरी भावना से कोई भी खिलवाड़ करे,तो मुझे अच्छा नहीं लगेगा |”तब वे झल्ला पड़े-‘तुम शिकायत बहुत करती हो|समझना नहीं चाहती कुछ|;अवस्थी जी कृष्णा को अनुकूल ना पा कर बदल गए और उसकी मदद करना बंद कर दिया |अब जब भी वह नौकरी दिलाने की बात करती,वे तलाक की बात करते|इस तरह उसे मजबूर करना चाहा |कृष्णा  कहती है –उन्होंने मेरी दैनिक समस्याओं,संघर्षों व तपन से दूरी ही बनाए रखा |
फिर भी कृष्णा अग्निहोत्री एक बड़ी लेखिका बनी,पर वे कहीं से टूटी भी |वे कहती हैं –‘मनुष्यता के प्रति सजग रहने वाली मुझे अंदर तक इस समाज व शहर ने कुचला है...पर इस रोज की टकराहट से मैं आंतरिक शक्ति एकत्रित के मैं लगातार लिख रही हूँ |अपनी जीवन-यात्रा को सफल बनाने वाली अस्मिता की लड़ाई में जूझती,पसीना बहाती इस स्त्री को उसकी साहित्यिक प्रगतिधरा में बहते देख मनुष्यों के लिए ऐसा था जो अकेले रहकर तड़प-तड़पकर रक्त लिखने वाली महिला की हस्ती को छूकर कहना-मानना चाहते है कि देखा हमने कैसा पचाया,बुद्धु बनाया,नाटक रचा,हाथ मिलाया और भाग आए |’
महिला लेखकों के कम उम्र का रहस्य लेखन में ज्यादा दिमाग खपाना नहीं है,बल्कि यह व्यवस्था है,जिसके बारे में कृष्णा अग्निहोत्री कहती हैं –“इस सौदाई दुनिया में जीकर मैंने उपेक्षाएँ ही सहीं,अपनों से आघात झेले और अब बार-बार की पुनरावृति मुझे तोड़ने लगी है |”
यह टूटन ही कभी-कभी आत्मघाती कदम उठाने को उकसाती है | महिला रचनाकारों के कम-उम्र का रहस्य इस दृष्टि से भी ढूँढना चाहिए |

Friday 18 May 2012


“स्लट” होने की जरूरत क्यों ?
लीजिए भई पूनम पांडे ने फिर एक सनसनीखेज खुलासा किया है कि वे अपने फैन्स के लिए जल्द ही पूरे कपड़े उतार देगी |यह वही पूनम हैं,जो दावा करती हैं कि सोशल नेटवर्किंग साइट्स जैसे “फेसबुक”और “ट्यूटर”पर उनके १५ लाख से ज्यादा प्रशंसक हैं |निश्चित रूप से पूनम ना तो कोई फिल्म स्टार हैं, ना ही प्रतिभा के किसी क्षेत्र में विशेष नाम |हाँ,उनके पास एक युवा शरीर है,जिसके नंगे प्रदर्शन से उन्हें कोई गुरेज नहीं |उनका यह मानना है कि “उनके बोल्ड जिस्म ने भारतीय लड़कियों में गजब का आत्मविश्वास पैदा किया है |”यह बड़बोलापन या देह के प्रति अति-आत्मविश्वास “देह की आजादी”के इस युग में अविश्वसनीय नहीं है,पर खतरनाक जरूर है |जिस देश की स्त्रियाँ अभी तक अपने हक की लड़ाई में सम्मलित नहीं हो सकी हैं ,जो गरीबी,भूखमरी,कुपोषण और असमय के गर्भाधान में अपने प्राकृतिक सौंदर्य और देह को गला रही हैं,वे पूनम जैसी देह-यष्टि पाने के लिए पैसों का अपव्यय करें और फिर उस देह का प्रदर्शन करें,ताकि उन्हें मॉडलिंग या फिर फिल्मों में काम मिल सके,क्योंकि यही वह छोटा रास्ता है,जिसपर चलकर कम उम्र में दौलत और शोहरत कमाई जा सकती है|पर कितनों को यह क्षेत्र भी रास आता है ?बिना प्रतिभा के किसी भी क्षेत्र में स्थाई पहचान नहीं बन सकती | पूनम जैसी स्त्रियाँ भारतीय लड़कियों में आत्मविश्वास नहीं,आत्मघात की प्रवृति ही भर सकती हैं |उनके नसीहतों पर चलकर क्या कोई लड़की धूप-धूल खाएगी या समाज सेवा का रास्ता अपनाएगी ?क्या कोई मदर टेरेसा,इंदिरा गांधी ,सरोजिनी नायडू ,महादेवी वर्मा बन पाएगी ?नहीं !हाँ,उच्च-मध्यवर्ग की कान्वेंट में पढ़ी कुछ लड़कियाँ,जिनके जीवन का लक्ष्य पैसा और शोहरत है,इस रास्ते भले ही अपना करियर बना लें|पर ये लड़कियाँ स्त्रियों का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकतीं |
यह सच है कि देह-प्रदर्शन के शार्ट-कट से कई स्त्रियों ने जल्द ही सफलता पाई है,पर यह स्थाई रास्ता नहीं है |वैसे अनावृत स्त्री-देह आज कोई हौवा नहीं रह गया है |मात्र अंत:वस्त्रों वाली अनावृत स्त्री-देह सौंदर्य के प्रदर्शन और प्रदर्शन के व्यवसाय में दिखती है,जिसका यह समाज अभ्यस्त होता जा रहा है,पर आम स्त्री को इस रूप में देखना समाज को पसंद नहीं |
एक बात और कभी-कभी स्त्री का नग्न प्रदर्शन समूचे समाज की नंगई को उघाड़ता है|उस समय यह स्त्री के प्रतिरोध का हथियार बन जाता है|अभी कुछ समय पूर्व दिल्ली में स्लट-वाक का आयोजन हुआ,जो एक प्रतिरोध था |इस आयोजन के प्रचार से यह लग रहा था कि स्त्रियाँ उलटे-सीधे,अधनंगे वस्त्र पहन कर मार्च करेंगी| मुझे खुशी है कि इस स्लट वाक’‘का आयोजन शालीन कपड़ों में संपन्न हुआ|
स्लट वाक स्त्री प्रतिरोध का अंतिम शस्त्र हो सकता है,पर उसे प्रथम शस्त्र के रूप में अपनाया जाना स्त्री को सदियों पुरानी असहाय स्त्री के कठघरे में खड़ा कर रहा था |प्रश्न था कि क्या आज की सक्षम स्त्री भी इतनी विवश है कि उसे बेशर्मी मोर्चानाम से अपनी की देह का तमाशा करना पड़े?क्या इस प्रदर्शन से स्त्री के प्रति दृष्टि बदल जाती ?बलात्कार बंद हो जाते ?या उस पर ड्रेस-कोड का लबादा नहीं लादा जाता ?वह पुरूषों की तरह स्वतंत्र-सक्षम व शक्तिशाली हो जाती ?मुझे लगता था,ऐसा कुछ भी नहीं हो पाता?वह और भी हंसी की पात्र बन जाती|हाँ,आयोजकों को क्षणिक प्रचार और रसिक जनों को मुफ्त का मनोरंजन अवश्य मिलता |यह अच्छी बात थी कि युवा-वर्ग समाज में स्त्रियों पर होने वाले अत्याचारों से नाराज था और उसके खिलाफ आवाज उठाना चाहता था,इसमें शामिल युवतियां भी स्त्री-समाज पर हो रहे अन्याय के खिलाफ थीं |यह नाराजगी,यह विरोध स्वागत-योग्य था,क्योंकि विरोध हर जीवित चेतना की निशानदेही है|विसंगतियों के खिलाफ उठ खड़ा होना हमारा दायित्व है,पर अति उत्साह में कुछ ऐसा कर जाना भी उचित नहीं था कि स्थिति और भी बिगड़ जाए|इस आंदोलन की शुरूवात कनाडा में एक पुलिस-अधिकारी के इस बयान के वजह से हुई थी कि _”लड़कियों को बलात्कार से बचाने के लिए स्लटजैसे कपड़े नहीं पहनने चाहिए|”जिस लड़की को यह कहा गया था,उसने विरोध में स्लट-वाकका आयोजन किया और फिर इसकी आग दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी फैल गयी थी |आखिर में उसने भारत में भी कदम रखा |भारत में उन दिनों बलात्करों की बाढ़ आई हुई थी |राजधानी दिल्ली भी इससे अछूती नहीं थी,ऐसे में इस आंदोलन को और भी बढावा मिल रहा था,पर दिक्कत यही थी कि इस आंदोलन से जुड़ने वाली स्त्रियाँ  भी एक खास वर्ग की स्त्रियाँ थीं,जो पूरी स्त्री-जाति का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं,न ही उन पर अत्याचार हो रहे थे |ऐसे में इस आंदोलन का ऐसे हाई-फाई व उच्च वर्ग की युवतियों का आंदोलन मात्र बन जाने का खतरा था,जिनके कपड़े पहले से ही छोटे और अत्याधुनिक थे |लोगों का विचार था कि यह वाक’ “कैटवाकजैसा होकर रह जायेगा और जिन मानसिक रोगियों के लिए यह आयोजन था ,उन पर कोई फर्क नहीं पड़ता,पर ऐसा नहीं हुआ |हर वर्ग की स्त्रियों ने अपने शालीन प्रदर्शन से यह सिद्ध कर दिया कि देह-प्रदर्शन उनका शौक नहीं,अन्याय के खिलाफ प्रदर्शन ही उनका उद्देश्य है |
 स्त्री का निर्वस्त्र-प्रतिरोध आज की बात नहीं है|पहले भी ऐसा होता रहा है|हाँ,पहले ऐसा करने वाली स्त्री को अच्छा नहीं माना जाता था |”काम-सूत्र” में एक ऐसी वेश्या का जिक्र है,जो राज-दरबार में नंगी आ जाती है |राजा द्वारा पूछे जाने पर वह कहती है-“इस दरबार का कोई पुरूष मुझे संतुष्ट नहीं कर सकता,इसलिए सभी मेरे लिए बालक के समान हैं और बालक से कैसी शर्म?”वेश्या का यह दुस्साहस ‘काम-सूत्र” का कारक बनता है |
७ जुलाई,२००७ में राजकोट की पूजा चौहान भी अंत:वस्त्रों में सड़क पर निकल आई थी,अपनी बात सुनवाने के लिए और अपनी पीड़ा को सामाजिक स्वीकृति का आवरण पहनाने के लिए|पूजा चौहान दहेज के लिए ससुराली-जनों से लगातार प्रताड़ित हो रही थी |जब उसने एक बेटी को जन्म दिया,तो उसकी यातना और बढ़ गयी |जब पानी सर के ऊपर से गुजर गया,तो उसे संस्कारिक सोच में व्याप्त बेशर्मी के विरूद्ध अपनी नारी-सुलभ लज्जा को तिलांजलि देनी पड़ी| पूजा चौहान ने बार-बार उजागर होती एक सामाजिक विकृति को मात्र एक नई आक्रोश शैली में फिर से उजागर किया|जिस सामाजिक विकृति और वस्तु को उजागर किया,नयापन उसमें नहीं है,जिस ढंग से उजागर किया,उसमें था|प्रकारांतर से एक औरत की गहरी विवशता और लाचारी अंत:वस्त्रों में सड़क पर उतरी थी,पूजा नहीं |पूजा स्लट नहीं थी,पर दिखने पर मजबूर हुई थी |
मेरे पहले कहानी-संग्रह की पहली ही कहानी अथ मेलाघुमनी कथाकी मेलाघुमनी स्लट’’ कही जाती थी|वस्त्र,चाल-ढाल,जुबान,क्रियाकलाप और चरित्र सबसे|उसे शालीन,सलज्ज स्त्री से स्लट बनाने वाला उसका ही पति और पुरुष समाज था,पर हर बात में स्त्री को ही दोषी ठहराने की भारतीय परम्परा के अनुसार बुरी व दोषी सिर्फ उसे ही माना जाता था,तो उसने भी स्लटजैसा ही जीवन अपना लिया,पर अब वह जो करती थी,उसमें उसकी मर्जी थी|क्यों उसकी देह के मालिक दूसरे हों ? क्यों उसकी वेशभूषा,रहन-सहन और आचरण उनके हिसाब से हो,जो स्लट भी बनाते हैं और गालियां भी देते हैं|मेलाघुमनी काल्पनिक पात्र नहीं थी|कस्बे में मेरे घर के पास ही रहती थी|आज से ३० वर्ष पूर्व [मेरे बचपन में] ही उसने वह हंगामा बरपाया था,जो कनाडा से कई देशों को चपेट में लेता हुआ दिल्ली तक आ पहुंचा था|जो इसे विदेश से आया समझ रहे थे ,क्या वे यह बता सकते हैं कि मेलाघुमनी किस देश की थी ?’स्लट वाक में लड़कियाँ कम व भदेस कपड़ों में मार्च करती हैं,पर मेलाघुमनी तो भीड़ में भी अपनी साड़ी सिर तक उठा लेती थी|ऐसा उसने मर्दों की मारपीट से बचने के लिए शुरू किया,जो बाद में उसका शस्त्र बन गया|
प्रश्न यह है कि आखिर क्यों स्त्री के पहरावे,जीने के तरीके व आजादी पर इतनी बंदिशें हैं?क्यों उनके साथ बलात्कार हो रहे हैं ?क्यों उनकी वेशभूषा को बलात्कार का कारण माना जा रहा है? देश में प्रतिदिन जाने कितने बलात्कार होते हैं,जिनमे ज्यादातर अबोध बच्चियां होती हैं,जिन्हें ड्रेस-सेन्स तक नहीं होता,तो क्या यहाँ भी पहरावा ही बलात्कार का कारक है ? दरअसल ये सब बहाने हैं|स्त्री विरोधी तत्व इस बहाने अपनी काली करतूतों को सही व शिकार स्त्री को ही दोषी करार देना चाहते हैं,पर अब यह सब नहीं चलेगा|स्त्रियाँ अब समझदार व संगठित हो रही हैं|वे मेलाघुमनी या पूजा की तरह मजबूर नहीं कि अपनी ही देह का तमाशा बनाने के लिए मजबूर हों |ना ही पूनम पांडे उनकी आदर्श है कि अपनी ही देह की परिधि में घूमती रहें और उसका लाभ भुनाएँ | 

Wednesday 2 May 2012


स्त्री के खल-रूप का प्रचार
२५ अप्रैल २०१२ को थाना रामपुर कारखाना अंतर्गत ग्राम गौतमचक मठिया में ३५ वर्षीया एक महिला ने अपनी दो साल की बेटी को चाकू मारकर घायल कर दिया |महिला की तीन लड़कियाँ हैं,लड़का एक भी नहीं |कुछ समय पूर्व तिर्वा[कन्नौज]कोतवाली क्षेत्र के हरिहरपुर गाँव में देर रात एक माँ ने अपने दो मासूम बच्चों को हंसिए से काट डाला था |अखबार के अनुसार तो उसने उनके खून को भी गटक लिया था| अमेरिका में भी एक शिक्षित-समझदार,बच्चों से बेहद प्यार करने वाली ३६ वर्षीया माँ एंड्रिया येट्स ने अपने ५ बच्चों को बात टब में डूबा कर मार डाला था |९ नवम्बर २०११ को लन्दन की एक माँ ने अपनी नवजात बच्ची को वाशिंग मशीन में डालकर मार डाला |चंडीगढ़ की डिम्पल गोयल ने १५ साल तक अपने दो बच्चों को इतनी कड़ी कैद में रखा था कि पड़ोसियों तक को कभी उनके वहाँ होने का शक नहीं हुआ था |दिल्ली की एक माँ भी अपने तीन युवा होते बेटों के साथ अपने घर में ८ साल कैद रही | इधर पूर्वांचल में लगातार ऐसी खबरें छप रही हैं,जब औरतें बच्चों को मारकर खुद मर जा रही हैं |कोई जहर खाकर,कोई नदी-नालेमें कूदकर,तो ज्यादातर ट्रेन के नीचे लेटकर |कभी-कभी बच्चों को फेंकने या बेचने वाली,उनसे भीख मंगवाने वाली तथा दूसरे कई और अपराध करवाने वाली माताओं का भी पता चल रहा है | एक अध्ययन के अनुसार अमेरिकी समाज में प्रतिवर्ष तकरीबन २०० बच्चे अपनी माँ के हाथों मारे जाते हैं,तो कमोवेश भारत में भी मारे जाते होंगे | 
सिर्फ सन्तान नहीं स्त्री द्वारा पति या प्रेमी की भी हत्या की जा रही है| ४ जनवरी को पूर्णिया में भाजपा विधायक राजकिशोर केसरी की निर्मम हत्या उन्हीं के आवास पर रूपम पाठक ने कर दिया था |संतकबीरनगर के ग्राम बरईपार में कुछ दिन पूर्व एक प्रेमिका ने अपने प्रेमी को मिट्टी का तेल उड़ेल कर जला दिया |६ जुलाई,२०११ को कप्तानगंज[कुशीनगर] में संजू नामक स्त्री ने अपने पति की गला दबाकर हत्या कर दी |लन्दन में मई,२०१० को एक प्रेमिका ने प्रेमी की जीभ चुम्बन के बहाने काटकर अलग कर दिया |प्रेमी के साथ मिलकर पति की हत्या की खबरें तो हर दूसरे-तीसरे दिन मिल जाती हैं |
इस तरह स्त्री के हिंसक रूप की कई तस्वीरें हमारे सामने आती हैं |स्त्री के हिंसक रूप का प्रचार-प्रसार मीडिया ऐसे करता है,जैसे बदला ले रहा हो |जबकि ऐसी खबरें इक्का-दुक्का ही होती हैं और उनके पीछे भी स्त्री पर कई मनोवैज्ञानिक दबाव होते हैं|सोचने की बात है कि जिस माँ ने नौ महीने बच्चे को गर्भ में रखा,उसे अपना रक्त पिलाया ,उसी का रक्त वह पी सकती है?जिस डायन की कल्पना हर देश में मौजूद है,वह भी अपने बच्चों को बख्श देती है,फिर कैसे कोई माँ अपने बच्चे को इस क्रूरता से मारेगी?माँ तो गुस्से में बच्चे को पीटने के बाद खुद रोने लगती है |बचपन में एक फिल्म देखी थी |नाम था –‘समाज को बदल डालो’|उस फिल्म में एक माँ पर आरोप है कि उसने अपने पांच[कम-ज्यादा हो सकते हैं]बच्चों को जहर खिलाकर मार डाला था| वह एक ऐसी औरत थी,जो अकेले समाज से लड़ते हार जाती है और भूख से तड़पते बच्चों को मुक्त करने के लिए भात में जहर सानकर खिला देती है |वह खुद भी खाती है,पर उसके प्राण नहीं निकलते और वह अपराधिनी मान ली जाती है | उस माँ की अंतर्वेदना की कल्पना करें |दूसरी तरफ वही समाज,जो उसकी इज्जत के बदले रोटी देने की बात कर रहा था |जो बच्चों के साथ भिखारियों से बदतर व्यवहार कर रहा था,उस माँ पर थूकने लगता है |समाज आज भी कहाँ बदला है?आज भी वह मजबूरी का सौदा करता है |ऐसे ही तो नहीं देह-व्यापार फल-फूल रहा है |
हंसिए से बच्चों को काट देने वाली सुमन की उम्र मात्र ३५ थी,पर बच्चे पांच थे |पति मजूर,वह भी हमेशा घर से बाहर| उसकी सबसे बड़ी बेटी बबली ११ वर्ष,अंजली १० वर्ष,अतुल ९,तन्नू ६ तथा सबसे छोटा अन्नू ५ वर्ष का था |सभी बच्चे पढ रहे थे |जाहिर है लड़ते-झगड़ते भी होंगे |उस दिन बच्चों के ना पढ़ने से बवाल हुआ |स्थिति बेकाबू हो जाने पर गुस्से से पागल हुई सुमन ने अन्नू-मन्नू को काट डाला |कह सकते हैं,उसे खुद पर काबू रखना चाहिए था |बच्चे तो शरारती होते ही हैं |समस्या सुमन के स्वास्थ्य की लगती है | बच्चों की परवरिश,शिक्षा की चिंता   के साथ अर्थाभाव मानसिक दबाव बना रहा होगा |बढ़ती  मंहगाई में मात्र मजूरी से सुमन कैसे घर और बच्चों को सम्भाल रही होगी?ऊपर से पति का कोई सहयोग नहीं |निश्चित रूप से वह चिड़चिड़ी हो गयी होगी और बच्चों के ना पढ़ने पर आपा खो बैठी होगी |लेकिन इस तरह ..?कह सकते हैं कि जब संभाला नहीं जा रहा था,तो क्या जरूरत थी,इतने बच्चों की ?इस विषय में इतना ही कहा जा सकता है कि अभी तक भारतीय स्त्रियों को कोख के बारे में निर्णय का अधिकार नहीं है,उपर से जननी की सेहत की इस देश में घोर उपेक्षा होती है|सुमन शायद ही अपनी सेहत पर ध्यान दे पाती होगी?उस पर हमेशा मानसिक दबाव रहता होगा |खाना-कपड़ा,किताब-कापी,स्कूल-फीस,हारी-बीमारी पचासों समस्याएं |सुमन संतुलन खो बैठी |नहीं खोना चाहिए था,पर खो बैठी |उसकी मानसिक पीड़ा की कल्पना करें कि जिन बच्चों की वह जननी थी,उन्हीं की हत्यारिन बन बैठी | चंडीगढ़ की डिम्पल अपने बच्चों की सुरक्षा को लेकर आतंकित थी |परित्यक्ता होने के नाते उसके मन में यह भय बैठ गया था कि कहीं पति बच्चों को छीन न ले जाए |इसी असुरक्षा-भय के कारण वह मनोविकृति का शिकार हो गयी थी |उसे गम्भीर “सीजोफ्रेनिया” था |एंड्रिया भी प्रसवोपरांत होने वाले “पोस्टपार्टम डिप्रेशन”का शिकार थी|यह बीमारी प्रसवोपरांत होने वाला एक विशेष प्रकार का अवसाद है,जिससे बिना इलाज निकलना मुश्किल होता है |बच्चों के प्रति अपराध करने वाली माएं किसी न किसी रूप से मनोविकृति की शिकार होती हैं |भारत में भी निश्चित रूप से ऐसी माएं मानसिक रोगी ही निकलेंगी,पर दुर्भाग्य की बात है कि हमारे देश में स्त्री में मानसिक सेहत के प्रति उदासीनता का वातावरण है |कोई उनके मानसिक-स्वास्थ्य  के विषय में विचार करने को तैयार नहीं है|बच्चों से बुरा व्यवहार,उन्हें कैद रखने,सामान्य जीवन ना जीने देने या उन्हें मारकर स्वयं मर जाने के पीछे सामाजिक वा मनोवैज्ञानिक कारण है ,जिसे समझे बिना उनके अपराध की तह तक नहीं पहुँचा जा सकता और ना ही उन्हें अपराध करने से रोका जा सकता है |
दूसरे स्त्री-अपराधों के विषय में भी यही सच है |मंजू ने भी पति की हत्या जानबूझकर नहीं की थी |शराब व जुए की अपनी लत पूरी करने के लिए पति ने अंतिम बचे पुश्तैनी मकान को सस्ते में बेचकर रूपए किसी पट्टीदार के खाते में जमा कर दिया था | ऊपर से शराब के नशे में धुत्त मछली लेकर घर आया |पत्नी ने मछली पकाने से इंकार किया,तो झगड़ा शुरू होगया |पति अपना मफलर गले में लपेटकर उसे खिंच देने की धमकी देने लगा,तो नाराज पत्नी ने खुद मफलर कस दिया,जिससे पति की मौत हो गयी |सोचा जा सकता है कि मंजू ने किस डिप्रेशन में ऐसा किया होगा,पर वह गुनहगार तो है ही !कई बार अपनी ही बेटी को पति की हवस से बचाने के लिए औरत अपराध कर बैठती है |कई ऐसे उदाहरण हैं,जिन्हें उद्धृत करते हुए भी शर्म आती है |देहरादूनमें १३ अगस्त को दमयन्ती नामक स्त्री ने अपने पति के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई कि जब वह तीन महीने अपने मायके में थी |आरोपी ने अपनी ही १६ साल की बेटी के साथ लगातार बलात्कार किया|निश्चित रूप से महिला ने संयम का परिचय देकर क़ानून का सहारा लिया,अन्यथा ऐसे हालत में पति की हत्या हो सकती थी |
आज अधिकांश आदमी डिप्रेशन में जी रहा है |तमाम दबाव उस पर हैं |बढ़ता प्रदूषण भी उनमें से एक है |एक शोध में बताया गया है कि आदमी तो आदमी,बंदर भी डिप्रेशन में हैं और लोगों को बेवजह काट रहे हैं |कारण –पर्यावरण का नष्ट होना,पेड़-पौधों का कटते जाना |प्राकृतिक आहार की किल्लत से बंदर मनुष्यों का जूठन खा रहे हैं और उसी की तरह डिप्रेशन के शिकार हो रहे हैं |मेरे इस विवरण का यह अर्थ कदापि नहीं लिया जाना चाहिए कि मैं स्त्रियों  के अपराध को कम करके देख रही हूँ |मेरा सिर्फ यह कहना है कि किसी भी स्त्री को दोषी करार देने से पहले उन स्थितियों-परिस्थितियों पर भी विचार किया जाए,जो ममतामयी स्त्री को इस कदर निर्मम बना रही है |मेरे हिसाब से इन विकृतियों की जड़ में सामाजिक नैराश्य और प्रतिकूल स्थितियां हैं,जिनसे औरते अकेले जूझती हैं और डिप्रेशन में अमानवीय कदम उठा लेती हैं ||पारिवारिक कारणों से हत्या-आत्महत्या करने वाली स्त्रियों पर अंगुली उठाने से पहले विवाह संस्था को कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए,जिसमें आज भी स्त्री चैन से नहीं जी पा रही है|जो ना तो उसे संरक्षण दे पा रही है,ना खुशी |जहाँ अराजकता का बोल-बाला है|स्त्री को किसी भी प्रकार का फैसला लेने का अधिकार नहीं, आजादी नहीं ,आराम नहीं, ना ही रात-दिन पीसने के बाद भी कोई यश !इतने दबाव वह नहीं झेल पाती,तो मनोरोगी हो जाती है | स्त्री-अपराधों का ज्यादातर मामला डिप्रेशन का ही है,जो स्त्री पर दुहरे-तीहरे दबाव के नाते आता है |परिवार-बच्चे,नात-रिश्तेदारी सबका भार स्त्री पर छोड़ना उसे बीमार बनाना ही है |
स्त्री अपने स्त्रीत्व का अपमान भी ज्यादा देर नहीं सह सकती |प्रेमी हो या पति जब वह उससे बेवफाई करता है या बार-बार उसे अपमानित करता है,उसकी कमियों का सबके सामने मखौल उड़ाता है,तो वह प्रतिशोध से भर जाती है |परिणाम किसी की जीभ कटती है,तो किसी की गर्दन |रूपम पाठक ने क्या यूँ ही भाजपा विधायक की हत्या कर दी थी ?सत्ता के नशे में स्त्रियों को ‘यूज और थ्रो’ करने वाले कभी-कभी स्त्री के प्रतिशोध में जल ही जाते हैं |स्त्री देह से दुर्बल होने के कारण अकेले पुरूष का सामना नहीं कर पाती,तो उस पुरूष को हथियार बनाती है,जो उसकी देह का कद्रदान[प्रेमी] है,फिर उस हथियार से अपना प्रतिशोध लेती है |अक्सर वह प्रेमी देह-सुख के लिए नहीं,अपने स्त्री होने को महसूसने के लिए बनाती है |प्रेमी उसके स्त्रीत्व को सम्मान देता है,उसको समझता है |क्यों पति यह नहीं कर पाता?क्यों घर की दाल समझकर उसे दलता ही रहता है?प्रेमी प्रेमिका को अपनी तरह इंसान मानता है,मनाने के लिए पैर तक छू लेता है,उसका अहं कभी उसके प्रेम पर हावी नहीं होता,पर वही प्रेमी पति बनते ही अहंकार से भर जाता है |अपनी गलती कभी नहीं मानता |पत्नी को हर बात में उसके पैर छूने पड़ते हैं |यदि पति प्रेमी बन जाए,तो ना जाने कितने स्त्री-अपराध बंद हो जाएँ |पर पति होने के अहंकार में वह लगातार स्त्री को प्रताड़ित व जलील करता रहता है,इसलिए उसके कमजोर पड़ते ही स्त्री उस पर हावी हो जाती है या फिर अपराध का रास्ता अख्तियार कर लेती है | ये सारी बातें मैं अपराधिनी मान ली गयी कई औरतों से बात करके जान पाई हूँ |मैं एक ऐसी औरत से मिली,जिसे पहली बार देखकर चीख पड़ी थी,उसका मुँह बुरी तरह जला हुआ था |ऊपर के होंठ उलट जाने से दांत दिखाई देते थे |नाक इस तरह सिकुड़ चुकी थी कि मात्र छिद्र ही दीखते थे |बस चेहरे में आँखें  ही ठीक [बहुत सुंदर] थी,साथ में देह भी |पता चला उसके चेहरे को उसके पति ने ही इस तरह जलाया है कि कोई पुरूष आकर्षित न हो सके |कभी वह अपने कस्बे की सबसे सुंदर लड़की हुआ करती थी |पिता की इकलौती पुत्री थी,इसलिए पिता के बाद उन्हीं के विशाल घर में पति के साथ रहती थी |समय बिता एक रेलवे का अफसर उसके घर में किरायेदार बन कर आया और मुंहजली का होकर ही रह गया |कस्बे में सभी उस स्त्री को ‘एक फूल दो माली’ कहते हैं |उसे गलत समझते हैं |पति को कोई कुछ नहीं कहता,जबकि सब जानते हैं कि वह पूर्ण पुरूष भी नहीं|उस स्त्री के प्रेमी से ही तीन बच्चे हैं |वह चाहती तो पति को अपने घर से निकाल सकती थी,पर उसने ऐसा नहीं किया |
फूलन देवी को ही लें,क्या वह बुरी स्त्री थी ?अपने प्रारम्भिक दिनों में बिना मर्जी की शादी और कई बार यौन-उत्पीड़न का शिकार होने के बाद ही वह डाकू बनी |१९८१ में उसने अपने साथी डकैतों की मदद से उच्च-जातियों के गाँव में २० से अधिक लोगों की हत्या कर दी थी |उत्तरी और मध्य प्रदेश के उच्च-जाति वाले ही उसकी हिंसा के शिकार हुए|अगर वह बुरी होती,तो भारत सरकार से समझौता करके ११ साल जेल की सजा नहीं काटती और जेल से रिहा होकर सांसद नहीं चुनी जाती |फूलन ने जाति-व्यवस्था के खिलाफ जो विरोध किया,उसने उसे समाज के दबे-कुचले लोगों के अधिकारों का प्रतीक बना दिया |तभी तो अन्तरराष्ट्रीय महिला-दिवस के अवसर पर ‘टाईम’ मैगजीन ने इतिहास की ‘सबसे विद्रोही महिलाओं’की सूची में फूलन देवी को चौथे नम्बर पर रखा है |उसका कहना है कि भारतीय ग़रीबों के संघर्ष को स्वर देने वाली और इस आधुनिक राष्ट्र के सबसे दुर्दांत अपराधी के रूप में फूलन को याद किया जाएगा |
 इन प्रसंगों को एक साथ रखने का कारण मीडिया द्वारा स्त्री के खल रूप का व्यापक प्रचार है |धारावाहिकों में सजी-संवरी औरतों के षड्यंत्र,उनकी आँखों व भौंहों का संचालन,टेढ़ी मुस्कान को देखकर कोफ़्त होने लगी है कि क्या स्त्रियों के पास इन सबके अलावा और कोई काम नहीं ?कहीं यह सब स्त्री को पीछे खींचने की सोची-समझी साजिश तो नहीं ?स्त्री को इन्हीं सब में उलझाकर रचनात्मक होने या विविध क्षेत्रों में पुरूषों के समकक्ष खड़ा होने से रोका तो नहीं जा रहा ?यह सच है कि स्त्री भी खल होती रही है और आगे भी हो सकती है,पर इतनी भी नहीं कि उसके सारे स्त्री-गुण तिरोहित हो जाएँ |पुरूष-मानसिकता का अनुकरण करने वाली स्त्रियाँ ही खलनायिका होती हैं और यह पुरुषप्रधान व्यवस्था के कारण है |इसलिए स्त्रियों को एकजुट होकर स्त्री के खल रूप के प्रचार-प्रसार को रोकना चाहिए|इस काम में वे पुरूष भी उनके साथ होंगे,जो परिवार-समाज के रिश्तों में लोकतंत्र के समर्थक हैं |सरकार को स्त्रियों के शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य के लिए योजनाएं बनानी आवश्यक है |स्त्रियों को भी अपने सेहत की उपेक्षा छोड़नी होगी,ताकि वे अच्छी माँ व एक स्वस्थ नागरिक बन सकें |

Monday 13 February 2012

प्रेम-एक विचार



प्रेम जीवन का रंग महोत्सव है |कोमल अनुभूतियों का समुच्चय |स्त्री-पुरूष के बीच दुःख-सुख,संयोग-वियोग,राग-द्वेष,त्वरा-आवेग,उद्वेलन सब का आवर्तन-प्रत्यावर्तन |एक खूबसूरत अहसास |प्रेम में स्त्री प्रकृति बन जाती है|फूल,तितलियाँ,चांदनी,सागर,नदियां,झरने सभी तो शामिल हो जाते हैं उसके प्रेम में,यहाँ तक कि सारी दुनिया भी |कितना अच्छा लगने लगता है जीवन..कम भी लगता है|वक्त खलनायक की तरह हो जाता है,जो प्रेम में व्यवधान डालता है|मुझे बार-बार लगता है कि प्रकृति और पुरूष सृष्टि के प्रारम्भ में अलग-अलग नहीं,एक रहे होंगे |किसी कारण उनको दो भागो में बाँट दिया गया होगा |तभी तो दोनों एक-दूसरे के लिए तड़पते हैं|अवसर मिलते ही पूर्व रूप में आने की कोशिश करते हैं |अनेकानेक प्रेम-कहानियाँ प्रकृति व पुरूष के एकमेव होने की ही कहानियाँ हैं |कहाँ रोक पाती हैं आसुरी शक्तियाँ दो दिलों को मिलने से ?असुर भी तो अक्सर प्रेम में पड़ जाते हैं |बड़े से बड़ा अपराधी प्रेम के कारण विनाश को प्राप्त हुआ,क्योंकि प्रकृति ने उससे प्रेम नहीं किया |प्रकृति तो सिर्फ पुरूष से प्रेम कर सकती है |उस पुरूष से,जिसमें स्त्री समाहित है |पुरूष भी उसी स्त्री से प्यार करता है,जिसमें पुरूष समाहित है |दोनों जब एक-दूसरे में खुद को पाते हैं,तभी उनमें आकर्षण के बीज अंकुरित होते हैं |जहाँ भी ऐसा नहीं होता हैं,वहाँ प्रेम भी भ्रम साबित होता है|        

Sunday 22 January 2012

विचार



अपने लिए जगह बनाती स्त्री को “परिवार- भंजक” माना जाता है |वह घर से बाहर निकली है, तो शोषण के लिए तैयार होकर निकले ,वरना घर की सुरक्षा के साथ मिलनेवाले निकट सम्बन्धियों के ‘अतिचारों” पर चुप्पी साधे |बोले तो “बेशर्म” यानी सबके लिए उपलब्ध होने का अवसर |जो भी अधिकार मिले हैं ,उसका सही उपयोग ही कहाँ हो रहा है| गर्भपात के अधिकार को ही लें |उसे इस अधिकार के साथ ही मिली है- कन्या –भ्रूण की बेदखली |स्त्री पुर्विवाह करे ,तो कोंचती निगाहें |अकेली रहे तो प्रश्नचिह्न !चौके और शयन कक्ष भी उसके बधस्थल|ऐसे में जरूरी है कि वह अपने पक्ष में खुद लड़े ,और अपने हक के लिए खुद खड़ी हो |जब तक यह लड़ाई अपनी और से नहीं लड़ी जायेगी ,स्त्री के पक्ष में नहीं जायेगी |भारत की विडम्बना यह है कि यहाँ स्त्री के लिए आज भी उन्नीसवीं सदी की और पुरुषों के लिए  इक्कीसवीं सदी की आचार संहिता है |
वैसे यह भी सच है कि सामाजिक परिवर्तन की गति सदी के अंतिम दशक में काफी तेज रही है और भूमंडलीकरण ने सभी वर्ग की स्त्रियों को बाहर निकलने के अवसर दिए हैं |आर्थिक स्वावलम्बन के कारण भी स्त्रियां कई अर्थों में बदली हैं ,कई वर्जित क्षेत्रों में उन्होंने ठोस दावेदारी प्रमाणित की है |नए वैज्ञानिक शोधों के अनुसार भी जैविक दृष्टि से स्त्रियां दोयम दर्जे की नहीं हैं |यह एक नई स्त्री है ,जो जीवन और सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन का संकेत देती है ,पर यह जानना भी बेहद जरूरी है कि ये नई स्त्रियां कौन हैं और कितनी हैं ?और भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के तहत उनकी गांठ में कितनी पूँजी ,कितनी आजादी है और वे खुद को कितना सामने ला पा रही हैं ?

Saturday 21 January 2012

तुम करो तप पुण्य हम करें तो पाप|अच्छा है इंसाफ !



वैसे तो जाने कब से स्त्री-पुरूष के लिए यह दोहरी नीति चली आ रही है और समाज के रगों में यह इतना घुल गया है कि किसी को इसमे कुछ गलत नहीं लगता ,पर न्याय तो यही कहता कि यह विभेद मिटना चाहिए |स्त्री सदियों से इस न्याय के लिए लड़ रही है |पहले अंदर-अंदर ही घुटती थी,अब खुलकर चीखने लगी है |कोई यूँ ही तो नहीं चीखता है|असहनीय पीड़ा होती है,तभी चीखता है |पर समाज की दृष्टि में यह स्त्री की बगावत है| गरिमा और शालीनता के खिलाफ बगावत!उसने फतवा जारी कर दिया कि जो चीखती है,वह अच्छी स्त्री नहीं है |अच्छी स्त्री में धैर्य,त्याग और विनम्रता होती है |वह अपने पुरूष की खुशी के लिए जीती-मरती है | यदि उसके पुरूष को हजार स्त्रियाँ और चाहिए,तो अच्छी स्त्री को कोई एतराज नहीं होना चाहिए|आखिर वह पुरूष है,कोई स्त्री तो नहीं कि छूने मात्र से अपवित्र हो जाए|जो पुरूष यह कहते हैं कि यह पुराने जमाने की बात है,वे खुद को टटोलकर देखें कि क्या एकाधिक स्त्रियों की कामना से उनका मन उद्वेलित नहीं होता रहता?यह अलग बात है कि ना तो स्त्री इतनी आसानी से उपलब्ध है,ना ही सबके पास इतनी सामर्थ्य है |पर ज्यों ही स्थिति जरा भी अनुकूल हुई,वह हाथ-पाँव मारने से बाज नहीं आता|अपने लिए इतनी आजादी चाहने वाला पुरूष अपनी स्त्री को आज भी सती-सावित्री के रूप में देखना चाहता है|किसी की कारण से स्त्री के पैर फिसले नहीं कि उसके साथ क्या-क्या नहीं किया जाता ?शादी के बाद की बात तो छोड़ दें,यदि शादी से पूर्व भी स्त्री के किसी से भावनात्मक रिश्ते भी रहे हों,तो वह बर्दाश्त नहीं कर पाता |यह सिर्फ इसी देश की बात नहीं है,दूसरे देशों में भी यह दोहरी नीति व्याप्त है |अभी हाल में इटली के ९९ वर्षीय बुजुर्ग एंटोनियो सी ने अपनी ९६ वर्षीया पत्नी रोसा सी से तलाक माँगा है| क्योंकि उसे अभी-अभी पता चला है कि उसकी पत्नी का १९४० में किसी से प्रेम था |’द डेली टेलीग्राफ’की रिपोर्ट के अनुसार अपने गुप्त प्रेम-प्रसंग के दौरान महिला ने अपने प्रेमी को खत भी लिखे थे |वैवाहिक जीवन के आठ दशक से ज्यादा समय साथ गुजारने और पाँच बच्चों और दर्जन-भर नाती-पोती तथा एक प्रपोत्र के बावजूद ,बुजुर्ग पत्नी के इस विश्वासघात को भुला नहीं पा रहा है |अब इसे क्या कहा जाए|सिद्ध तो यही हुआ कि स्त्री की यौन-शुचिता विदेशी पुरूषों के लिए भी उतनी ही मायने रखती है,जितनी इस देश के पुरूषों के लिए |पर पुरूष की यौन-शुचिता !क्यों उसके लिए अधिकाधिक स्त्रियों से रिश्ता गर्व का विषय है |’द डर्टी पिक्चर’का नायक सिल्क से पहली ही मुलाक़ात में गर्व से बताता है कि –‘वह अब तक ५०० से अधिक ट्यूनिंग कर चुका है|’सभी यहाँ तक कि उसकी पत्नी भी उसके गलीज चरित्र को जानती है |पर क्या उसे कोई फर्क पड़ता है ?तब भी उसके नाम से फ़िल्में चलती हैं |सिल्क जैसी लड़कियाँ उससे ट्यूनिंग के लिए आतुर रहती हैं और पत्नी गर्व से उसकी संतान को गोद में लिए फिरती है |और सिल्क ...उसके भाई से संपर्क बनाते ही द्रोपदी यानी डर्टी हो जाती है |सिल्क के हारने का वह जश्न मनाता है और कहता है –‘ऐसी औरत का यही होता है|’ ऐसी औरत यानी डर्टी औरत |पर ऐसी औरत बनाता कौन है ?अजीब न्याय है ?औरत को डर्टी करने वाला पुरूष डर्टी नहीं कहलाता |ग्लैमर की दुनिया के चमकते सितारे अक्सर छल-प्रपंच और विश्वासघात के शिकार होते रहे हैं |दक्षिण की सेक्सी क्वीन ‘सिल्क-स्मिता’ही नहीं,धीर-गम्भीर,विचारशील ‘मीनाकुमारी’,चर्चित कोरियन सुपर मॉडल ‘किम डूऊल’,बिंदास ‘प्रवीन-बॉबी’यहाँ तक कि हॉलीवुड की खूबसूरत हीरोइन ‘मर्लिन-मुनरो’को भी ग्लेमर की दुनिया के जगमगाती रोशनी के पीछे के काले,घने अँधेरे ने लील लिया था |उनकी अस्वाभाविक मृत्यु पर सारी दुनिया रोई,पर क्या दुनिया ने सोचा कि उन स्थितियों को बदला जाए,जिसके कारण अद्भुत सौंदर्य,प्रतिभा-सम्पन्न स्त्रियों का इतना दुखद अंत होता है|उपरोक्त  सारी स्त्रियों का बस एक ही अपराध था कि उन्होंने सामान्य स्त्री ना होते हुए भी प्रेम की आकांक्षा की |जिस पुरूषवर्चस्ववादी समाज में यौन-शुचिता का इतना महत्व है,वहाँ उन्हें कैसे प्रेम मिलता ?जिन्हें मेरी बातों पर विश्वास नहीं हो रहा है,वे मर्लिन मुनरों के सुसाइड नोट को पढ़ लें –‘मैं उस बच्चे जैसी हूँ,जिसे कोई नहीं चाहता |’ 

Tuesday 17 January 2012

अतिथि देवो भव



उड़ते खग जिस ओर मुँह किए समझ नीड़ निज प्यारा
अरुण, यह मधुमय देश हमारा |
जयशंकर प्रसाद की कविता की यह पंक्तियाँ यह बताती हैं कि हमारा देश सभी को आश्रय देता है |विदेशी पक्षी तक इसे अपना घर समझ कर आते हैं |पर आज इन प्रवासी पक्षियों की जो हालत भारत में हो रही है,उसे क्या कहा जाए ?ये विदेशी पक्षी ५०० रूपये पीस बिक रहे हैं |कुछ पक्षी-तस्कर बेखौफ इनका धंधा कर रहे हैं |वर्दीधारी भी उनसे मिले हुए हैं |इन पक्षियों की एडवांस बुकिंग करानी पड़ती है |बुकिंग के दो दिन बाद [पुराने ग्राहक को ही ] ये उपलब्ध कराए जाते हैं,वह भी जिन्दा नहीं काटकर |गोरखपुर शहर में भी कई स्थानों पर यह धंधा चोरी-छिपे चलाया जा रहा है |इस पक्षियों की कीमत मुँहमांगी मिलती है |बखिरा झील में सैकड़ों नरकटो के झुण्ड हैं,जहाँ इन पाखियों के घोंसले होते हैं |वहीं वे अपने जोड़े के साथ रहते हैं |शिकारी मुँह-अँधेरे ही मछुआरों के वेश में छोटी डोंगी से उन झुरमुटों तक जाकर इनका शिकार करते हैं |उनकी नाँव भी वही छिपी रहती है | निश्चित रूप से वन-विभाग और पुलिस विभाग शिकारियों के क्रिया-कलाप से अनभिज्ञ नहीं होगी |लाख नियम-कानूनों के बाद भी पक्षियों की तस्करी का जारी रहना क्या साबित करता है ?दोष किसकों दें खाने वालों को कि माल बेचने वालों को या देश की मौजूदा कानून व्यवस्था को –निर्णय आप करें |मैं तो यह समझती हूँ कि दोषी को सजा मिले क्योंकि देश की खास विशेषता इस कारण प्रभावित हो रही है |’अतिथि देवो भव’वाले देश में प्रवासी पक्षियों का शिकार अपराध से कम नहीं है |

Friday 13 January 2012

औकात

मेरी पड़ोसन का नौकर है रमेसर |उसके बेटे की ही उम्र का होगा |घरेलू काम-काज के लिए गाँव से ले आई थी |शहर में महरी से उनकी नहीं पट पाती थी |रमेसर के माँ-बाप ने पहले तो मना कर दिया,पर जब उसने उन्हें बच्चे को पढाने-लिखाने का लालच दिया,तो उन गरीबों की आँखों में एक सपना जगा कि यहाँ रहकर तो गुल्ली-डंडा खेलेगा|बहुत हुआ तो बड़ा होकर रिक्शा खींचेगा |वहाँ रहकर पढ़-लिखकर कुछ बन जाएगा |घर आकर उसने उदारता से अपने बेटे के पुराने कपड़े,काँपी-किताब रमेसर को दे दिया था|रमेसर की आँखों में खुशी चमकी थी |पर धीरे-धीरे पड़ोसन को काम शेष रहते उसका पढ़ना-लिखना खलने लगा |एक दिन उसे कसकर डपट दिया,तो सुधरा |अब काम खत्म होने का इंतजार करता है और काम को खत्म न होते देख उदास हो जाता है |सुबह जब पड़ोसन का बेटा स्कूल-यूनिफार्म में सजकर स्कूल-बस में बैठता |वह उसे हसरत से देखता हुआ पानी की बोतल थमाताऔर उदास लौटता |वह तब खुश होता,जब पड़ोसन का बेटा अंग्रेजी-धुन पर नाचता |उस समय बर्तन माँजते उसके हाथ-पैर भी थिरकने लगते |पड़ोसन बेटे के लिए तरह-तरह के व्यंजन बनाती,तो वह ललचाई दृष्टि से देखता |पड़ोसन नजर लगने के डर से उसे एक-दो टुकड़ा देकर बाहर जाने को कहती |वह इस बात को समझ जाता और देर तक बाहर उदास बैठा रहता |पड़ोसन को  सबसे अधिक बुरा तब लगता है,जब वह उसे खरीदारी का सामान ढोने के लिए ले जाती है और वह जूते,कपड़े,चाकलेट की दूकान पर हर चीज को अजूबे की तरह देखकर उन्हें छूने की कोशिश करता है |कभी-कभी दबी जुबान से अपने लिए कुछ खरीदने को भी कहता है |घर पहुँचकर वह उस पर चिल्लाने लगती है कि नौकर हो औकात में रहो|

Saturday 7 January 2012

दूध

महरी के दो नन्हें बेटे उसके साथ-साथ काम पर जाते हैं |बड़े की उम्र पाँच वर्ष तो छोटी की उम्र तीन वर्ष है |महरी जब तक घरों में काम करती है,बच्चे बाहर या ओसारे में खेलते रहते हैं |मालकिन का दिया रूखा-सूखा,बासी रोटी -भात खाकर खुश रहते हैं |उस दिन लाख मिन्नतों के बाद मालकिन का बेटा दूध पीने को राजी हुआ था और नाक-भौंह चढ़ाए दूध पी रहा था |महरी के बेटे खेलते-खेलते उधर आ निकले |छोटे ने दूध देखा और बड़े से पूछा-'भैया ये क्या है?'बड़े ने बताया-'दूध|'
-'दूध मीठा होता है क्या?'-छोटे ने पूछा |
"नहीं ..नहीं दवा-सा कड़वा होता है|"बड़े ने समझदारी दिखाई |
-'छिः,गंदा लड़का है |दवा पीता है |'छोटे ने भी अक्लमंदी का परिचय दिया |
उनको दूध की तरफ देखते पाकर मालकिन चिल्लाई-जाओ बाहर नजर लगाओगे क्या ?खुद तो घास-भूसा भी पचा लेते हो,मेरे बेटे को तो दूध भी नहीं पचता | 

Friday 6 January 2012

राहत

गोरखपुर के गोलघर के सुप्रसिद्ध काली मंदिर के बाहरी दीवारों से एक बूढ़ी,बीमार औरत देर रात के सन्नाटे में  टिका दी गयी थी |निश्चित रूप से कोई अपना ही रहा होगा |वह पति-जिसने उसके यौवन का सुख उठाया होगा या वह पुत्र-जो उसके रक्त पर पला होगा |वे अपने -जिसने उसके श्रम का दोहन किया होगा |कोई भी हो सकता है,पर सुबह-सुबह भक्त-जनों ने उसे मंदिर की बाहरी दीवारों से टिके हुए देखा और अपनी पवित्रता बचाते हुए मंदिर में गए और लौटते हुए उसे हिकारत से देखा |कुछ जो दयावान ज्यादा थे,उन्होंने दो-चार पैसे भी उसकी तरफ फेंक दिए |मंदिर के बाहर स्थाई रूप से बैठने वाले पेशेवर भिखारियों ने उन पैसों को हथिया लिया |औरत में उठने-बैठने की शक्ति भी नहीं थी |वह निर्जीव वस्तु की तरह लग रही थी.जबकि जिन्दा थी |उस दिन कोई मंत्री शहर में आने वाले थे,इसलिए  उन सड़कों-गलियों का सुन्दरीकरण किया जा रहा था,जिधर से माननीय को गुजरना था |मंदिर के बाहर के सुंदरीकरण में वह बदसूरत औरत बाधक दिख रही थी |इसलिए सफाई-कर्मियों ने उसे उठाकर मंदिर के पीछे कचरे के पास वाली दीवार से टिका दिया |सबने राहत की सांस ली |

Sunday 1 January 2012

स्त्री की मर्मान्तक चीख



स्त्री चाहें कितनी भी आधुनिक,हॉट,बिंदास और मशहूर हो जाए,उसके भीतर की पुरातन स्त्री कभी नहीं मरती |वह पुरातन स्त्री,जो सच्चा प्रेम चाहती है |अपना घर-संसार चाहती है और यहीं वह मात खा जाती है,क्योंकि समाज का संस्कार और पुरूष की मानसिकता ऐसी नहीं है कि बिंदास-बोल्ड स्त्री को प्यार व सम्मान दे सके|उसके लिए वह बस मन-बहलाव का साधन-मात्र होती है |शायद ही कोई ऐसा पुरूष मिले,जो बदनाम स्त्री को सहर्ष अपनाये और समाज में उसे लेकर गर्व के साथ  चल सके |अगर विरले कोई पुरूष ऐसा करता भी है,तो समाज इस कदर उसके पीछे पड़ जाता है कि वह पुरूष डिप्रेशन में चला जाता है या पीछे हट जाता है |इस सम्बन्ध में प्रेमचन्द की कहानी ‘आगापीछा’को देख सकते हैं |इस कहानी में जाति का हरिजन एक युवक वेश्या के प्रेम में पड़ जाता है और उससे विवाह करना चाहता है,पर स्थिति ऐसी बनती है कि उसे इतना आगा-पीछा सोचना पड़ता है कि उसे सन्निपात हो जाता है |वेश्या हतप्रभ रह जाती है कि कैसा है यह समाज,जो उसके पैरों पर लोट सकता है,पर इज्जत की जिंदगी जीने नहीं देना चाहता ?यह सच है कि समाज ऐसी स्त्री को सम्मान नहीं देता,जो उसके द्वारा तय मानदंडों पर खरा नहीं उतरती |ऐसी स्त्री को तब-तक तो कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता,जब तक वह युवा तथा बुलंदी पर होती है और समाज की परवाह नहीं करती,पर ज्यों ही वह उम्र व कामयाबी के ढलान पर आती है,समाज अपना भरपूर बदला लेता है |इसी कारण वेश्याएं या बिगड़ी कही जाने वाली स्त्रियाँ बुलंदी पर रहते ही अपनी आर्थिक स्थिति को इतनी मजबूत कर लेती थीं,कि ढलान पर उन्हें किसी का मुहताज न होना पड़े |चमकदार फ़िल्मी दुनिया की कहानी भी इससे अलग नहीं है |वहाँ भी कई नायिकाओं को अपनी ढलान पर ऐसे ही दारूण यथार्थ का सामना करना पड़ता है| आज भी फ़िल्मी-दुनिया के जगमग उजालों के पीछे कई थरथराते,उदास और गर्दिश में डूबे चेहरे हैं,जिन्हें आज कोई नहीं पूछता|एक समय इनकी तूती बोलती थी | इनमें समझदार नायिकाओं ने तो अपनी जिंदगी से समझौता कर लिया,पर जो नहीं कर पाई,उनका अंत बड़ा ही दुखद रहा |उनकी दास्तान बड़ी ही मार्मिक है |इन्हीं मार्मिक दास्तानों में एक दास्तान ‘सिल्क स्मिता’की भी है |दक्षिण-भारतीय अभिनेत्री ‘विजय-लक्ष्मी’,जो पहले‘स्मिता’फिर 'सिल्क स्मिता' कहलाई,अस्सी के दशक की स्वतंत्र स्त्री थी |बेहद बोल्ड,बिंदास,हॉट,सेंसुअलिटी की रानी |उसने अपनी देह के बल पर एक्स्ट्रा से‘मोस्टवांटेड’अभिनेत्री का सफर तय किया,पर उसे इसकी भरपूर कीमत चुकानी पड़ी |वह आज का समय नहीं था,जब लड़कियाँ अपने जीवन के बारे में खुली हुई हैं और जो कुछ करती हैं,उस पर गर्व करती हैं |उनके कपड़े भी उस तरह आलोचना के विषय नहीं हैं और अगर है भी,तो वे उसकी परवाह नहीं करतीं | सिल्क समय से पूर्व पैदा हो गयी स्त्री थी,इसलिए उसे ज्यादा बोल्ड कहा गया |उसके कपड़े भी बोल्ड माने गए,जबकि उसकी बिकनी,साड़ी,हॉट पैंट और बुनाई वाले ब्लाउज सब कुछ उस दौर की स्त्रियों को खूब पसंद आईं थीं |सिल्क से ही दक्षिण-भारतीय अभिनेत्रियों को'लो वेस्ट साड़ी’पहनने की प्रेरणा मिली थी |फैशन की दुनिया को उसने अपनी कल्पनाओं से खूब समृद्ध किया |दर्शकों को नया सौंदर्य-बोध भी सिल्क से मिला |वह गोरी-छरहरी नहीं थी|आज की हीरोइनों सा जीरो फीगर उसके पास नहीं था |उसका सौंदर्य आम स्त्री जैसा था |यही कारण है कि आम भारतीय स्त्रियों में वह मर्दों से ज्यादा लोकप्रिय थी |अपने देशी यौवन से उसने जिस मांसलता व मादकता का परिचय दिया,वह अद्भुत था |मादकता के नए बिम्बों को उसने जिस तरह आकार दिया,वैसा हिंदी-सिनेमा में भी बहुत कम अभिनेत्रियों ने जीवंत किया था | एक और खास बात उसमें यह थी कि उसने आम भारतीय स्त्रियों की बरसों से दबी-कुचली दैहिक संतुष्टि की इच्छाओं को पर्दे पर जीवंत कर दिया |उसने उन भावनाओं को पर्दे पर जीने की कोशिश की,जिसकी झलक सिर्फ खजुराहों की मूर्ति-शिल्प में देखने को मिलती है |सिल्क सिर्फ पर्दे पर ही नहीं,बल्कि जीवन में भी उतनी ही बोल्ड,निर्भय व जीवंत थी |वह जिंदगी को भरपूर जीने में विश्वास करती थी |उसके अनुसार जिंदगी एक ही बार मिलती है |ऐसी सोच,ऐसा जीवन कोई अपराध नहीं,फिर क्यों सिल्क अपने जीवन-काल में वह सम्मान नहीं पा सकीं ?यह जानने के लिए हमें बीस वर्ष से भी पीछे जाना पड़ेगा|निश्चित रूप से उस समय का समाज स्त्री के मामले में और भी ‘बंद’रहा होगा |स्त्री की उन्मुक्तता अपराध से कम नहीं होगा |ऐसे समय ने समय से पूर्व पैदा हो गयी सिल्क को खराब स्त्री मान लिया,क्योंकि उसके पास मादक यौवन था,उसकी अदाओं में शराफत नहीं थी,ना ही उसकी आँखें शर्म से झुकती थीं|उसे ना तो द्विअर्थी व बोल्ड संवाद बोलने में हिचक थी,ना बोल्ड सीन देने में |भला ऐसी स्त्री को दोहरी जिंदगी जीने वाला दोमुंहा समाज कैसे स्वीकार कर सकता था?
ऐसा नहीं कि सिल्क को लोकप्रियता नहीं मिली |१९८० से १९८३ तक उसकी लोकप्रियता का यह आलम था कि लीक से हटकर फ़िल्में बनाने वाले ‘बालू महेंद्रा’और ‘भारतीय राजा’को भी उसे काम देने पर मजबूर हो पड़ा |बालू महेंद्रा ने सिल्क को ‘मूरनम पिराई’ में खास रोल दिया था |’सदमा’में फिर उसे रिपीट किया |मसाला फ़िल्में तो मानों उसके बिना चलती ही नहीं थीं |अच्छे-अच्छे निर्माता अपनी फिल्म में उनका एक गाना जरूर रखते थे |कई तो सिल्क के गाने की प्रतीक्षा में अपने फिल्म का प्रदर्शन रोके रहते |हिंदी-निर्माताओं ने भी उनकी लोकप्रियता को भुनाया |सिल्क को फिल्मों में पहला ब्रेक १९८० में ‘वाडी चक्रम’से मिला था,फिर वह नहीं रूकी |अपने दस साल के कैरियर में उसने पांच-सौ फ़िल्में की और ग्लैमर के आसमान की चाँद बनने का उसका सपना पूरा हुआ |कौन जानता था कि आन्ध्रप्रदेश के ‘राजमुंदरी केएल्लुरू’में २ सितम्बर १९६० को बेहद गरीब परिवार में जन्मी वह एक दिन स्टारों की बेहतरीन जिंदगी जी पाएंगी |उनके माता-पिता इतने गरीब थे कि चौथी कक्षा के बाद उसे सरकारी स्कूल भी नहीं भेज पाए थे |पहला काम भी उसे फिल्मों में ‘मेकअप असिस्टेंट’का मिला,जहाँ से उसके सपनों ने उड़ान भरी थी |उसकी सफलता के पीछे उसकी कड़ी मेहनत थी |उसने तीन-तीन शिफ्टों में काम किया और एक-एक गाने के पचास-पचास हजार तक पारिश्रमिक लिया,पर अपने शोहरत के उस दौर में  वह अपने निजी जीवन को संतुलित नहीं रख सकी |इस भूल की कीमत उसे अपने कैरियर के ढलान पर आते ही चुकानी पड़ी |जिंदगी में उसे लगातार छल-कपट,धोखेबाजी का सामना करना पड़ रहा था,जिसके कारण मनोवैज्ञानिक रूप से कमजोर पड़ती गयी |एक करीबी मित्र ने उसे फिल्म-निर्माता बनने का लालच भी दिया,पर दो फिल्मों के निर्माण में ही उसे दो करोड़ का घाटा हो गया |तीसरी फिल्म शुरू तो हुई,पर पूरी ना हो सकी |बैंक में निरंतर रकम कम हो रही थी,उसपर उसे काम भी नहीं मिल पा रहा था |स्टार की जीवन-शैली भी खर्चीली ही होती है |इन सब दवाबों ने उसके मानसिक संतुलन को हिला दिया |२३ सितम्बर १९९६ को उसकी लाश उसके घर के पंखे से झूलती मिली थी,जिसे आत्महत्या का केस मानकर पुलिस ने उसकी फाईल बंद कर दी | इस तरह एक बोल्ड स्त्री का दुखद अंत हुआ और आम स्त्री ने सोच लिया कि पारम्परिक स्त्री बने रहने में ही भलाई है,भले ही परम्परा के पिंजरे में दम घुट जाए |कम से कम ऐसे मरने से सम्मान तो मिलेगा,जो सिल्क जैसी स्त्रियों को कभी नहीं मिलता |
बीस वर्ष के बाद सिल्क ‘द डर्टी पिक्चर’के माध्यम से फिर चर्चा का विषय बनी है |जितने मुँह उतनी बात | सहानुभूति कम थुक्का-फजीहत ज्यादा है |’देह की आजादी’,‘स्त्री-विमर्श’के इस समय में सिल्क की तरफ उठती अंगुलियाँ बता देती हैं कि बीस वर्ष पूर्व सिल्क के प्रति लोगों की क्या धारणा रही होगी?क्यों उसे प्यार व सम्मान नहीं मिला?क्यों वह टूट गयी ? इस फिल्म ने एक बार फिर ‘देह’के बारे में सोचने पर विवश कर दिया है |प्राचीन काल से ही देह स्त्री का हथियार रहा है,पर यह कैसा हथियार है,जो अंततःउसे ही लहुलूहान करता है |देह के माध्यम से पाई सफलता कितनी क्षणिक साबित होती है |ना तो इस सफलता से सम्मान मिलता है,ना इसमें स्थायित्व होता है |यह सब जानने के बाद भी स्त्रियाँ ‘देह’ बनने को क्यों ब्याकुल हैं ?सिल्क यदि ‘दिमाग’के कारण जानी जाती,तो क्या उसका अंत इतना ही भयावह होता ?विज्ञापन,फिल्में व बाजार स्त्री की देह का मनमाना इस्तेमाल करके उससे लाभ कमाता है और जब चाहे उठाकर बाहर फेंक देता है |स्त्री की अस्मिता उसके अस्तित्व पर कितना बड़ा खतरा है ये !इसके बावजूद आज की स्त्री सौंदर्य को टिकाऊ बनाने के पीछे इतनी पागल है कि ‘दिमाग’बनने की दिशा में कुछ सोच ही नहीं रही |सिल्क की विवशता तो एक बार समझी भी जा सकती है कि चौथी पास,साधारण रूप-रंग की लड़की के पास देह-प्रदर्शन के अलावा कोई चारा नहीं था |ग्लैमर का चाँद बनने और स्टार की तरह जीवन जीने की आकांक्षा ने उसे आत्मा को मारकर समझौते की राह दिखाई,पर समर्थ अभिनेत्रियों को क्या हुआ है,जो देह उघाड़कर फिल्म-निर्माताओं की दुकान चला रही हैं ?सिल्क की जिंदगी को भी फ़िल्मी-बाजार ने भुनाया,अब उसकी मौत को भी भुना रही है |यह विडम्बना नहीं तो और क्या है कि ज्यादातर लोग फिल्म के अश्लील डांस,गाने व दोहरे सम्वाद देखने-सुनने जा रहे हैं|सिल्क की ट्रेजडी लोगों को सही जगह छू भी नहीं रही है,ना ही उसकी मर्मान्तक चीख किसी को सुनाई पड़ रही है |ऐसा होता तो शायद समाज की मानसिकता में बदलाव की उम्मीद भी बंधती |सिल्क का दुखद अंत समाज के सामने एक प्रश्न है,तो देह को हथियार समझने वाली स्त्रियों के लिए एक सबक भी! फिल्म की सिल्क का एक प्रश्न आज भी उत्तर की प्रतीक्षा में है कि –‘जो डर्टी फिल्म बनाते,बेचते व देखते हैं,जब वे इज्जतदार माने जाते तो उसमे काम करने वाली अभिनेत्री क्यों गलत मानी जाती है?’स्त्री को हमेशा उपभोग की सामग्री माना गया |उसे बेचा-खरीदा गया |मनोरंजन की चीज बनाकर पेश किया गया,उपर से बदनाम भी किया गया |आज स्त्री को इसके खिलाफ खड़ा होना पड़ेगा,वरना सिल्क-स्मिताएं बनती रहेंगी और असमय मरती रहेंगी |