Wednesday 24 July 2013

मानसिक विकृति


16 जनवरी को गोरखपुर के ऊरुवा में लड़की के साथ एक हादसा हुआ था | एक मानसिक रूप से विकृत लड़के ने लडकी की नाक ही काट डाली थी |कारण यह था कि लड़का उससे एकतरफा प्रेम करता था और उससे शादी करना चाहता था |लेकिन लड़की नहीं चाहती थी और उसने इनकार  कर दिया और अब उसकी शादी कहीं और होने जा रही थी। मामला पुरूष सत्ता का है ,ऐसा ज्यादातर ने कहा ,पर मनोविज्ञान के अनुसार यह मामला विशुद्ध रूप से मानसिक विकृति का है जिसका वो लड़का शिकार था। वह आरोपी लड़का दरअसल "एग्रेसिव ओ.सी.डी. डिसऑर्डर" नामक मानसिक विकृति से ग्रस्त था जिसे चिंता विकृति में वर्गीकृत किया जाता है। इसमें व्यक्ति की मनोग्रस्ति आक्रामक हो जाती है और वह मनोग्रस्ति के कारक का अधिक से अधिक नुकसान पहुँचाने की चेष्टा करता है। ऐसी बीमारी के पीछे "नकारात्मक घरेलू माहौल, नकारात्मक सामाजिकता, जीवन में असफलता, संस्कारों की कमी, अतिहठधर्मिता आदि" कारण होते हैं जो व्यक्ति की चिंता एवं आक्रामकता को बहुत ज्यादा बढ़ा देते हैं जिसका परिणाम हमेशा बड़ा भयानक होता है। इस विकृति के कारण व्यक्ति की आसक्ति असंगत रूप से हिंसक स्वरुप ले लेती है। व्यक्ति का विवेक (intelligence) लगभग समाप्त हो जाती है, उग्रता बढने लगती है, किसी ख़ास एवं अनचाहे ख्याल से वो लगातार परेशान रहता है, शंका - आशंका , गंदगी एवं हरकतों के प्रति वह अतिसंवेदनशील हो जाता है। उसकी हरकतें भी बहुत हद तक असंगत हो जाती हैं जैसे बार - बार हाथ धोना, नहाना , साफ़ सफाई का बहुत ज्यादा ध्यान देना , किसी पर विश्वास न होना, एक ही काम बार - बार करना, ताला बंद होने पर भी बार - बार चेक करना आदि। वैसे राह चलते जो लोग लड़कियों या महिलाओं को मुड़ - मुड़ कर देखते हैं या घूरते हैं वो भी ओ.सी.डी. से ग्रस्त होते हैं।
इस बीमारी से मुक्ति का एक मात्र रास्ता ग्राफोलोजी एवं ग्राफोथिरेपी (अति उन्नत एवं अत्याधुनिक मनोविज्ञान ) है जिसमें व्यक्ति के मस्तिष्क को समुचित अवस्था के लिए अधिगमित एवं सशक्त कर स्थापित कर दिया जाता है जिसमें मात्र 2 से 4 सप्ताह का ही समय लगता है। यह स्थाई निदान तो होता ही है साथ ही व्यक्ति मानसिक रूप काफी सशक्त भी हो जाता है तथा इसमें किसी किसी भी प्रकार की दवा का प्रयोग नहीं होता। वैसे भी किसी भी मानसिक बीमारी को दवा ठीक किया ही नहीं जा सकता उल्टे दवाओं से व्यक्ति का व्यक्तित्व बिलकुल नष्ट हो जाता है, आत्महत्या करने की प्रवृत्ति 2 गुनी बढ जाती है, व्यक्ति असामान्य रूप से बहुत हिंसक हो सकता है |यदि ऐसा कुछ होने से वो बच भी जाता है तो भी अंततः वो किसी काम का नहीं रहता|इसी कारण कुछ लोगों द्वारा मनोचिकित्सा (साईकियाट्री) को "मौत का उद्योग" भी कहा जा रहा है और अमेरिका सहित 36 विकसित देशों में इसे प्रतिबंधित करने की जबरदस्त मांग चल रही है ]
बच्चों या किसी व्यक्ति ऐसी असामान्यता दिखने पर तत्काल ग्राफोलोजी एवं ग्राफोथिरेपी के एक्सपर्ट से परामर्श करना चाहिए।



Sunday 19 May 2013

स्त्री कविता की दुश्वारियां



कविता कविता होती है ,उसे स्त्री या पुरूष कविता के रूप में बांटकर नहीं देखना चाहिए ,यह तर्क अक्सर विद्वान देते रहते हैं |वे भूल जाते हैं कि इसी तर्क के कारण स्त्री कविता का सही आकलन आज तक नहीं हो पाया है |स्त्रियाँ हमेशा से कविताएँ लिखती रही हैं,पर उन कविताओं का सही मूल्यांकन अभी तक नहीं हुआ |उनकी कविताओं को हिंदी साहित्य के इतिहास में सही जगह नहीं मिली|संकलित न होने के कारण ढेर सारी कविताएँ कहीं खो गईं,जो अब बड़े प्रयासों के बाद  धर्माश्रय,राज्यश्रय तथा लोकाश्रय माध्यम से मिल रही हैं |प्रश्न है कि क्यों साहित्य के इतिहास में वे कवयित्रियाँ उस तरह दर्ज नहीं की गयी थी,जिस तरह कवि दर्ज हुए?
प्राचीन स्त्री कविता को समझने के लिए प्राप्त किए गए तीनों आश्रय मात्र आश्रय नहीं हैं ,तीन वर्गों के प्रतीक हैं |इनके अध्ययन से पता चलता है कि स्त्री कविता का अपना एक अलग सौंदर्य –शास्त्र है ,जो सबसे अधिक लोक साहित्य के पास प्राप्त है|यद्यपि भाषा,काल और भूगोल की दृष्टि से इनमें भिन्नता हैं फिर भी उनमें ऐसा कुछ विशेष है,जो सम्पूर्ण स्त्री कविता को जोडता है और यह सम्वेदन सूत्र उनका स्त्री होना है |गहराई में जाए तो देंखेगे कि पुरूष इतिहासकारों ने स्त्री रचनाकारों के साथ बहुत अन्याय किया है,और जानबूझकर किया है |उन्होंने स्त्री कवियों को हमेशा दोयम दर्जे का समझा और साहित्य के इतिहास में उनको वह स्थान नहीं दिया जिसकी वे अधिकारी थीं |स्त्री रचनाकारों ने भी इस बात पर एतराज नहीं किया और अन्याय का यह सिलसिला लम्बे समय से चलता हुआ आज की कविता तक आ पहुँचा है |
स्त्री कविता की एक अविच्छिन्न परम्परा रही है |ऋग्वेद में रोमशा,लोपामुद्रा,श्रधा कामायनी आदि मंत्र-द्रष्टा हैं |वैदिक काल के बाद स्त्री कविता थेरी गाथाओं में मिलती है |जिनका रचना काल ईसापूर्व पाँचवी शताब्दी माना जाता है |इनकी भाषा पालि है |विभिन्न वर्गों से आईं थेरियों की एक ही चिंता थी -‘शास्ता का वचन है स्त्री होना दुःख है’| आज के स्त्री विमर्श के महत्वपूर्ण सूत्र थेरियों की कविताओं में मिलते हैं | थेरीगाथा में स्त्री के दुःख स्वप्न स्पष्ट हैं ,जो उनका पीछा संन्यास लेने के बाद भी नहीं छोड़ते|सुमंगला माता अपने बेटे सुमंगल के नाम से पहचानी गईं क्योंकि उस समय भी स्त्री की अपनी कोई पहचान नहीं थी|वह किसी की पुत्री,पत्नी ,माँ रूप में ही मान्य थी | दरिद्रता के कारण सुमंगला का ब्याह एक छाते वाले से हुआ था |संन्यास लेने के बाद वे मुक्ति की सांस लेती हुई कहती हैं कि वे मूसल बर्तनों से तो मुक्त हुई ही ,जो जन्म के साथ ही स्त्री की अनिवार्य नियति बन जाती हैं |सबसे बड़ी मुक्ति तो उस निर्लज्ज पति से हुई जो 
उन्हें ‘उस छाते से भी तुच्छ समझता था जिन्हें अपनी जीविका के लिए बनाया करता था |’
थेरी मुक्ता का विवाह कुबड़े से हुआ था |गृहस्थी छोड़ कर उसने संन्यास लिया |उसकी मुक्ति देखें-
‘मैं सुमुक्त हुई |अच्छी सुमुक्त हो गयी |
तीन टेढ़ी चीजों से |अच्छी विमुक्त हो गयी |
ओखली से|मूसल से |और अपने कुबड़े पति से|
भली विमुक्त हो गई |
स्त्री और पुरूष की मुक्ति में अंतर है |यह अंतर थेर और थेरी गाथाओं में ही प्रकट होने लगा था | एक गरीब किसान जब थेर होता था तो उसकी मुक्ति जुताई बुवाई कटाई तथा हंसुलों,हलों और कुदालों से होती थी,पर थेरियां उन जंजीरों से भी मुक्त होती थी ,जो स्त्री होने के नाते उनकी नियति बन जाती थी|यह जरूर है कि जंजीरें स्मृति के रूप में उन्हें हमेशा परेशान करती थीं |वे पूरी तरह मुक्त कभी नहीं हो पाती थीं | थेरी गाथाओं में यातना कथा स्मृतियों के रूप में चलती रहती है|स्त्री कविता पर आज भी यह आरोप लगता रहता है कि उसका दायरा बेहद संक्रीर्ण है |कवयित्रियां घर,पति,पुत्र,प्रेम,परिवार से आगे निकल ही नहीं पातीं|ना ही सिर्फ साहित्य साधना उनका उद्देश्य होता है | इसका उत्तर थेरी सीमा के इस कथन में पा सकते हैं, जो उसने अपने लिए लिखा था पर उसमें पूरे समाज का चेहरा झाँक रहा है |
–‘जो स्थान ऋषियों के द्वारा भी प्राप्त करने में कठिन है,उसे दो अंगुल मात्र प्रज्ञा वाली भी प्राप्त कर लेगी यह कभी भी सम्भव नहीं है|दो अंगुल,अर्थात चावल पकाते समय पानी को दो अँगुलियों के दो पोरों से मापा जाता है|बस ,उतनी ही परिधि है स्त्री प्रज्ञा की |’सीमा का यह कथन स्त्री कविता के प्रति समाज की दृष्टि को स्पष्ट कर देता है और उपेक्षा की वजह भी |स्त्री को इस लायक ही नहीं माना गया कि वह कुछ विशेष रच सकती है या उसके लेखन को गम्भीरता से लेने की जरूरत है |यही मानसिकता कमोवेश आज तक चली आ रही है |यही कारण है कि अधिकांश स्त्री कविता पुरूष कविता का दुहराव मात्र लगती है |पुरूष की सौंदर्य-दृष्टि ही उसकी अपनी सौंदर्य दृष्टि बनी हुई है | इसका कारण यह है कि धारा के विरूद्ध लिखने वाली स्त्री कविता को पुरूष आलोचक खारिज करने की कोशिश करते हैं और स्त्री आलोचकों का हिंदी साहित्य में घोर अभाव है |
पालि के बाद प्राकृत भाषा का समय आया ,जिसमे स्त्री कविता के संकेत मात्र मिलते हैं |आश्चर्य की बात तो यह है कि प्राकृत को स्त्रियों की भाषा कहा जाता था क्योंकि उनको संस्कृत बोलना मना था,फिर भी उसमें स्त्री साहित्य ना मिलना कुछ और ही संकेतित करता है |आगे चलकर गाथा सप्तशती में कई कवयित्रियों की कविताएँ सम्मलित हुईं |भक्ति आंदोलन के समय भी कुछ कवयित्रियाँ के नाम सामने आए|
यह सुखद है कि सबसे पहले राजशेखर ने स्त्री कविता को दर्ज किया |शायद इसका कारण यह रहा हो कि उनकी पत्नी अवन्तीसुन्दरी भी अच्छी रचनाकार थीं |राजशेखर ने एक महत्वपूर्ण बात कही थी-‘पुरूषों के समान स्त्रियाँ भी कवि हो सकती हैं |ज्ञान का संस्कार आत्मा से संबंध रखता है,उसमें स्त्री-पुरूष का भेद नहीं है |’ इसके बाद भी पूर्व का सारा स्त्री लेखन गायब हो गया| कारण कि स्त्री कविता को किसी ने संकलित ही नहीं किया |स्त्री कविता लोकगीतों में ही बची रही |लोक गीतों में स्त्री प्रतिभा के दर्शन होते हैं |अच्छी बात यह है कि स्त्री-गीतों में पुरूषों का मिलाया एक भी शब्द नहीं है |हो सकता है कि एक-एक गीत की रचना में बीसों वर्ष और सैकड़ों मस्तिष्क लगे हों ,पर मस्तिष्क थे स्त्रियों के ही’ –रामनरेश त्रिपाठी
वैदिक काल की अपाला और घोषा क्रमश:इंद्र और अश्वनीकुमारों की कृपा से कुष्ट रोग से मुक्त होकर पति-पुत्र,परिवार में सुखी जीवन जी सकी थीं|और यही उनकी चाहत भी भी |सदियों गुजर जाने के बाद भी स्त्री की मूल कामना इसी दायरे में घूमती है |जिनकी नहीं घूमती उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है |गार्गी,रवना इत्यादि बौद्धिक स्त्रियों का परिणाम सब जानते हैं |पुरूष से बौद्धिक प्रतिस्पर्धा स्त्री को मंहगी पड़ती है | 
चारण काल में चारणियों ने वीर काव्य क्यों नहीं लिखे,जब कि उस समय भी कुछ अच्छी कवयित्रियां थीं ?जैन साहित्य में स्त्री कवि क्यों नहीं है ?मध्ययुग में क्यों नाम मात्र की कवयित्रियाँ मिलती हैं ?इन प्रश्नों के साथ ही कुछ और सवाल जेहन में उभरते हैं कि मुगल काल की कवयित्रियों में अधिकांश ने क्यों लोकभाषा को महत्व नहीं दिया और फारसी या संस्कृत में लिखती रहीं |क्यों नहीं वे भूल सकी कि वे बेगम ,राजपुत्री ,पत्नी ,माँ के अलावा एक रचनाकार भी हैं ?वह कौन सा दबाव थाजिसके कारण वे ये बात ना भूलती हैं ,ना ही यह चाहती हैं कि लोग यह बात भूलें |क्यों इनकी कविताओं में स्त्रीत्व की छाप नहीं ?क्यों वे पुरूष की तरह ही लिखती रहीं | शायद उन्हें पता था कि यदि वे आदिकाल की स्त्रियों की तरह लोकगीत या धारा के खिलाफ लिखेंगी,तो साहित्य के इतिहास से बाहर कर दी जाएंगी|या मीरा की तरह कष्टपूर्ण जीवन जिएंगी |मीरा ही क्यों कश्मीरी कवयित्री लल्लद्येद को ही लें,जिनसे कश्मीरी साहित्य का प्रारम्भ हुआ,उनके समकालीनों ने उनका नोटिस ही नहीं लिया |जानते थे कि उपेक्षा से मारक कोई हथियार नहीं होता | भक्तिकालीन स्त्री कविता पुरूष कविता की तरह विधिवत दीक्षा लेकर मंदिरों और मठों में बैठकर नहीं लिखा गया,फिर भी परचई साहित्य और भक्तमाल में कवयित्रियों का उल्लेख उस तरह नहीं है ,जिसतरह पुरूष कवियों का |कारण साफ़ है कि विपरीत धारा में तैरने का साहस उपेक्षा की दृष्टि से देखा गया |मीरा इसका जीवंत उदाहरण हैं |उनके जैसा विद्रोही व्यक्तित्व कबीर के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं हुआ |इसीलिए समय ने उन्हें विष का प्याला दिया और हमारे समय ने ‘फुटकर खाते में डाल दिया |[सुमन राजे,हिंदी साहित्य का आधा इतिहास] विद्रोही रचनाकारों को इतिहासकार भी पसंद नहीं करते |मीरा को शामिल करना मजबूरी ना होती ,तो उसे कभी का खारिज कर दिया गया होता | मीरा के बाद ताज महत्वपूर्ण कवयित्री हैं |उनमें यद्यपि मीरा जैसा तेवर तो नहीं ,फिर भी मुसलमान होते हुए खुल्मखुल्ला ‘हिन्दुआनी’बने रहने की घोषणा मध्ययुगीन मुगल काल में साहस का ही काम माना जाएगा |लेकिन यहाँ एक बात गौरतलब है कि मीरा को कृष्ण- सम्प्रदाय के लोगों ने जिस तरह गरियाया |उनके स्त्रीत्व और वैधव्य पर मारक प्रहार किया ,वैसा ताज के साथ नहीं किया |कारण साफ़ था कि ताज अकबर की बीबी थी और उनके साथ अकबर मंदिर तक आए थे |मीरा को एक साथ कई लड़ाई लड़नी पड़ी थी –स्त्री होने की ,विधवा होने की ,भक्त होने की और कवि होने की |यह लड़ाई उन्होंने अंतिम समय तक लड़ी |राजस्थान में मीरा की तरह ही लोकप्रिय चन्द्रसखी के गीतों को सखी सम्प्रदाय के किसी पुरूष भक्त की रचना माना जाता है |यह स्त्री-कवि पर लगाया जाने वाला सामान्य आक्षेप है |प्रश्न यह है कि क्यों नहीं किसी स्त्री ने पुरूष नाम रखकर लिखा?और क्यों प्राचीन स्त्री कवियों [मीराबाई से कीर्ति कुमारी तक] में ज्यादातर रानियाँ या बड़े घराने की स्त्रियाँ रही ? क्या सामान्य या मध्यवर्ग की स्त्रियों में कवित्व-प्रतिभा नहीं होती थी ?या फिर उन्हें उभरने ही नहीं दिया जाता था ?एक शिकायत और कि अक्सर स्त्री-कवियों पर यह आरोप लगाया जाता है कि वे कवियों का अनुकरण करती हैं [वह भी घटिया स्तर का] |यानी स्त्री श्रेष्ठ कविता लिख ही नहीं सकती |यदि स्त्री की कोई कविता उत्तम है तो निश्चित रूप से किसी कवि की है,जो उनके प्रेमी-पति हो सकते हैं |शेख की कविता को आलम लिखते रहे ,तो साई की कविता उनके पति गिरिधर कविराय की मानी गई |सुंदर बाई की कविताओं के बारे में कहा गया कि वे किसी स्त्री की कविता हो ही नहीं सकतीं,वे जरूर किसी प्रौढ़ कवि की कविताएं हैं |यह श्रेष्टता –ग्रंथि,सामंती -मानसिकता और ओछी प्रतिक्रियाएं आज भी ज्यों की त्यों दिख जाती हैं|इन्हीं सब के कारण हिंदी साहित्य में स्त्रियों की संख्या कम है |एक तो स्त्री घर-गृहस्थी के झमेलों,पति-पुत्र,रिश्ते -नातों के चक्रव्यूहों से नहीं निकल पाती ,दूसरे उसकी प्रज्ञा पर किसी को विश्वास नहीं |अगर वह विद्रोह करती है,तो खराब स्त्री के रूप में प्रचारित कर उसका जीना मुश्किल कर दिया जाता है |पुरूष के हिसाब से वह ना ढले या लिखे तो उसे खारिज करने के लिए सारी पुरूष-शक्तियाँ एकत्र हो जाती हैं|हिन्दी में अनेक संग्रह-ग्रन्थ प्राचीन और नवीन हैं,पर स्त्रियों की कविताओं को विशेष महत्व किसी में नहीं मिला |और ना ही इसके खिलाफ स्त्री ने कोई आवाज ही उठाई |
जब उन्नीसवीं सदी का नवजागरण स्त्री केंद्रित हुआ और प्रथम बार स्त्री को इन्सान रूप में देखने की शुरूवात हुई ,तभी सबको लगा कि स्त्री तो साहित्य क्षेत्र से पूरी तरह निर्वासित है |स्त्री खुद भी जगी |उसने ना केवल सामाजिक-राजनीतिक भागीदारी की ,बल्कि साहित्य लेखन में भी गम्भीरता से प्रवृत हुई |इसका परिणाम यह हुआ कि उसकी साहित्यिक उपेक्षा संभव नहीं रही |इसी बीच पांडुलिपियों की खोज भी हुई और कई कवयित्रियाँ सामने आईं |पता चला कि साहित्य की जितनी भी मुख्य काव्य- धाराएँ हैं ,सबमें स्त्री कवियों की भागीदारी है,पर समय के प्रवाह और पुरूषों के प्रभुत्व से पुरूष कवियों की रचनाओं का प्रचार अधिक हुआ,जनता के सामने वह सांगोपांग रूप में आया,अथवा उसका विज्ञापन अधिक हुआ |स्त्री को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ना मिलना ,पर्दा प्रथा व समाज की स्त्री विरोधी मानसिकता ने स्त्री की रचनात्मकता को दबाया था |१९३०से लेकर १९४५ तक स्त्री लेखन पर काम होता रहा,पर फिर सब ठप हो गया |मीरा और महादेवी को छोडना संभव नहीं था,लेकिन उनके अतिरिक्त राष्ट्रीय काव्यधारा में स्त्री कवियों के योगदान को नकार दिया गया | लाला भगवानदीन [जो स्वयं रीति काव्य के कवि थे,और  पुरानी और नयी धारा की कविताओं पर लगभग दो पृष्ठ खर्च किया था ] ने अपनी पत्नी बुन्देलबाला [जो राष्ट्रीय कविता की पुरोधा रही थीं]का नाम तक नहीं लिया|इसी कारण उन्नीसवीं सदी की स्त्री कविता भी भक्ति-भाव के उतरार्ध से अधिक प्रभावित दीखता है |स्त्री रचनाकार साम्राज्य वाद के अंतर्गत एक सामंती व्यवस्था भी ढो रही थी,जो उसे अलग कुछ करने नहीं देता था |यही वजह है कि आधुनिकता का समावेश स्त्री-कविता में जरा देर से हुआ |१९०० से लेकर १९२५ तक बदले रचना-केंद्रों के साथ स्त्री-कवियों के कई स्वर सुनाई पड़ते हैं |कविता अब मध्यवर्ग से जुड़ने लगी थी और राष्ट्रीय स्वर उसका प्रधान स्वर बन गया था |इस समय स्त्री जागरण और स्वदेश जागरण एक साथ एक-दूसरे के पर्याय बने दिखाई देते हैं |फिर कविता स्त्री को साथ लिए आगे बढ़ती गई |अनेक वादों को पार कर वह स्त्री –विमर्श तक जा पहुँची है |अब उसके सामने पहले सी दुश्वारियां तो नहीं,पर दिक्कतें अब भी हैं |कमोवेश उसी सामंती मानसिकता ,पुरूष वर्चस्व,लिंग-केंद्रित भेद-भाव के दर्शन स्त्री कविता के संदर्भ में दीखते रहते हैं |तमाम तरह के झंडे,वाद,गुट बन रहे हैं |आज भी स्त्री-कवियों की संख्या काफी कम है और जो हैं भी उनमें से कम का ही नामोल्लेख पुरूष-आलोचक कर रहे हैं|निश्चित रूप से अपने मानदंडों से इतर कविता को वे कविता नहीं मानते |विद्रोही कविता को स्त्री-विमर्श की कविता कहकर खारिज करते रहते हैं |यह मेरा अपना अनुभव है | प्राचीन काल में जिस तरह स्त्री-कवि पुरूष की विशेष कृपा पात्री होने पर ही सफलता का स्वाद चख पाती थी,कमोवेश आज भी वही हाल है|सामर्थवान पुरूष-चाहें वह पिता,पति,पुत्र हो,या मित्र,प्रेमी या खास आलोचक ,के बिना साहित्याकाश में दर्ज होना असम्भव तो नहीं ,पर कठिन अवश्य है | अधिकांश महिला साहित्यकार आज भूला दी जाती हैं |आशापूर्णा के शब्दों में कहें तो –‘स्मरण करने का दायित्व भी पुरूषों का ही है |उन्होंने ही तो समस्त साहित्य जगत पर कब्जा कर रखा है |जहाँ वे जिसे सुरक्षित रखना चाहेंगे,रखेंगे,जिसे फेंकना चाहेंगे,फेंक देंगे |’
निष्कर्ष यह कि जब तक पुरूष की स्त्री-दृष्टि उदार नहीं होगी और स्त्री आलोचकों की संख्या नहीं बढेगी,स्त्री-कविता की दुश्वारियां खत्म नहीं होगी |



मात्र फैशन नहीं है स्त्री -विमर्श



स्त्री विमर्श को मात्र फैशन या विदेश की नकल मानने वाले इतना तो जरूर जानते होंगे कि हिंदी कथा साहित्य के जन्म का कारण भी स्त्री विमर्श था |पंडित गौरीदत्त द्वारा रचित हिन्दी का पहला उपन्यास ‘देवरानी जेठानी की कहानी’[१८८७]इसका उदाहरण और हिन्दी की पहली कहानी लेखिका ‘बंग-महिला ‘इसका प्रमाण है |स्त्री-लेखन पर ‘सीमित दायरे’का आरोप लगाने वाले शायद स्त्री लेखन को दोयम दर्जे का मान कर पढ़ ही नहीं रहे ,वरना जान जाते कि स्त्री लेखन आज किसी भी मायने में पुरूष लेखन से कमतर नहीं |कहीं-कहीं तो वे उनसे भी अधिक सफल हैं जैसे घर-आँगन के कथ्यात्मक तथ्योदघाटन में|एक बात और आज लेखक जहाँ वैचारिक प्रतिबद्धता या बाजार के वशीभूत होकर सोद्देश्य विवाद-विसंवादी लेखन की ओर अग्रसर है,वहीं लेखिकाएं वर्जना मुक्त साहित्य रच रही हैं |
आज स्त्री सशक्तिकरण का युग है |स्त्री को सशक्त करने में स्त्री लेखन की बड़ी भूमिका है |इस समय स्त्री लेखन हर विधा में इतनी प्रचुरता से हो रहा है कि सबका उल्लेख मुश्किल काम है ,इसलिए स्त्री- लेखन की समवेत स्थापनाओं पर चर्चा करना चाहूँगी |आज का स्त्री –लेखन ना स्त्री पूजा के पक्ष में है न माडलिंग के |वह स्त्री को देवी नहीं मनुष्य मानने का पक्षधर है ,इसलिए चाहता है कि ना तो उसे सौभाग्यवती सुहागन कहो ना कुलटा |वह कन्या-जन्म पर शोक व कन्या भ्रूण हत्या का घोर विरोधी है और स्त्री को मनचाही व पूर्ण शिक्षा देने के पक्ष में है |वह चाहता है कि किराए की कोख का कारोबार बंद हो|स्त्री के विवाहोपरांत उपनाम परिवर्तन के विरोध के साथ ही उसकी यह भी चाहत है कि स्त्री के लिए पिता का घर छोड़ने की बाध्यता ना हो |’पति-परमेश्वर’की सोच की जगह ‘सह-अस्तित्व को’ महत्व मिले|
कुछ लेखिकाओं तो विवाह-व्यवस्था ,मातृत्व और पारिवारिक बन्धनों के विरोध के साथ ही अनब्याही मातृत्व की स्वीकृति भी चाहती हैं |कुछ एक कदम आगे बढकर मुक्त –यौन का समर्थन भी कर रही हैं |पर ज्यादातर लेखिकाएं पश्चिमी नहीं,बल्कि भारतीय सन्दर्भों में आधुनिकता की समर्थक हैं |
स्त्री छवि को खराब करने की कोशीश आज फ़िल्में,विज्ञापन व धारावाहिक कर रहे हैं ,स्त्री लेखन इसका भी विरोध कर रहा है |निजी सचिव और एअर होस्टेज में सिर्फ अविवाहित लड़कियों की नियुक्ति करने वाला कारपोरेट कल्चर भी उसके निशाने पर है |यहाँ तक कि हाल के क्लोनिंग व टेस्ट ट्यूब बेबी के पीछे की साजिश के प्रति भी स्त्री लेखन सावधान है |
स्त्री लेखन कहीं पुरूष सत्ता को चुनौती दे रहा है तो कहीं स्त्री शक्ति को उजागर कर रहा है |कहीं देह-शुद्धि के मिथक पर चोट कर रहा है तो कहीं स्त्री-पुरूष के भेद पर प्रकाश डाल रहा है |हर क्षेत्र,हर वर्ग की स्त्री की समस्या उसके सामने है | नारी मुक्ति,छात्रावास संवासिनियो. के अजनबीपन,यौन-मनोविज्ञान था यूनिसेक्स की समस्याओं पर साठ  के बाद से ही लिखा जाने लगा था |स्त्री का अस्तित्व-संघर्ष,मारवाड़ी समाज के विधि-निषेध,वर्जनाओं से मुक्ति सब पर उपन्यास लिखे गए |किशोर मनोविज्ञान हो या व्यक्तिवान स्त्री सब पर स्त्री कलम चली है |
दुःख की बात है सामान्य पुरूष तो छोड़ दें ,अधिकाँश बुद्धिजीवी और हमारे कई लेखक स्त्री विमर्श को पुरूष –विरोधी सोच और स्त्री लेखन को पुरूष –विरोधी लेखन मानकर बैठ गए हैं |वे इसी चश्में से उसे देख रहे हैं और मौक़ा मिलते ही उसे खारिज करने का प्रयास करते रहते हैं ,जबकि कहीं ना कहीं वे भी स्त्री को मानवीय अधिकार दिलाने के पक्षधर हैं और होंगे क्यों नहीं ?एक स्त्री से ही उनका अस्तित्व दुनिया में आया है और स्त्री के कारण ही उनकी दुनिया सुंदर बनी हुई है |स्त्री ना हो तो उनकी कलम ही रूक जाए |पर उनका अहं यह मानने को तैयार नहीं कि स्त्री अपने बारे में खुद फैसला करे |अब तक उन्होंने ही उसके नख-शिख का वर्णन किया ,उसके लिए सौंदर्य के मापदंड बनाए |यहाँ तक कि खुद ही फैसला करते रहे कि स्त्री क्या चाहती है ?अब स्त्री खुद बता रही है अपनी इच्छा ,अपनी चाहत|उसकी अपनी सोच है ,वाणी है ,सौंदर्य-दृष्टि है |यह आत्मनिर्भरता तो अच्छी बात है,इसका तो स्वागत किया जाना चाहिए |उसका सहयोग किया जाना चाहिए ,पर विरोध ही अधिक हो रहा है |अपने झूठे अहंकार को यदि पुरूष छोड़ दे,तो यह दुनिया कितनी लोकतांत्रिक और सुंदर हो जाए |पुरूष यह क्यों नहीं सोच पाता कि आज भी वही स्त्री की आँखों का सुंदर सपना है |उसका प्रेम स्त्री के लिए महत्व रखता है ,पर वह अपनी आजाद अस्मिता के साथ उसे पाना चाहती है |दो स्वतंत्र पंछियों का सम्वेद संचालित प्रेम कितना आह्लादकारी होता है |क्या पिंजरे में कैद परतंत्र पंछी ऐसा प्रेम कर सकते हैं ?एक स्त्री को अपने अहं के कोड़े से पीटकर वश में रखने वाला उसकी देह से बलात्कार भले कर ले ,उसका मानसिक प्रेम व आत्मिक सहयोग कभी नहीं पा सकता |बलात्कार सिर्फ देह का नहीं होता ,मन,भावनाओं,सपनों,कल्पनाओं का भी होता है और इस दृष्टि से देखे तो शायद ही कोई स्त्री मिले ,जिसके साथ कभी ना कभी इनमें से किसी एक भी स्तर पर बलात्कार ना हुआ हो |
मैं यह नहीं कहती कि पुरूष के साथ ऐसा नहीं होता |हिंसा और बलात्कार के शिकार पुरूष भी होते हैं |जो भी पुरूष कमजोर पड़ता है ,उसके साथ बुरा व्यवहार होता है ,पर यह करने वाला भी शक्तिशाली पुरूष ही अधिक होता है |यानी स्त्री और पुरूष [इसमें युवा ही नहीं बच्चे भी शामिल हैं ]दोनों से दुराचार या किसी भी किस्म की हिंसा  करने वाला पुरूष वर्चस्व ही है |तो स्पष्ट है स्त्री पुरूष आपस में नहीं ,यह ‘वर्चस्व’ ही समस्या की जड़ है और ये  जड़ हजारों वर्षों से पूरी सामाजिक व्यवस्था को मजबूती से अपने लपेटे में लिए हुए है |इसे काटने के लिए लिंग-भेद छोड़कर हमें एक साथ आगे बढ़ना होगा ,तभी आने वाली पीढ़ी को हम लोकतांत्रिक व्यवस्था दे पाएंगे |

Saturday 11 May 2013

माँ -एक दृष्टि


माँ.. कितना पवित्र शब्द है! कितना दैवीय !देव-दानव,मनुष्य किसका सिर नहीं झुकता इसके आगे |पशु-पक्षी भी माँ के महत्व को जानते हैं |भारतीय संस्कृति में तो माँ को पूजने की परम्परा है अतिथि और पिता के साथ ही ‘माँ देवो भव’भी इस देश में मान्य है |हम अपने देश को भारत माँ के नाम से पुकारते हैं और धरती को धरती माँ |सभी नदियाँ हमारी माँ हैं और सभी देवियाँ भी |वर्ष में कई बार हम दुर्गा,लक्ष्मी,सरस्वती इत्यादि नामों से माँ को ही तो पूजते हैं और उससे स्वास्थ्य,शक्ति,सम्पत्ति पाकर सुखमय जीवन गुजारते हैं |
पर क्या हम कभी सोचते हैं कि माँ भी एक स्त्री है ,मनुष्य है |उसमें भी मानवीय कमजोरियां हो सकती हैं |उससे भी गलती हो सकती है |शायद नहीं क्योंकि हमारे लिए माँ त्याग-तपस्या ,धैर्य की एक प्रतिमूर्ति हैं,देवी है |बच्चों के लिए ही जीती–मरतीएक ऐसी दिव्य स्त्री,जिसका अपना कोई सुख-दुःख नहीं |अलग और स्वतंत्र कोई व्यक्तित्व नहीं |माँ पढ़ी-लिखी हो ,यह कभी बहुत जरूरी नहीं माना गया,पर उसका गृह-कार्यकुशल होना जरूरी गुण है |सोचिए दूर रहने पर माँ की किस बात की याद आती है |निश्चित रूप से उसके हाथ के बनाए खाने की ,रात-रात भर जाग कर की जाने वाली सेवा की ,उसके त्याग-बलिदान की |ऐसा शायद ही हो कि हमें एक स्वतंत्र प्रतिभाशील ,व्यक्तित्वशाली ,आत्मनिर्भर स्त्री के रूप में माँ की याद आए | ज्यादातर उसका प्रथम रूप ही हमारे जीवन में ज्यादा जगह घेरता है |क्योंकि हमारे संस्कारों में ऐसी ही माँ की छवि है ,उससे इतर माँ हमें अच्छी नहीं लगती |माँ अगर पुरूषों के फिल्ड में पुरूष की तरह कार्य करती है और एक पारम्परिक माँ की तरह बेटे का ध्यान नहीं रख पाती,तो बेटा माँ को वह इज्जत नहीं दे पाता |भरसक तो वह चाहता ही नहीं कि माँ बाहरी दुनिया में काम करे |किसी विशेष परिस्थिति में ऐसा करना पड़ गया तो भी वह यह कहना नहीं भूलता कि ‘तुम मेरे आत्मनिर्भर होते ही काम छोड़ दोगी |’कोई भी बेटा यह नहीं कहता कि माँ तुम इतनी प्रतिभाशाली हो ,तो क्यों नहीं अपना एक स्वतंत्र व्यक्तित्व निर्मित करती ,जैसा कि पिता का है,जैसा कि मैं बनाने की प्रक्रिया में हूँ |कई स्त्रियाँ विवाह के बाद अपनी सारी प्रतिभा को गठरी में बाँधकर रख देती हैं कि अच्छी बहू,पत्नी और माँ बन सकें|यह त्याग ही उन्हें सम्मान दिलवाता है,जिस पर बेटा गर्व करता है [बेटियां अपवाद हैं,वे माँ की कद्र ज्यादा करती हैं,उसे समझती हैं ,शायद इसलिए कि वे भी भावी माँ हैं ]| प्राचीन भारत में तो स्त्री पिता,पति और बेटे के नाम से ही ज्यादा जानी जाती थी |आज भी गाँव-गिराव में ‘फलाने की महतारी’ ही कई स्त्रियों की पहचान है | साहित्य में भी इसका अपवाद नहीं |थेरी सुमंगला अपने पुत्र मंगल के नाम से जानी गई थी |एक माँ अपने बेटों से ज्यादा जुडी रहती है शायद इसी कारण हमारी संस्कृति में स्त्री को स्त्री होने का दंड पुत्र के द्वारा दिलवाने की भी परम्परा रही है |कुछ उदाहरण काफी होंगे | ऋषि जमदग्नि ने बेटे परशुराम को अपनी माँ का सिर काट लेने का आदेश दिया था,जबकि उसका कोई अपराध ना था | कोई राजा स्त्री पर आसक्त हो जाए तो क्या यह स्त्री का अपराध है ?क्या उसने उस पुरूष को लुभाया था या आमंत्रित किया था पर नहीं हमारे कई महान त्यागी,संयमी ,तपस्वी ऋषियों की पुरूष-कुंठा अक्सर उनपर हावी हो जाती रही है| ऋषि गौतम की कहानी भी इससे अलग नहीं |उन्होंने भी निर्दोष अहल्या का परित्याग इसी कुंठा के कारण किया |सबसे दुखद तो यह रहा कि  किया कि उनके पुत्र ने भी पिता के इस गलत निर्णय का विरोध नहीं किया ,जब कि वे महाविद्वानों में से एक थे |इससे यही साबित होता है कि पिता की आज्ञा के आगे माँ के जीवन का कोई मोल नहीं था |स्त्री की प्रतिभा तो और भी उसके जीवन का बवाल बनती रही है |इसका अच्छा उदाहरण रवना प्रसंग है |रवना भाष्काचार्य की पुत्री थी | उसकी जीभ काटने का आदेश उसके पति वराहमिहिर ने अपने बेटे को दिया था |रवना का अपराध बस इतना था कि वह पाटी गणित में निपुण थी और एक मुश्किल सवाल के हल कर देने पर राजा ने उन्हें राजकीय सम्मान देना चाहा था |पति को पत्नी का यह सम्मान हजम नहीं हुआ, उन्होंने पुत्र को आज्ञा दी कि माँ का जीभ काट लो|जीभ कटी और रवना की मृत्यु हो गयी |देश से एक प्रतिभा का अंत हो गया |किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा क्योंकि वह एक स्त्री की प्रतिभा थी,माँ की प्रतिभा थी | |मातृत्व के जिस प्रभामंडल के पीछे स्त्री महिमा मंडित दिखाई देती है,उसका खंडन इन्हीं उदाहरणों से हो जाता है |
भारतीय स्त्री की प्रतिभा की कद्र कभी नहीं थी |स्त्री का सम्मान बेटी ,माँ,पत्नी के रूप में ही हो सकता था ,वह भी तब ,जब वह अपने व्यक्तित्व को पति-पुत्र में पूरी तरह लय कर दे |इस ल्य के बाड़ भी बस नहीं था उसे हर पल अग्नि-परीक्षा के लिए भी तैयार रहना पड़ता था |अकारण भी सिर्फ पति के शक और कुंठा की वजह स्त्री को दण्डित किया जा सकता था|और इस काम को अक्सर पति पुत्र के सहयोग से संपन्न करता था |स्त्री पति से ज्यादा बुद्धिमती निकली तो शामत थी |ऊपर इसका उदाहरण दिया जा चुका है | इसके बावजूद भी प्राचीन काल से ही कुछ तेजस्विनी स्त्रियाँ होती रही हैं |साहित्य के क्षेत्र में भी थेरियों ने नया इतिहास रचा था |उनके साहित्य के माध्यम से स्त्री का सच सबके सामने आया |मध्यकाल में भी नव्य भारतीय भाषाओं में अनेक स्त्री –रचनाकार हुईं |मराठी में महदम्बा,तेलगू में मोल्ल,कन्नड़ में अक्कमहादेवी ,गुजराती,राजस्थानी और हिन्दी में मीरा और बंगाली में माधवीदासी तथा चन्द्रप्रभा इत्यादि |पर रचनाकार होने के बावजूद ये सभी स्त्रियाँ पीड़ित थीं ,दुखी थीं ,अतृप्त थीं |चाहें उन्होंने ब्राह्मण परिवार में जन्म लिया हो या समाज के निचले तबके में|उन्होंने हर तरह का अत्याचार झेला जिसका केन्द्र बिंदु ससुराल नाम का यातनाघर था |’[हिंदी साहित्य का आधा इतिहास-सुमन राजे ]एक बात इन सभी कवयित्रियों में लगभग समान था कि सबका बाल-विवाह हुआ था और उन्हें अपनी तरह  से बहुत संघर्ष करना पड़ा था| चाहे वह लल्ल हो या हब्बाखातुन या मीरा |विडम्बना यह कि कविता भी उन्हें मुक्त नहीं कर पा रही थी |उन्हें मुक्ति तब मिली ,जब वे धर्म की शरण गयीं |मीरा को तो धर्म का भी आश्रय नहीं मिला ,क्योंकि उसने तो धर्म-सत्ता के खिलाफ भी जंग छेड़ दी थी|एक बात और भी काबिलेगौर है कि भक्त या अन्य कवयित्रियों में कोई भी संतानवती नहीं थी |तो क्या यह मान लिया जाय कि संतान होने पर वे कविता का या धर्म का मार्ग नहीं चुन सकती थीं |माँ के दायित्व में ही उलझ कर रह जातीं या उन्हें धर्म भी स्वीकार नहीं करता |या फिर वे स्वेक्षा से पुत्र मोह में उसी विवाह- संस्था के यातनाघर में घुट के खत्म हो जातीं |आखिर क्यों एक माँ की प्रतिभा को निखरने का मौका नहीं मिलता ?क्यों वह पति-पुत्र की प्रतिभा निखारने की खाद बन जाती है ?क्यों उसके इसी त्यागमयी रूप को आदर के साथ याद किया जाता है ?आज भी उसके इसी रूप की चाहत है ?क्या पुत्र का फर्ज नहीं कि वह माँ को व्यक्ति बनने में साथ दे ,उसे प्रो त्साहित करे ,उसका संबल बने |सदियों पुरानी अवधारणा में कुछ नया जोड़े कि अगर पुरूष की सफलता के पीछे एक स्त्री होती है तो पुरूष भी स्त्री की सफलता के पीछे खड़ा होगा,भले ही स्त्री उसकी माँ ही क्यों न हो |आज भी अनेकानेक प्रतिभाशाली माओं की प्रतिभा सिर्फ रसोईघर तक सिमटी दिखाई देती है ,अब बेटों को आगे बढकर माँ का साथ देना होगा, तभी सदियों से माँ बनकर त्याग करने वाली स्त्री के कर्ज से वह मुक्त हो सकेगा |  

Saturday 20 April 2013

कैसी मानसिकता


स्त्री-अरे वाह,आप भी फेसबुक पर आ गए ,अच्छा लगा |
पुरूष-हाँ ,बड़ी मुश्किल से सिखा है बेटी से |
स्त्री-क्या यह पहले आपकी बेटी का एकाउंट था ?
पुरूष-नहीं तो क्यों ?
स्त्री-मैं तो यही समझी थी,क्योंकि आपकी फ्रेंड-लिस्ट में बेटी की सहेलियाँ ज्यादा लग रही हैं |
पुरूष -अरे नहीं पता नहीं लड़कियां क्यों फ्रेंड बन रही हैं ?
स्त्री -आपने अपना फोटो क्यों नहीं लगाया है ?
पुरूष[शर्माते हुए ]मेरी उम्र और गंजे सिर को देखकर लडकियाँ भाग गईं तो .. |
अब स्त्री को शर्म आ रही थी |

Wednesday 20 March 2013

दूसरी औरत


 यह सच है कि दूसरी औरत को भारतीय समाज ने अभी तक मान्यता नहीं दी है,फिर भी दूसरी स्त्री सदियों से समाज का हिस्सा रही है |साहित्य,संगीत,कला,फिल्म जैसे क्षेत्रों में तो कई ऐसे पुरूष-नाम हैं ,जिनके जीवन में दूसरी स्त्री की महत्वपूर्ण भूमिका रही है|उन स्त्रियों ने इस कहावत को चरितार्थ किया हैं कि ‘हर महान व्यक्ति के पीछे एक स्त्री होती है ‘|वे स्त्रियाँ विवाहित पुरूष से रिश्ते का आधार भावनात्मक लगाव,जुड़ाव,आपसी समझ और साझेदारी बताती हैं और कतई शर्मिंदा नहीं हैं कि समाज उन्हें क्या कहता है ?उनका मानना है कि ‘सही अर्थों में वे ही पुरूष की काम्य स्त्रियाँ हैं और उनको पाना पुरूष का अधिकार है | आज का पुरूष दिमाग संचालित है|आदम काल के पुरूष की तरह सिर्फ देह संचालित नहीं,इसलिए वह पारिवारिक रूढ़ि और दबाव के चलते जबरन मढ़ दी गई पहली स्त्री से बंध कर नहीं रह सकता |मानसिक भूख के कारण ही वह दूसरी स्त्री की तलाश में रहता है |सात फेरे लेने मात्र से किसी स्त्री को पुरूष का एकनिष्ठ प्रेम नहीं मिल सकता |मानसिक गठबन्धन भी जरूरी है |आज का बौद्धिक पुरूष मानासिक अर्धांगिनी की चाहत रखता है,तो यह गलत नहीं है |’उनकी बात की पुष्टि एक शोध ने भी की पुरूष शारीरिक सौंदर्य से ज्यादा स्त्री की बौद्धिकता से प्रभावित होता है |[राष्ट्रीय सहारा,सितम्बर,२०१२]
पर हर दूसरी स्त्री ऐसी बात नहीं कहती है |ज्यादातर तो कुछ समय बाद ही खुद को शोषित मानकर पछताने लगती हैं|आर्थिक रूप से स्वनिर्भर होने के बाद भी वे संतुष्ट नहीं होतीं|वे कहती हैं कि दूसरी औरत बनना औरत के शोषण और भुलाओं का दुष्चक्र होता है|
पुरूष के विवाहेतर सम्बन्ध कोई नयी बात नहीं है|प्राचीन काल से यह परम्परा में रही है |राजाओं,सामंतों,बादशाहों के ही नहीं ,सामान्य पुरूषों के लिए भी बहुविवाह या अधिक स्त्री से सम्बन्ध होते थे |हाँ,स्त्री के संबंध में जरूर कड़े नियम थे |पर ऐसा नहीं था कि स्त्रियों के पर-पुरूषों से संबंध नहीं होते थे |सूरदास ने परकीया’ को स्वकीया से ज्यादा आकर्षण युक्त बताकर यह सिद्ध कर दिया कि प्रेम में विवाह बाधक नहीं है |प्रेम एक आदिम संवेग है |वह कभी,कहीं और किसी से भी हो सकता है |दिक्कत तब आती है,जब प्रेम स्वार्थ-केंद्रित हो जाता है |प्राचीन काल में पति पर पूर्णतया आश्रित होने के कारण पहली स्त्री पुरूष के अन्य स्त्रियों से रिश्ते को स्वीकारने को विवश हो जाती थी,पर आज स्त्री विवश नहीं है ,पुरूष पर उस हद तक निर्भर भी नहीं है |देश के क़ानून ने उसे कई ऐसे अधिकार दे रखे हैं कि वह अपने पति के मनमाने रिश्तों पर प्रतिबंध लगा सकती है |आज वह पति का प्यार किसी के साथ बाँटने को तैयार नहीं है |पति के जीवन में दूसरी स्त्री को वह देखना भी नहीं चाहती ,फिर भी पुरूष दूसरी स्त्री से गुप्त-सम्बन्ध रखते हैं |जब यह भेद खुलता है,तो वह आग-बबूला हो जाती है |पति का तो वह कुछ बिगाड़ नहीं पाती,पर दूसरी औरत की दुश्मन बन जाती है |वह उसकी हत्या का षड्यंत्र तक रच डालती है |या फिर साम-दंड-भेद की नीति पर चल कर पति को वापस लौटा लाती है |मधुमिता की हत्या का षड्यंत्र रचा गया,तो फिजा के चाँद को लौटा लिया गया |दोनों ही स्थितियों में स्त्रियाँ ही एक-दूसरी की शत्रु बनीं,पर इसके पीछे कौन था?पुरूष ही न!यही पुरूष की रणनीति है |आनंद वह उठाता है और दंड स्त्री भुगतती है |स्त्री पहली हो या दूसरी दोनों इस तनाव में जीती हैं कि पुरूष उसका नहीं है |वह कभी भी किसी दूसरी के पास जा सकता है |
प्रश्न उठता है कि पहली स्त्री तो सामाजिक परम्परा में बंधकर पुरूष के जीवन में आई है,दूसरी स्त्री क्यों किसी विवाहित पुरूष को चुनती है ?पुरूष का क्या वह तो हर सुंदर स्त्री के लिए ललकता है |इस प्रश्न का उत्तर भी पुरूष-प्रधान व्यवस्था में है |यह व्यवस्था स्त्री को अपने सपने पूरा करने का सीधा रास्ता नहीं देती | ऐसी अवस्था में वह मजबूत पुरूष कंधे का सहारा ले बैठती है|कभी-कभी ही ऐसा होता है कि स्त्री पुरूष में स्वाभाविक प्रेम पनप गया हो या पुरूष ने स्त्री को किसी वजह से मजबूर किया हो |अक्सर दोनों अपनी जरूरत से एक-दूसरे से जुड़ते हैं | वैसे ऐसे रिश्ते के पीछे यौन का आकर्षण भी एक बड़ा कारण है |अभी कुछ दिन पहले लन्दन में हुए एक शोध में कहा गया कि पुरूषों की स्त्रियों के साथ दोस्ती सिर्फ यौनाकर्षण के कारण ही होती है | अकेली,बड़ी उम्र तक अविवाहित,परित्यक्ता,विधवा ,आश्रय-हीन,परिवार से उपेक्षित स्त्रियाँ भी ऐसा कदम उठा लेती हैं | साथ-साथ काम करने वाले स्त्री-पुरूष के बीच भी अंतरंग रिश्ते बन जाते है | रिश्ते बन जाने के बाद दूसरी स्त्री को महसूस होता है कि उसके भीतर के दादी-परदादी वाले संस्कार अभी मरे नहीं हैं और भारतीय समाज अभी इतना आजाद-ख्याल नहीं हुआ कि अवैध रिश्तों को आसानी से स्वीकार कर ले |तब उसकी महत्वाकांक्षा भी उसके अंदर की आदिम स्त्री के आगे हार जाती है और वह पारम्परिक पत्नी और माँ बनने के लिए छटपटाने लगती है |ऐसी मन:स्थिति में वह प्रेमी-पुरूष पर दबाव बनाने लगती है |वह भूल जाती है कि रिश्ते बनाते समय उसने सामाजिक मर्यादा की शर्त नहीं रखी थी |वह तो खुद इस रिश्ते को सबसे छिपाती थी |जब उसने पहले पत्नी और माँ का अधिकार नहीं चाहा था ,फिर यह सब उसे कैसे मिले ?पुरूष उसे यह दे ही नहीं सकता |यह सब तो उसके पास पहले से ही होता है,पूरी सामाजिक मान्यता व प्रतिष्ठा के साथ |दूसरी स्त्री यह भी भूल जाती है कि अगर पुरूष उसे यह सब देगा,तो पहली स्त्री के जायज हक मारे जाएंगे |एक स्त्री की बर्बादी पर दूसरी स्त्री अपना घर कैसे आबाद कर सकती है ?रहा पुरूष तो वह यौनाकर्षण में दूसरी स्त्री को अतिरिक्त आत्मविश्वास से भर देता  है | वह भूल जाता है कि यह बस नवीनता का आकर्षण है ,जो जल्द ही अपनी चमक खो बैठेगा और यही होता है दूसरी स्त्री को देह-स्तर पर हासिल करते ही उसका नशा हिरन हो जाता है |उसे लगने लगता है कि देह के स्तर पर हर स्त्री एक जैसी ही होती है |अब उसे दूसरी स्त्री के लिए अपना सब-कुछ दाँव पर लगाना मूर्खतापूर्ण कदम लगता है और वह बदलने लगता है | चाँद के साथ अलगाव के दिनों में फिजा ने कई बार यह बात कही कि चाँद ने उसके साथ धोखा किया है और उसकी घनिष्टता और संसर्ग पाने के लिए विवाह का ढोंग रचाया था |पुरूष के इस बदलाव को जब दूसरी स्त्री नहीं सह कर पाती तब वह उससे छुटकारे के लिए गर्हित कदम तक उठा  लेता है |फंसने के बाद वह वापस पहली स्त्री की शरण में आ जाता है ,जो अपने बच्चों,परिवार,समाज व अपनी पराश्रयता के कारण खून का घूँट पीकर भी उसे क्षमा कर देती है |पुरूष भी सारा दोष दूसरी स्त्री पर डालकर सबकी सहानुभूति हासिल कर लेता है| मारी जाती है तो दूसरी स्त्री |एक तो वह पुरूष के प्रेम से वंचित हो जाती  है ,दूसरे समाज भी उसे क्षमा नहीं करता | कहीं ना कहीं उसके मन में भी यह अपराध-बोध होता है कि उसने एक स्त्री का हक छीना था |इन सारी विसंगतियों के कारण वह टूटने लगती है | यह कहा जाता है कि महत्वाकांक्षी स्त्री ही दुर्दशा को प्राप्त होती है पर यह सच नहीं है | अनुराधा बाली तो आर्थिक या किसी भी रूप से कमजोर नहीं थी फिर क्यों हुआ उसका ऐसा अंत?अक्सर दूसरी स्त्री का अकेलापन उसपर इतना हॉवी हो जाता है कि वह मृत्यु को गले लगा लेती है ?मर्लिन मुनरो ,जिसको लाखो चाहने वाले थे,अपने सुसाइड नोट में लिखती है कि-मैं एक ऐसी बच्ची की तरह हूँ ,जिसे कोई प्यार नहीं करता| | परवीन बॉबी हो या मधुमिता,फिजा या कोई और दूसरी स्त्री होने की पीड़ा ही इनका नसीब बना |
ऐसा नहीं कि पहली स्त्री बहुत सुखी होती है |उसे भी हर पल यह कचोटता रहता है कि उसके पति ने उसके स्त्रीत्व का अपमान किया , पर वह पति-त्याग का साहस नहीं जुटा पाती और ना ही हत्या या आत्महत्या उसका विकल्प बनता है क्योंकि उसपर बच्चों,परिवार,रिश्तों और समाज की जिम्मेदारियां दबाव बनाती हैं और उसका सहारा भी बनती हैं | कुछ विद्रोह करती हैं,तो अपना घर तबाह कर लेती हैं |डायना का जीवन इसका उदाहरण है |अपने विवाह की पार्टी में पति की प्रेमिका कैमिला पार्कर को देखकर उसके सपनों को जबरदस्त ठेस लगी | |डायना नौकरानी से ब्रिटेन के शाही परिवार की बहू बनकर भी खुश नहीं रह सकी क्योंकि उसे पति का ध्यान व प्यार नहीं मिला |उसने दो बार आत्महत्या की कोशिश भी की और अंतत:पति से अलग हो गई |कोई भी सम्वेदनशील स्त्री अपने प्यार को किसी दूसरी स्त्री से बाँट नहीं सकती|
फिर भी ऐसे रिश्ते बनते रहे हैं और बनते रहेंगे | सोचना दूसरी स्त्री को ही होगा कि क्या वह  अपने पुरूष के साथ निरपेक्ष सखी-भाव से खड़ी होकर स्त्री की पहचान और अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ सकती है ?क्योंकि उसके समर्पित संघर्ष की कद्र यह समाज तो शायद ही करे | दूसरी स्त्री के लिए आत्मनिर्भरता भी एक जरूरी शर्त है,वरना उसका रिश्ता साधारण स्त्री-पुरूष के रिश्ते में बदलकर अपनी सुंदरता खो सकता है |आत्मनिर्भर स्त्री ही बिना कुंठित हुए तीव्रता और साहस के साथ समाज की बंद कोठरियों की अर्गलाएँ अपने लिए खोल सकती है |दूसरी स्त्री को कुछ पाने के लिए एडजस्टमेंट की भी जरूरत होगी ,क्यों कि पुरूष द्वारा प्रदत्त बराबरी तब तक उसकी अपनी नहीं हो सकती,जब तक वह उसे अपने भीतर पैदाकर जीने की कोशिश नहीं करेगी |निश्चित रूप से दूसरी स्त्री के सामने कड़ी चुनौतियाँ हैं |मुझे तो लगता है स्त्री को पुरूष की स्त्री बनने के बजाय पहले सिर्फ स्त्री बनना चाहिए|एक पूर्ण,आत्मनिर्भर,स्वाभिमानी स्त्री ,तभी वह कठपुतलीपन से छुटकारा पा समाज से अपने अधिकार पा सकेगी ,फिर वह पुरूष के साथ किसी भी नम्बर के बगैर एक स्त्री के रूप में साझीदार हो सकती है |सच यह भी है कि पहली स्त्री को पछाड़कर दूसरी स्त्री कभी पुरूष से बराबरी का हक नहीं हासिल कर सकती |आखिर औरत की लड़ाई औरत से क्यों हो ?असल लड़ाई तो पुरूष से है |औरतें पुरूष की वजह से एक-दूसरे की शत्रु हो जाती हैं |स्त्री अपनी स्वतंत्र सत्ता तब तक नहीं खोज सकती,जब तक वह समाज में किसी पुरूष के सहारे भावनात्मक सुरक्षा ,सच्चरित्रता,मान-प्रतिष्ठा या अर्थ के लिए निर्भर रहेगी |’निर्भरता उसे पुरूष का गुलाम बना देती है |पुरूष स्वयं तो यौन सम्बन्धों के प्रति ईमानदारी नहीं बरतता है पर बड़ी आसानी से अपने लिए दूसरी स्त्री की व्यवस्था कर लेता है |वह दूसरी स्त्री से तो अपने लिए निष्ठा चाहता है,पर खुद अराजक बना रहता है ,यही बात चिंतनीय और निंदनीय है|

Tuesday 19 March 2013

दो लघु-कथाएँ



१--
बकरीद करीब होने से मंडी में बकरों  की भरमार थी|कई तरह के बकरे थे |दुबले,भरे और तगड़े |कद में भी सबके कुछ अंतर था |लोग अपने सामर्थ्य के अनुसार बकरों का मोल-भाव कर रहे थे |गरीब मुसलमानों की नजर तगड़े बकरों पर पड़ती थी ,पर मन मसोस कर रह जाते थे |कुछ बकरे तो बकरों के राजा से थे |अलग ही दीखते थे |उनके मालिक बता रहे थे कि किस तरह उनकों विशेष देखभाल कर पाला था |खाने के लिए महँगी चींजे दी थीं|सारे बकरे मिमियाँ रहे थे |किंग बकरों की आवाज सबसे तेज थी |मैं उनका चीत्कार साफ़ सुन रही थी |वे इसलिए दुखी थे कि जिन्हें वे अपने आका समझ रहे थे ,वे उन्हें मंडी बेचने के लिए लाए थे |
२-
दो सहेलियां थीं|साथ पढ़ी-लिखीं,खेलीं-कूदीं |काफी समानताएँ थीं दोनों में,पर बाद में दोनों में काफी अंतर आ गया |एक की शादी हो गई,दूसरी की नहीं हुई |जिसकी नहीं हुई ,वह दुखी थी,उदास थी |समाज की तिरछी निगाहें उस पर पड़ रही थीं,पर उसे नींद खूब आती और जाहिर है कि नींद आएगी,तो उसमें सपने भी होंगे |सपनों में एक राजकुमार होता,जो उसे प्यार करता,पर यथार्थ में यह सच नहीं था,इसलिए वह परेशान थी |परेशान शादीशुदा लड़की भी थी|उसके राजकुमार ने उसे धोखा दे दिया था |वह बड़े बंधन में थी और सारे बंधन उसके राजकुमार की वजह से थे |उसे लड़की राजकुमारी नहीं लगती थी,और नौकरानी की तरफ काम नहीं करती थी |वह नौकरी तो करती ,पर वेतन राजकुमार को देते समय रूक-रूक जाती थी |राजकुमार की सबसे बड़ी शिकायत यह थी कि वह सोचती भी थी और उसे सोचने वाली स्त्री पसंद नहीं थी |दोनों सहेलियां एक दिन मिलीं और एक-दूसरे के दुःख-तकलीफ से परिचित हुईं |वे समझ नहीं पा रहीं थीं कि किसकी दशा को अच्छा कहें ?एक के पास नींद थीं,सपने थे,पर रात भर के,दिन जानलेवा था |दूसरी को ना नींद आती थी,ना सपने|दोनों ने कुछ फैसला किया और बिना किसी को खबर किए एक अनजान शहर में जा बसीं |दूसरे दिन उनके शहर में प्रचार था कि वे समलिंगी थीं,कहीं भाग गईं | 

Thursday 14 March 2013

दूसरी औरत



 यह सच है कि दूसरी औरत को भारतीय समाज ने अभी तक मान्यता नहीं दी है,फिर भी दूसरी स्त्री सदियों से समाज का हिस्सा रही है |साहित्य,संगीत,कला,फिल्म जैसे क्षेत्रों में कई ऐसे नाम हैं ,जिनके जीवन में इस दूसरी स्त्री की महत्वपूर्ण भूमिका रही है|वे स्त्रियां इस कहावत को चरितार्थ करती हैं कि ‘हर महान व्यक्ति के पीछे एक स्त्री होती है ‘|वे अपने भावनात्मक लगाव,जुड़ाव,आपसी समझ और साझेदारी को अपने रिश्ते का आधार बताती हैं और कतई शर्मिंदा नहीं हैं कि समाज उन्हें क्या कहता है ?उनका मानना है कि सही अर्थों में वे ही वह स्त्रियाँ हैं ,जिसकी कामना पुरूष को है और जिसको पाना उसका अधिकार भी है |आदिम युग का पुरूष देह संचालित था और आज का दिमाग संचालित|फिर कैसे वह पारिवारिक रूढ़ि और दबाव के चलते जबरन मढ़ दी गई पहली स्त्री से बंध कर रहे |मानसिक भूख के कारण ही वह दूसरी स्त्री की तलाश में रहता है |सात फेरे लेने मात्र से किसी स्त्री को पुरूष का एकनिष्ठ प्रेम नहीं मिल सकता |मानसिक गठबन्धन भी जरूरू है |आज का बौद्धिक पुरूष मानासिक  अर्धांगिनी की चाहत रखता है,तो यह गलत नहीं है |पिछले वर्ष एक शोध में आया था कि पुरूष शारीरिक सौंदर्य से ज्यादा स्त्री की बौद्धिकता से प्रभावित होता है ‘[राष्ट्रीय सहारा,सितम्बर,२०१२]
प्रश्न यह है कि क्या हर दूसरी स्त्री अपने पुरूष के साथ निरपेक्ष सखी-भाव से खड़ी होकर स्त्री की पहचान और अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ सकती है |उसके समर्पित संघर्ष की कद्र क्या यह समाज करेगा ?दूसरी स्त्री के लिए आत्मनिर्भरता भी एक जरूरी शर्त है,वरना उसका रिश्ता साधारण स्त्री-पुरूष के रिश्ते में बदलकर अपनी सुंदरता खो सकता है |आत्मनिर्भर स्त्री ही बिना कुंठित हुए तीव्रता और साहस के साथ समाज की बंद कोठरियों की अर्गलाएँ अपने लिए खोल सकती है |दूसरी स्त्री को कुछ पाने के लिए एडजस्टमेंट की भी जरूरत होती है,क्यों कि पुरूष द्वारा प्रदत्त बराबरी तबतक उसकी अपनी नहीं हो सकती,जब तक वह उसे अपने भीतर पैदाकर जीने की कोशिश नहीं करेगी |निश्चित रूप से दूसरी स्त्री के सामने कड़ी चुनौतियाँ होती हैं |कुछ स्त्रियों को दूसरी स्त्री बनकर पूर्णता का बोध होता है |पर इनका प्रतिशत कम ही है,ज्यादातर तो कुछ समय बाद ही खुद को शोषित मानकर पछताने लगती हैं |आर्थिक रूप से स्वनिर्भर होने के बाद भी वे संतुष्ट नहीं होतीं|वे कहती हैं कि दूसरी औरत बनना औरत के शोषण और भुलाओं का दुष्चक्र होता है|स्त्री को पुरूष की स्त्री बनने के बजाय पहले सिर्फ स्त्री बनना चाहिए|एक पूर्ण,आत्मनिर्भर,स्वाभिमानी स्त्री ,तभी वह कठपुतलीपन से छुटकारा पा समाज से अपने अधिकार पा सकती है ,फिर वह पुरूष के साथ किसी भी नम्बर के बगैर एक स्त्री के रूप में साझीदार हो सकती है |सच यह भी है कि पहली स्त्री को पछाड़कर दूसरी स्त्री कभी पुरूष से बराबरी का हक नहीं हासिल कर सकती |आखिर औरत की लड़ाई औरत से क्यों हो ?असल लड़ाई तो पुरूष से है |औरतें पुरूष की वजह से एक-दूसरे की शत्रु हो जाती हैं |स्त्री अपनी स्वतंत्र सत्ता तब तक नहीं खोज सकती,जब तक वह समाज में किसी पुरूष के सहारे भावनात्मक सुरक्षा ,सच्चरित्रता,मान-प्रतिष्ठा या अर्थ के लिए निर्भर रहेगी |’निर्भरता उसे पुरूष का गुलाम बना देती है |पुरूष स्वयं तो यौन सम्बन्धों के प्रति ईमानदारी नहीं बरतेगा,पर बड़ी आसानी से अपने लिए दूसरी स्त्री की व्यवस्था कर लेगा |वह दूसरी स्त्री से तो अपने लिए निष्ठा चाहता  है,पर खुद अराजक बना रहता है ,यही बात चिंतनीय और निंदनीय है
अनुराधा बाली उर्फ फिजा के दुखद अंत ने मुझे एक त्रिकोण में फंसा दिया है |पहली और दूसरी स्त्री और उनके बीच उलझा हुआ एक पुरूष |दोषी कौन है,इस पर अलग-अलग राय हो सकती है,पर इनमें ज्यादा सजा तो दूसरी स्त्री ही पाती है |मर्लिन मुनरो,स्मिता पाटिल,परवीन बॉबी,सिल्क स्मिता,मधुमिता,अनुराधा जैसी अनगिनत स्त्रियों ने दूसरी स्त्री होने की सजा पाई है | आर्थिक,सामाजिक,राजनीतिक,शैक्षिक व यश-प्रतिष्ठा किसी भी दृष्टि ये कमजोर स्त्रियाँ नहीं थीं,फिर वे क्यों विवाहित पुरूषों के प्रेम में पड़ गईं ?क्या पुरूषों ने उन्हें फँसाया,या उन्होंने पुरूषों को फंसाया ?क्या पहली स्त्री भी इसकी जिम्मेदार है ?रिश्ते क्या सोच-समझकर बनाए जाते हैं ?क्या इसके पीछे सिर्फ चालाकी,बदनियति,साजिश या हवस मात्र होती है या फिर और भी कारण होते हैं |कई बार इस बात पर विचार किया है,और थक-हारकर इस पर सोचना बंद कर दिया है |
पर अनुराधा की विकृत लाश देखकर फिर एक बार उलझ गयी हूँ |इस बार एक नया विचार मन को मथ रहा है कि ऐसे रिश्तों की शुरूवात में हर बार कोई चालाकी हो,ऐसा जरूरी नहीं होता,फिर क्यों बाद में उसमें खोट आ जाता है |पुरूष सोचने लगता है इस स्त्री को सब-कुछ तो दे रहा हूँ ,फिर क्यों यह मेरी पत्नी बनकर समाज में साथ चलना चाहती है?क्यों माँ बनना चाहती है ?यह तो शुरू से जानती थी कि मेरी चाहत की एक सीमा है |मैं अपना परिवार,पद-प्रतिष्ठा इस चाहत के लिए बर्बाद नहीं कर सकता |जबकि दूसरी स्त्री सोचती है कि जब मैं पत्नी जैसा प्यार व समर्पण इन्हें दे रही हूँ,तो क्यों नहीं इनकी पत्नी बनकर साथ चलूँ ,मातृत्व का सुख प्राप्त करूँ |इस तरह रहना अपमानजनक है,क्योंकि इस तरह रहने वाली स्त्री को रखी हुई यानी रखैल कहा जाता है |दुनिया की कोई भी स्त्री खुद को इस शब्द से संबोधित किया जाना पसंद नहीं करती |दूसरी स्त्री और पुरूष के विचारों में यह अंतर,यह विरोधाभास दोनों के बीच दूरियाँ पैदा करने लगता है ,जिसका अंत हत्या-आत्महत्या में होता है|चूँकि समाज में स्त्री आज भी दोयम दर्जे पर है और ऐसे सम्बन्ध रखने वाली स्त्री को कोई भी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता,इसलिए स्त्री ही असामयिक मृत्यु का ग्रास बनती है |अधिकार की माँग मौत का पैगाम बन जाती है |
पुरूष के विवाहेतर सम्बन्ध कोई नयी बात नहीं है|प्राचीन काल से यह परम्परा में रही है |राजाओं,सामंतों,बादशाहों के ही नहीं ,सामान्य पुरूषों के लिए भी बहुविवाह या अधिक स्त्री से सम्बन्ध सामान्य बात मानी जाती थी |हाँ,स्त्री के संबंध में जरूर कड़े नियम थे |पर ऐसा नहीं था कि स्त्रियों के पर-पुरूषों से संबंध नहीं होते थे |सूरदास ने परकिया’ को स्वकीया से ज्यादा आकर्षण युक्त बताकर यह सिद्ध कर दिया कि प्रेम में विवाह बाधक नहीं है |प्रेम एक आदिम संवेग है |वह कभी,कहीं और किसी से भी हो सकता है |दिक्कत तब आती है,जब प्रेम स्वार्थ-केंद्रित हो जाता है |प्राचीन काल में पति पर पूर्णतया आश्रित होने के कारण पत्नियाँ पुरूष के अन्य स्त्रियों से रिश्ते को स्वीकारने को विवश हो जाती थीं ,पर आज स्त्री विवश नहीं है ,पुरूष पर उस हद तक निर्भर भी नहीं है |देश के क़ानून ने उसे कई ऐसे अधिकार दे रखे हैं कि वह अपने पति के मनमाने रिश्तों पर प्रतिबंध लगा सकती है |आज वह पति का प्यार किसी के साथ बाँटने को तैयार नहीं है |पति के जीवन में दूसरी स्त्री को वह देखना भी नहीं चाहती |फिर भी पुरूष दूसरी स्त्री से सम्बन्ध रखते हैं,पर उसे छिपा कर रखते हैं |अगर किसी लापरवाही की वजह से पत्नी पर यह भेद खुल जाता है,तो वह आग-बबूला हो जाती है |पति का तो वह कुछ बिगाड़ नहीं पाती,पर दूसरी औरत की दुश्मन बन जाती है |वह उसकी हत्या का षड्यंत्र तक रच डालती है |या फिर साम-दंड-भेद की नीति पर चल कर पति को वापस लौटा लाती है |मधुमिता की हत्या का षड्यंत्र रचा गया,तो फिजा के चाँद को लौटा लिया गया |दोनों ही स्थितियों में स्त्रियाँ ही एक-दूसरी की शत्रु बनीं,पर इसके पीछे कौन था?पुरूष ही न!यही पुरूष की रणनीति है |आनंद वह उठाता है और दंड स्त्री भुगतती है |स्त्री पहली हो या दूसरी दोनों इस तनाव में जीती हैं कि पुरूष उसका नहीं है |वह कभी भी कहीं भी जा सकता है |
प्रश्न उठाता है कि पहली स्त्री तो सामाजिक परम्परा में बंधकर पुरूष के जीवन में आई है,दूसरी स्त्री क्यों किसी विवाहित पुरूष को चुनती है |पुरूष का क्या वह तो हर सुंदर स्त्री के लिए ललकता है |इस प्रश्न का उत्तर भी पुरूष-प्रधान व्यवस्था में है |यह व्यवस्था स्त्री को अपने सपने पूरा करने का सीधा रास्ता नहीं देती |अगर स्त्री के पास अपने मजबूत सहारे हों ,तो उसके सपने पराए समर्थ पुरूषों के मुहताज न हों |स्त्री की महत्वाकांक्षा अक्सर ऐसी अवस्था में पराए पुरूष कंधे का सहारा ले लेती है,क्योंकि वे पुरूष अक्सर सत्ता पर काबिज होते हैं |पर ऐसे पुरूष बिना मूल्य लिए सहारा नहीं देते |चूँकि स्त्री के पास अपनी देह से मूल्यवान कुछ नहीं ,इसलिए वह उसे ही समर्पित कर देती है |इसमें कोई जबरदस्ती नहीं होती |स्त्री अपनी इच्छा से विवाहित पुरूष से रिश्ता बनाती है,अपने सपने,महत्वाकांक्षाएं पूरी करने के लिए |बहुत कम ऐसा होता है कि स्त्री पुरूष में स्वाभाविक प्रेम पनप गया हो या पुरूष ने स्त्री को किसी वजह से मजबूर किया हो |दोनों अपनी जरूरत से एक-दूसरे से जुड़ते हैं |तन-मन से अकेली,बड़ी उम्र की अविवाहित,परित्यक्ता,विधवा या सुख-सुविधापूर्ण जीवन की चाहत रखने वाली या अपने भरण-पोषण में असमर्थ स्त्रियाँ ऐसा कदम उठा लेती हैं |कई बार परिवार-समाज की उपेक्षा भी इसकी  वजह होती है | साथ-साथ काम करते ,उठते-बैठते,आपस में सुख-दुःख बाँटते स्त्री-पुरूष के बीच भी कभी –कभी सहानुभूतिपूर्ण लगाव पनप जाता है,जो आगे बढकर अंतरंग रिश्ते में बदल जाता है|इसके लिए किसी एक को दोषी या किसी को भी दोषी नहीं ठहराया जा सकता |स्थितियां,परिस्थितियाँ ही इसकी जिम्मेदार होती हैं |रिश्ते बन जाने के बाद ही स्त्री की महत्वाकांक्षाएं सिर उठाती हैं और पुरूष की जरूरतें |शुरू में तो दोनों ही इस रिश्ते को छिपाते हैं ,पर बाद में यह छिपाव स्त्री को खलने लगता है|वह अधिकार की माँग करने लगती है और यहीं से उनके रिश्ते में खटास आनी शुरू हो जाती है |पुरूष अपनी सत्ता और प्रतिष्ठा नहीं खोना चाहता और स्त्री अपना जायज हक| वैसे ऐसे रिश्ते के पीछे यौन का आकर्षण भी एक बड़ा कारण है |अभी कुछ दिन पहले लन्दन में हुए एक शोध में कहा गया कि पुरूषों की स्त्रियों के साथ दोस्ती सिर्फ यौनाकर्षण के कारण ही होती है |यौनाकर्षण में पुरूष दूसरी स्त्री को इतना समर्पित हो जाता है कि वह इस भ्रम में पड़ जाती है कि पुरूष सिर्फ उसका होकर रहेगा |इसी कारण वह अतिरिक्त आत्मविश्वास में भरकर यहाँ तक सोचने लगती है कि वह पहली स्त्री से ज्यादा रूपवती,युवा,गुणी व बुद्धिमती है,तभी तो पुरूष उसकी तरफ झुक गया |अपने आकर्षक व्यक्तित्व व काबिलियत पर वह फूली नहीं समाती |वह अपने संबंध को न्यायोचित ठहराती है और पहली स्त्री की कमियों को गिनाती है |वह अभिमान में भरकर कहती है कि ‘पहली स्त्री ने इतना स्पेस छोड़ा था ,तभी तो वह उसमें समा गई |’पुरूष भी जी भर कर पहली स्त्री की बुराई करता है |उसे उसमें खोट ही खोट नजर आती है |पहली स्त्री अक्सर अशिक्षित .शक्की,नाकाबिल,अनाकर्षक ,घरेलू व गंवार बना दी जाती है|कई बड़े विद्वान भी सभा-समाज में अकेले आने की सफाई में कहते हैं कि-काश,वे इस काबिल होतीं या विदुषी होतीं |वे भूल जाते हैं कि यह वही पहली स्त्री है,जिसके चरणों में कभी वे लोट-पोट होते रहे थे |जिसके साथ मधुर क्षण बिताए,बच्चे पैदा किए |जिसके कारण घर घर बना,रिश्तेदारों,और समाज में उनका गौरव बढ़ा |जिसके कारण वे घरेलू व सामाजिक जिम्मेदारियों से बेफिक्र होकर अपने कैरियर को संभाल सके |देश-दुनिया में भ्रमण कर सके |वह घर की नींव बनी स्त्री जरा सी हिल जाए,तो उनका सारा व्यक्तित्व धाराशाही हो जाए |जिसकी वजह से वे घर में पका-पकाया बढ़िया भोजन,आरामदायक बिस्तर और सारी सुख-सुविधा भोगते हैं ,संतति-सुख पाते हैं |उसी की उपेक्षा करते उन्हें जरा भी शर्म नहीं आती |वे दूसरी स्त्री में सुख तलाशते हैं,वे भूल जाते हैं कि यह बस नवीनता का सुख है ,जो जल्द ही अपनी चमक खो बैठेगा |और यही होता है दूसरी स्त्री को देह-स्तर पर हासिल करते ही उनका नशा हिरन हो जाता है |उन्हें लगने लगता है कि देह के स्तर पर हर एक स्त्री एक जैसी ही होती है |अब उन्हें दूसरी स्त्री के लिए अपना सब-कुछ दाँव पर लगाना मूर्खतापूर्ण कदम लगता है और वे बदलने लगते हैं| चाँद के साथ अलगाव के दिनों में फिजा ने कई बार यह बात कही कि चाँद ने उसके साथ धोखा किया है और उसकी घनिष्टता और संसर्ग पाने के लिए विवाह का ढोंग रचाया था |पुरूष के इस बदलाव को दूसरी स्त्री नहीं सह कर पाती |वह उसके गले पड़ने लगती है ,तब वे उससे छुटकारे के लिए गर्हित कदम उठाते भी पीछे नहीं हटते|फंसने के बाद वे वापस पहली स्त्री की शरण में आ जाते हैं ,जो अपने बच्चों,परिवार,समाज व अपनी पराश्रयता के कारण खून का घूँट पीकर भी उसे क्षमा कर देती है |पुरूष भी सारा दोष दूसरी स्त्री पर डालकर सबकी सहानुभूति हासिल कर लेता है| मारी जाती है तो दूसरी स्त्री |एक तो वह पुरूष के प्रेम से वंचित हो जाती  है ,दूसरे समाज भी उसे क्षमा नहीं करता | कहीं ना कहीं उसके मन में भी यह अपराध-बोध होता है कि उसने एक स्त्री का हक छीना था |इन सारी विसंगतियों के कारण वह टूटने लगती है |अवसाद-ग्रस्त हो जाती  है |पर वीन बॉबी हो या मधुमिता,फिजा या कोई और दूसरी स्त्री होने की पीड़ा ही इनका नसीब बना | यह कहा जा सकता है कि इनमें से अधिकतर ने अपनी महत्वाकांक्षा के कारण आर्थिक,राजनीतिक या अन्य चीजों में मजबूत पुरूषों का चयन किया था ,इसलिए दुर्दशा को प्राप्त हुईं,तो क्या अगर वे कमजोर मर्दों का चयन करतीं,तो उनका हश्र कुछ दूसरा होता,कदापि नहीं |हर दूसरी स्त्री के नसीब में पीड़ा होती है,अकेलापन होता है और अगर वह नहीं संभली तो हत्या या आत्महत्या ही उसका विकल्प बनता है |अनुराधा बाली तो आर्थिक रूप से कमजोर नहीं थी उसकी मृत्यु के बाद उसके घर से सवा करोड रूपए तथा एक किलों से अधिक सोने के गहने मिले थे |उसके शव के पास शराब की बोतल और सिगरेट का पैकेट मिला |फिजा जैसे बोल्ड स्त्री आत्महत्या नहीं कर सकती |फिर क्यों हुआ उसका ऐसा अंत|महत्वपूर्ण यह नहीं है कि फिजा ने आत्महत्या की या उसकी हत्या हुई |महत्वपूर्ण यह है कि स्त्री के साथ ही ऐसे हादसे क्यों ?स्त्री का अकेलापन क्यों उसपर इतना हॉवी हो जाता है कि वह मृत्यु को गले लगा लेती है ?मर्लिन मुनरों ,जिसको लाखो चाहने वाले थे,अपने सुसाइड नोट में लिखती है कि-मैं एक ऐसी बच्ची की तरह हूँ ,जिसे कोई प्यार नहीं करता|प्रेम की यह कैसी अबूझ प्यास है !कैसा खालीपन है ?अकेला होना,विशेषकर मानसिक रूप से खतरनाक है |यह शारीरिक अकेलेपन से ज्यादा भयावह होता है |भावनात्मक रूप से टूटा इन्सान अकेलेपन में अपने दुःख को बढा-चढाकर देखता है और अवसाद में चला जाता है |यह अवसाद कभी जान ले लेता है,तो कभी विक्षिप्त बना देता है |अवसादग्रस्त व्यक्ति समाज से कट जाता है ,अंतर्मुखी हो जाता है|वह बार-बार उन्हीं घटनाओं को याद करता है,जो दुखद होती है |ऐसे में मृत्यु ही उसे प्रिय लगती है |वह संसार से बचने का मात्र यही एक रास्ता  खोज पाता  है |
विवाहित पुरूष से रिश्ता बनाते समय दूसरी स्त्री यह भूल जाती है कि उसके अंदर दादी-परदादी वाले संस्कार अभी मरे नहीं हैं और भारतीय समाज अभी इतना आजाद-ख्याल नहीं हुआ कि अवैध रिश्तों को आसानी से स्वीकार कर ले |स्त्री की महत्वाकांक्षा उसके अंदर की आदिम स्त्री के आगे हार जाती है और वह पारम्परिक पत्नी और माँ बनने के लिए छटपटाने लगती है |ऐसी मन:स्थिति में वह प्रेमी-पुरूष पर दबाव बनाने लगती है |वह भूल जाती है कि रिश्ते बनाते समय उसने सामाजिक मर्यादा की शर्त नहीं रखी थी |वह तो खुद इस रिश्ते को सबसे छिपाती थी |जब उसने पहले पत्नी और माँ का अधिकार नहीं चाहा था ,फिर यह सब उसे कैसे मिले ?पुरूष उसे यह दे ही नहीं सकता |यह सब तो उसके पास पहले से ही होता है,पूरी सामाजिक मान्यता व प्रतिष्ठा के साथ |दूसरी स्त्री यह भूल जाती है कि अगर पुरूष उसे यह सब देगा,तो पहली स्त्री के जायज हक मारे जाएंगे |एक स्त्री की बर्बादी पर दूसरी स्त्री अपना घर कैसे आबाद कर सकती है ?दूसरी स्त्री तनाव-ग्रस्त रहने लगती है|जो जैसा है,उसी रूप में स्वीकार नहीं कर पाती |परिणाम मधुमिता...फिजा जैसा ही होता है |इस त्रिकोण में कौन सबसे ज्यादा दोषी है,इसपर सबकी अलग-अलग राय हो सकती है,पर इसमें कोई दो राय नहीं कि इसमें सबसे अधिक सजा दूसरी स्त्री ही पाती है | ऐसा नहीं कि पहली स्त्री बहुत सुखी होती है |उसे भी हर पल यह कचोटता रहता है कि उसके पति ने उसके स्त्रीत्व का अपमान किया |उसके प्रेम और त्याग को नकारा और दूसरी स्त्री की बांहों में जा समाया |ऐसा करते हुए उसे एक पल के लिए भी अपराध-बोध नहीं हुआ,पर वह पति-त्याग का साहस नहीं जुटा पाती और ना ही हत्या या आत्महत्या उसका विकल्प बनता है क्योंकि उसपर बच्चों,परिवार,रिश्तों और समाज की जिम्मेदारियां दबाव बनाती हैं और उसका सहारा भी बनती हैं |वह अकेली नहीं होती ,सब उसके साथ होते हैं |सारा अधिकार उसका होता है|बस वह एक चुभन के साथ जीवन गुजार देती है |यह चुभन स्त्री होने की विवशता है |कई स्त्री तो खुद भी ऐसे रिश्ते बनाकर गुप्त रूप से मन ही मन पति से बदला ले लेती हैं,पर बड़ी सतर्कता से कि उनका रिश्ता जग-जाहिर ना हो और उनका परिवार ना टूटे पर ज्यादातर तो अपने स्त्री होने को कोसकर रह जाती हैं | कुछ विद्रोह करती हैं,तो अपना घर तबाह कर लेती हैं |डायना का जीवन इसका उदाहरण है |अपने विवाह की पार्टी में पति की प्रेमिका कैमिला पार्कर को देखकर उसके सपनों को जबरदस्त ठेस लगी |अपने टेप में उसने कहा था -मैं उस दिन बेहद शांत थी ,उस भेड़ की तरह जिसको काटा जाने वाला हो |डायना नौकरानी से ब्रिटेन के शाही परिवार की बहू बनकर भी खुश नहीं रह सकी क्योंकि उसे पति का ध्यान व प्यार नहीं मिला |उसने दो बार आत्महत्या की कोशिश भी की और अंतत:पति से अलग हो गई |कोई भी सम्वेदनशील स्त्री अपने प्यार को किसी दूसरी स्त्री से बाँट नहीं सकती| फिर भी ऐसे रिश्ते बनते रहे हैं और शायद बनते रहेंगे |
राजनीति की धूप-छाँव में आकार लेने वाले ऐसे सम्बन्धों का असली सच ज्यादा ही बजबजा है |फिजा [अनुराधा बाली]२००८ के आखिर में तब अचानक सुर्ख़ियों में आई थी,जब उसने हरियाणा के तत्कालिन उप मुख्यमंत्री चंद्रमोहन से धर्म-परिवर्तन कर विवाह किया था पर यह शादी अगले दो-तीन महीनों में ही विवाद और टकराव के कगार पर पहुँच गई |बात यहाँ तक पहुँच गई कि फिजा के लिए पहली पत्नी से दगा करने वाले चन्द्रमोहन ने मोबाईल फोन पर उसे तलाक दे दिया | अक्सर पुरूष दूसरी स्त्री को ना तो आजाद करता है,ना ही मातृत्व का सुख हासिल करने देता है |मधुमिता माँ बनने की चाह में विद्रोही बनी और मारी गई ,तो गीतिका ने आत्मघात कर ली |पूर्व एयर होस्टेज २३ वर्षीया गीतिका शर्मा हरियाणा के गृह राजमंत्री ४६ वर्षीय गोपाल कांडा के अब निष्क्रिय हो चुकी एम एल आर कम्पनी में कर्मी थी और उसकी रखेल बन कर रह गई थी |कांडा ने उसका जीना मुश्किल कर रखा था |अंतत:उसने सुसाइड कर लिया | गीतिका के अपने सुसाइड नोट में गोपाल कांडा का नाम लिया था कि उसने ही उसे आत्मघात के लिए उकसाया था |उसने उसकी कम्पनी छोड़ दी थी,फिर भी वह उसे छोड़ने को तैयार ना था |गीतिका के पोस्टमार्टम रिपोर्ट ने साफ़ कर दिया कि वह सम्भोग की आदि थी और कई बार एबार्शन की पीड़ा से गुजर चुकी थी|
संयोग देखे कि गीतिका की ख़ुदकुशी के २४ घंटे पहले ही फिजा की लाश मिली थी |दोनों ही घटनाएं बड़ी थीं,हरियाणा की राजनीति से जुड़ी थीं |इन दोनों मामलों में जान गंवाने वाली स्त्रियों को कहीं ना कहीं इस बात की कीमत चुकानी पड़ी कि उनके संबंध ऐसे लोगों से थे,जिनका राजनीति में अच्छा रूतबा था |फिजा और चाँद की तो शादी हुई थी,पर गीतिका मामले में तो संबंध और घनिष्टता के नाम पर जो कुछ था,उसके पीछे इच्छा या प्रेम की जगह महज राजनीतिक रसूख और ताकत काम कर रहा था|कांडा ने गीतिका को बलात सम्बन्ध रखने को बाध्य किया था |ये दोनों मौतें कहीं ना कहीं हमारी उस अपसंस्कृति के सच बयान करती हैं,जिसका सच अब आपवादिक ना रहकर एक लगातार सघन होती विकृति का रूप ले चुकी है |बिहार के बॉबी हत्याकांड से लेकर मध्य-प्रदेश में शेहला मसूद और राजस्थान में भंवरी हत्याकांड और फिर गीतिका और फिजा की मौतें हमारे देश में स्त्रियों की स्थिति के साथ राजनीतिक बिरादरी की नैतिकता पर भी एक तल्ख़ टिप्पणी  है |ध्यातव्य है कि इन मामलों में जांच और कार्रवाई भी कहीं न कहीं राजनीति से प्रेरित होती है,इसलिए इन दोनों ही मामलों के सच सामने आएँगे ही,यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता |

Monday 25 February 2013

खतरे में बच्चियाँ



नन्हीं बच्ची नहीं जानती|वात्सल्य लुटाती आँखों में |कब उतर आएगा कोई गिद्ध और ले उड़ेगा उसका बचपन |
 १८ अप्रैल को दिल्ली में पाँच वर्षीय बच्ची गुड़िया का मामला खुला |उसके पड़ोसी ने ही उसे बंधक बनाकर दो दिन तक वहशियाना हवस का शिकार बनाया |उसके नाजुक अंग में प्लास्टिक की शीशी और मोमबत्तियाँ भर दी |बच्ची एम्स में मौत से जूझ रही है |दिल्ली के लोगों में एक बार फिर गुस्से की लहर दौड़ पड़ी है ,जो पूरी तरह जायज है |
दुराचार मानसिक रूप से झकझोर देने वाला एक ऐसा अमानवीय कृत्य है,जो किसी भी समाज के लिए नाकाबिले बर्दाश्त है |ऐसे हादसों की शिकार अगर बच्चियाँ हों,तो आत्मा कराह उठती है |कैसे होते हैं वे लोग,जिन्हें दूधमुंही बच्ची की देह भी आमंत्रित करती लगती है? वे मानसिक रोगी हैं, मनबढ़ हैं या मरद होने के अहंकार से भरे हुए?बलात्कार का कारण अत्यधिक कामुकता,पेशियों का जोर,यौन-साथी का अभाव है कि पौरुष-बुक में सबसे ऊपर होने की मानसिकता?अनगिनत प्रश्न हैं |
यह तो तय है कि बलात्कार यौन संतुष्टि नहीं दे सकता,हाँ मर्द-अहंकार को जरूर संतुष्ट कर सकता है |यह अहंकार उन्हें पितृसत्ता ने दिया है,जहाँ पुरूष-लिंग सर्वोपरि है |बच्चियों की भ्रूर्ण-हत्या,उनकी उपेक्षा,उनसे दोयम व्यवहार इस व्यवस्था में सामान्य बात है | स्त्री को बुद्धि-विवेक से रहित देह मात्र समझना तो मानो इसकी परम्परा है |इसके लिए स्त्री भोग की वस्तु,बच्चे पैदा करने की मशीन,दासी,दलित से भी दलित चीज मात्र है |ऐसी चीज मात्र मानी जाने वाली स्त्री की उम्र नहीं देखी जाती,उसका मन नहीं देखा जाता,बस उससे अपनी विकृत आकांक्षाओं की पूर्ति की जाती है | बच्चियों से बलात्कार आज की बात नहीं है,जाने कब से यह घट रही हैं |बाल-विवाह को आप क्या कहेंगे?राजस्थान में आज भी बाल-विवाह हो रहे हैं |बाल-विवाह की परम्परा खासी पुरानी है और इसे स्वाभाविक माना जाता था |रवीन्द्र नाथ ठाकुर का विवाह भी ९ साल की कन्या से हुआ था |बाल-विवाह में लड़की की उम्र कम होती थी,पर जरूरी नहीं था कि वर भी बच्चा हो|वर के बच्चा होने पर बधू पर वर के पिता,ताऊ,बड़े भाई हाथ साफ़ कर लेते थे |गाँवों में आज भी कई बुजुर्ग बहुओं से रिश्ते के लिए जाने जाते हैं | हाँ,तब लोक-लज्जा से ये बातें छिपा ली जाती थीं |या फिर बच्ची डर के मारे चुप रहती थी |भले ही उसका पूरा जीवन सामान्य ना गुजरे,वह एक बीमार जिंदगी जीती रहे |कई लेखिकाओं ने अपनी आत्म-कथा में अपने साथ बचपन में हुए दुराचार का जिक्र किया है |अभी १३ फरवरी,२०१३को एक अखबार में सितार-मर्मज्ञ पंडित रविशंकर की बेटी अनुष्का शंकर का एक वक्तव्य पढ़ा,जिसमें उन्होंने बताया था कि वे महिला अधिकारों के खिलाफ आन लाईन जागरूकता अभियान शुरू करने जा रही हैं,क्योंकि वे महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों से पूरी तरह वाकिफ हैं |बचपन में उन्होंने वर्षों तक तमाम तरह के शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न को झेला है,वह भी उस व्यक्ति के हाथों,जिसपर उनके अभिभावकों ने आँख मूंद कर विश्वास किया था |लन्दन में रह रही भारतीय संगीतज्ञ ने कहा कि –तब मुझे नहीं पता था कि इससे किस प्रकार निपटना है और इसे किस प्रकार रोका जा सकता है ? नजदीकी रिश्तेदारों,मित्रों द्वारा बच्चियों के शोषण की खबरें अक्सर दबकर रह जाती हैं |अब मीडिया की सक्रियता से ऐसी खबरें बाहर आने लगीं हैं,वरना इनका इतिहास बहुत पुराना है | कुछ लोगों के अनुसार- इस देश में ‘बाल भोग’ कोई नई बात नहीं है, एक दक्षिणपंथी संगठन से इसे विशेष रूप से जोड़ा जाता है,यह प्रवृति प्रगतिशीलों में भी खूब रही है |इस सम्बन्ध में कई नाम हैं|हाँ ऐसे लोग बालक-बालिका का भेद नहीं रखते थे | यह अलग मुद्दा है |जहाँ तक बलात्कारियों का प्रश्न है ,उन्हें रिश्तों की मर्यादा की भी परवाह नहीं रहती |१२-१-२०१३ को बाराबंकी  थानाक्षेत्र के ग्राम रसूलपुर में ३५ वर्षीय एक युवक ने अपनी बहन की सात वर्षीया पुत्री के साथ रेप किया |वह अपनी भांजी को बहाने से गॉव के बाहर बुलाकर ले गया |दयनीय हालत में घर पहुँची बच्ची के पिता ने आरोपी के खिलाफ पुलिस में मामला दर्ज कराया | पिछले वर्ष जारजा कस्बे में फूफा ने सात साल की बच्ची से दुष्कर्म किया था |वाराणसी के लहँगपुर में उसी दिन सलीम और मुन्ना नाम के मामाओं ने अपनी भांजी को आग में झोंक दिया था | फ़रवरी 2013 , भोपाल के सभी अखबारों के मुख पृष्ठ पर एक बच्ची की विकृत देह की फोटो सहित एक खौफनाक खबर थी -- 50 वर्षीय नाना अपने नाती और नातिन को मेले में घुमाने ले गए ! पुलिस इन्क्वायरी में नाती ने बताया कि आखिरी बार अपनी बहन को नाना के साथ ही उसने देखा था ! जब उसकी कटी हुई लाश बरामद हुई तो पता चला कि नाना ने अपनी 8 वर्षीय नातिन के साथ बलात्कार किया और उसके शरीर को कन्नी से बीचो बीच काट कर फेंक दिया ! पुलिस लॉक अप में तहकीकात के दौरान जब नाना को पीटा गया तो उसने अपना अपराध क़ुबूल किया ! 6 फ़रवरी को अखबार में नाना की उघडी पीठ की तस्वीर थी जिस पर गोदने से लिखा था -- '' मर्द '' ! इस मर्दानगी से आहत , बच्ची की माँ और बलात्कारी नाना की बेटी ने कहा -- इसे यहीं पर जिंदा जला दो ! 
मामा,नाना,दादा,पिता,भाई,चाचा जैसे करीबी रिश्ते जब ऐसे बहशी हो जाएँगे,तो बाहरी लोगों से क्या उम्मीद बचेगी ?अभी कुछ दिन पहले केरल जैसे अति –शिक्षित प्रदेश की १३ साल की स्कूली छात्रा का मामला सामने आया था कि दो साल से घर में उसका पिता,बड़ा भाई और २-२ चाचा रोज बलात्कार कर रहे थे |इसी जगह एक ऐसा भी पिता था,जिसने अपनी १६ साल की बेटी से ना केवल खुद बलात्कार किया,बल्कि सौ और लोगों को भी विभिन्न समयों पर उसकी देह का भोक्ता बनाया |
बाहरी व्यक्ति तो अवसर मिलते ही बच्चियों को अपना शिकार बना लेते हैं |बच्चियाँ आसान शिकार होती हैं |थोड़े से लालच से वह बहला ली जाती हैं |उन्हें नहीं पता होता कि,जिन्हें वे अपना अंकल,पिता,नाना,दादा कह रहीं हैं,वे उनके कोमल बचपने को चींथ देने को आतुर हैं | १८ दिसम्बर,१२ को कम्पेयर-गंज में मात्र १८ माह की बच्ची के साथ २५ वर्ष के विवाहित युवक ने दुराचार किया |वह उसे खिलाने के बहाने अपने घर ले गया था | १० अप्रैल २०११ की शाम को पश्चिम दिल्ली की के कापसहेड़ा में रहने वाले रिक्शाचालक की तीन वर्ष की बच्ची के साथ ६० वर्षीय बुजुर्ग गार्ड ने रेप किया था |रेप के दौरान ही बच्ची की मौत हो गई,फिर भी वह दरिंदा उसकी देह को रौंदता रहा था |पूरे होशोहवास में वीभत्स तरीके से दुष्कर्म और हत्या करने वाले फार्महाउस के गार्ड भरतसिंह को जनवरी २०१३ में राजधानी की एक फास्ट ट्रैक कोर्ट ने अपने पहले फैसले के रूप में फांसी की सजा सुनाई है क्योंकि यह मामला दुर्लभ से दुर्लभतम की श्रेणी में रखा गया था |देखें उक्त गार्ड को फांसी की सजा मिलती है कि उसकी उम्र के नाते उसे माफ कर दिया जाता है |मैं इसलिए यह बात कह रही हूँ कि केन्द्र की सिफारिश पर पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने जिन ३५ दोषियों की मौत की सजा कम कर दी थी ,इनमें बलात्कारी भी शामिल थे |उत्तर-प्रदेश के बंटू की मौत की सजा को माफ कर दिया गया |बंटू ने २००३ में आगरा में पाँच साल की बच्ची से बलात्कार किया था |अस्पताल ले जाते समय बच्ची ने दम तोड़ दिया था |राष्ट्रपति ने जून २०१२ में बंटू की दया-याचिका स्वीकार कर लिया |उत्तर-प्रदेश के ही सतीश की सजा-ए-मौत को मई २०१२ में उन्होंने माफ कर दिया था|सतीश ने मेरठ में छह साल की बच्ची के साथ रेप किया था |तमिलनाडु के गोपी और मोहन तथा मध्य-प्रदेश के मोली राम और संतोष की दया याचिकाओं को भी पाटिल ने स्वीकार था |चारों को बच्चियों से बलात्कार और हत्या के जुर्म में अदालत ने मौत की सजा सुनाई थी,पर सभी मुक्त कर दिए गए |१२ फरवरी २००९ को तमिलनाडु के जी सेल्वम ने नौ साल की स्कूली छार्ता का अपहरण कर उसके साथ रेप किया था और फिर उसकी हत्या कर दी थी |सेल्वम को मौत की सजा तय हुई ,पर फांसी के एन वक्त सुप्रीम कोर्ट ने फांसी पर रोक लगा दी,उसे यह कदम जल्दवाजी का लगा |न्याय मिलने में देरी और कानून के ढीले तेवर के कारण ही तो आज बलात्कारी को ना क़ानून का डर रह गया है ,ना समाज का | ३०जनवरी १३ को गोरखपुर के बेलघाट इलाके की हाईस्कूल की छात्रा के साथ चार युवकों ने सामूहिक बलात्कार किया |छत्र प्रेक्टिकल की फाईल जमा करने शाहपुर स्थित एक स्कूल की तरफ जा रही थी |गाँव से कुछ दूर बढ़ने पर नहर के समीप युवकों ने उसका अपहरण कर लिया |दुराचार के बाद अचेतावस्था में उसे छोड़कर वे फरार हो गए|पिता ने घटना की जानकारी पुलिस को दी |आरोपी गिरफ्तार कर जेल तो भेज दिए गए,पर ७ फरवरी तक लड़की की चिकित्सकीय रिपोर्ट तैयार नहीं हो सकी,जिससे लड़की की हालत काफी बिगड़ गई थी |७ फरवरी १३ को पं० बंगाल के दक्षिणी २४ परगना जिले में कक्षा बारहवीं की एक छात्रा के साथ चार युवको ने बलात्कार किया,तो इसी दिन महाराष्ट्र के नांदेड जिला के खडकी गाँव की १४ वर्षीया  लड़की से तीन लोगों ने बलात्कार किया |
आखिर कौन हैं ये बाल-बलात्कारी ?कहाँ से प्रेरित हैं ये ?इनको प्रेरित करने वाले तत्व इनके अंदर है कि बाहर |मुझे लगता है बच्चों से दुराचार का सबसे बड़ा कारण चाईल्ड पोर्नोग्राफी के नाम पर इंटरनेट पर उपलब्ध हिंसक सामग्री है |साइबर स्पेस पर खबर रखने वाली ब्रिटिश संस्था इंटरनेट वॉच फाउण्डेशन’[आई डब्ल्यू एफ ]के अनुसार बाल यौन शोषण से जुड़ी अश्लील तश्वीरें जारी कर मोटी  कमाई करने वाली वेबसाइटों की संख्या अब तक कम नहीं हुई हैं,जबकि ब्रिटिश पुलिस और निजी समूहों ने हॉट लाईनों की एक श्रृंखला के जरिए अभियान चला रखे हैं |जो चाईल्ड पोनोग्राफी के ऐसी गतिविधियों में संलिप्त वेबसाईटों को कुछ घंटे के अंदर ही हटा देते हैं |पर जो वेबसाईट बच जाती हैं,उनमें से अधिकांश का इस्तेमाल यातना युक्त तस्वीरें होती हैं |वेबसाईटों की तस्वीरों तथा वीडियों में इस्तेमाल किए जाने वाले २४ फीसद बच्चे छह साल या उससे कम उम्र के होते हैं |एक अनुमान के अनुसार वर्तमान में साइबर स्पेस पर चाइल्ड पोर्नोग्राफी से जुड़ी साढ़े तीन लाख वेबसाइटें सक्रिय हैं |आई डब्ल्यू एफ या उस जैसे संगठन दो साईटों का वजूद खत्म करते हैं और चंद घंटों में चार और वेबसाईटें प्रकट हो जाती हैं |ढेरों साईटें तो चाईल्ड मॉडलिंग और फैशन के नाम पर चलती हैं |अर्ध नग्न बच्चों की तस्वीरें परोसने वाली इन साईटों पर पहुँचने के बाद लोगों को ऐसे लिंक उपलब्ध करा दिए जाते हैं,जो सीधे बाल यौनाचार और चाइल्ड रेप के चित्रों और विडियों वाली साईटों तक पहुंचाते हैं |ये साईट एक गंभीर समस्या के रूप में हैं और लगातार चुनौती दे रहे हैं |पुलिस और इंटरनेट इन्डस्ट्री के भरपूर सहयोग के बाद भी इन साईटों से निजाद नहीं मिल रही है |निश्चित रूप से इस दिशा में अभी काफी काम किए जाने की जरूरत है |ऐसे साइटों को देखने वालों की मानसिकता विकृत हो जाती है |वे बच्चों से रेप करते हैं |उनको यातना देते हैं |उन्हें इसी में विकृत संतोष मिलता है |सबसे बड़ी बात तो यह है कि वे इसे बुरा,पाप या गलत भी नहीं मानते |यह विकृति विदेशों में ही नहीं भारत में भी पैर पसार चुकी है |वेश्यालयों में कम-उम्र बच्चों की माँग बढ़ रही है,इसकी पूर्ति के लिए तमाम उपाय किए जा रहे हैं |बच्चों का अपहरण,उनके माता-पिता से खरीदकर या नौकरी दिलाने के लालच से लाकर बाल-वेश्यावृति के दलदल में धकेला जा रहा है |कुछ समय पूर्व उत्तर-प्रदेश के एक स्थान से कुछ बच्चियाँ बरामद की गई थीं |आठ साल की उन बच्चियों को आक्सीटोसिन का इंजेक्शन लगाकर बड़ा बनाया जाता था,फिर उन्हें बेचा जाता था |अधिक क्या कहें,अब तो छात्रावासों में भी बच्चियाँ सुरक्षित नहीं हैं और उनसे लगातार सामूहिक दुराचार किया जा रहा है ,वेश्यावृति कराई जा रही है |रायपुर,छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले के आदिवासी छात्रावास में हुए सामूहिक दुराचार के खुलासे से लोग अभी संभले नहीं थे कि १३-१-१३ को बालोद जिले के एक और आदिवासी छात्रावास में सामूहिक दुष्कर्म का मामला आ गया |इस निकृष्ट काम में आश्रम की अधीक्षिका भी संलिप्त थी |वह लम्बे समय से बच्चियों को जबरन बाहर भेजती थी |इस घृणित कार्य का विरोध एक बच्ची ने सामने आकर किया |कांकेर कांड के सामने आने के बाद दबाव में आई पुलिस ने इस छात्रावास से सम्बन्धित मामलों में सक्रियता दिखाई और अधीक्षिका के खिलाफ बलात्कार एवं वेश्यावृति करवाने समेत विभिन्न धाराएँ लगाकर उसे गिरफ्तार किया |पता चला कि लगभग छह माह पूर्व कलेक्टर से लिखित शिकायत की गई थी,पर कोई कार्रवाही नहीं हुई |अध्क्षिका १४ वर्षों से इस छात्रावास में पदस्थ थी और उसके प्रभावशाली राजनीतिज्ञों व अधिकारियों से काफी अच्छे सम्बन्ध रहे हैं ,इसलिए मामला दबा दिया गया था |यहाँ तक कि पिछले माह उसे पदोन्नत कर नोडल अधिकारी बना दिया गया था और गिरफ्तारी के मात्र दो दिन पहले वह मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह से सम्मानित भी की गई थी |कितनी शर्म की बात है कि जिन आदिवासियों के जंगल से शहर आबाद हैं ,उनको शिक्षा के नाम पर क्या दिया जा रहा है ?
बच्चियों से बलात्कार करने वाले ऐसे मनोरोगी हैं,जिन्हें ठीक करना असम्भव तो नहीं,पर मुश्किल जरूर है |उन्हें बड़ों में कोई आकर्षण नहीं होता |वे हमेशा ऐसे बच्चियों की तलाश में रहते हैं,जो उनकी यौन-साथी बन सके |कभी-कभी कुछ बच्चियाँ यौन-कौतुहल,लालच,मजबूरी या दबाव में आकर उनकी साथी बन भी जाती हैं,पर यह स्वभाविक और दीर्घकालिक नहीं होता और जल्द ही उन्हें दूसरी साथी की जरूरत पड़ती है |वे फिर या तो उन बाजारों में जाते हैं,जहाँ बाल-वेश्यावृत्ति होती है या फिर जहाँ,जैसा मौका मिले |राजी ना होने वाली बच्चियों से वे बलात्कार करते हैं |बच्ची जान-पहचान का हो,या जहाँ पकड़े जाने का खतरा होता है ,वे हत्या भी कर देते हैं |
कुछ ऐसे भी दुराचारी होते हैं ,जिन्हें बच्चे-बड़े से कोई फर्क नहीं पड़ता,बस उन्हें सुविधानुसार जो मिल जाए |इनका भी मनोवैज्ञानिक इलाज हो सकता है |दिक्कत यह है कि इन्हें पहचाना कैसे जाय ?ये हमारे बहुत करीब हो सकते हैं ,पर मुखौटे में |इसलिए बलात्कार निरंतर हो रहे हैं और यह तब तक पूरी तरह खत्म नहीं होगा,जब तक बलात्कारी खुद ना चाहें |वे अपना इलाज कराकर आसानी से अपनी विकृतियों से मुक्ति पा सकते हैं |पर वे सामने नहीं आना चाहते| उन्हें ना तो पुलिस-कानून का डर है,ना परिवार-समाज का |ना धर्म ना ईश्वर ,ना नैतिकता ना संवेदना |ये मानवता के शत्रु हैं ,अभिशाप हैं |ये समाज के वे सड़ चुके अंग हैं,जिन्हें काट कर फेंक देने में ही सबका भला है,वरना भविष्य अंधकारमय होगा |