Wednesday 20 March 2013

दूसरी औरत


 यह सच है कि दूसरी औरत को भारतीय समाज ने अभी तक मान्यता नहीं दी है,फिर भी दूसरी स्त्री सदियों से समाज का हिस्सा रही है |साहित्य,संगीत,कला,फिल्म जैसे क्षेत्रों में तो कई ऐसे पुरूष-नाम हैं ,जिनके जीवन में दूसरी स्त्री की महत्वपूर्ण भूमिका रही है|उन स्त्रियों ने इस कहावत को चरितार्थ किया हैं कि ‘हर महान व्यक्ति के पीछे एक स्त्री होती है ‘|वे स्त्रियाँ विवाहित पुरूष से रिश्ते का आधार भावनात्मक लगाव,जुड़ाव,आपसी समझ और साझेदारी बताती हैं और कतई शर्मिंदा नहीं हैं कि समाज उन्हें क्या कहता है ?उनका मानना है कि ‘सही अर्थों में वे ही पुरूष की काम्य स्त्रियाँ हैं और उनको पाना पुरूष का अधिकार है | आज का पुरूष दिमाग संचालित है|आदम काल के पुरूष की तरह सिर्फ देह संचालित नहीं,इसलिए वह पारिवारिक रूढ़ि और दबाव के चलते जबरन मढ़ दी गई पहली स्त्री से बंध कर नहीं रह सकता |मानसिक भूख के कारण ही वह दूसरी स्त्री की तलाश में रहता है |सात फेरे लेने मात्र से किसी स्त्री को पुरूष का एकनिष्ठ प्रेम नहीं मिल सकता |मानसिक गठबन्धन भी जरूरी है |आज का बौद्धिक पुरूष मानासिक अर्धांगिनी की चाहत रखता है,तो यह गलत नहीं है |’उनकी बात की पुष्टि एक शोध ने भी की पुरूष शारीरिक सौंदर्य से ज्यादा स्त्री की बौद्धिकता से प्रभावित होता है |[राष्ट्रीय सहारा,सितम्बर,२०१२]
पर हर दूसरी स्त्री ऐसी बात नहीं कहती है |ज्यादातर तो कुछ समय बाद ही खुद को शोषित मानकर पछताने लगती हैं|आर्थिक रूप से स्वनिर्भर होने के बाद भी वे संतुष्ट नहीं होतीं|वे कहती हैं कि दूसरी औरत बनना औरत के शोषण और भुलाओं का दुष्चक्र होता है|
पुरूष के विवाहेतर सम्बन्ध कोई नयी बात नहीं है|प्राचीन काल से यह परम्परा में रही है |राजाओं,सामंतों,बादशाहों के ही नहीं ,सामान्य पुरूषों के लिए भी बहुविवाह या अधिक स्त्री से सम्बन्ध होते थे |हाँ,स्त्री के संबंध में जरूर कड़े नियम थे |पर ऐसा नहीं था कि स्त्रियों के पर-पुरूषों से संबंध नहीं होते थे |सूरदास ने परकीया’ को स्वकीया से ज्यादा आकर्षण युक्त बताकर यह सिद्ध कर दिया कि प्रेम में विवाह बाधक नहीं है |प्रेम एक आदिम संवेग है |वह कभी,कहीं और किसी से भी हो सकता है |दिक्कत तब आती है,जब प्रेम स्वार्थ-केंद्रित हो जाता है |प्राचीन काल में पति पर पूर्णतया आश्रित होने के कारण पहली स्त्री पुरूष के अन्य स्त्रियों से रिश्ते को स्वीकारने को विवश हो जाती थी,पर आज स्त्री विवश नहीं है ,पुरूष पर उस हद तक निर्भर भी नहीं है |देश के क़ानून ने उसे कई ऐसे अधिकार दे रखे हैं कि वह अपने पति के मनमाने रिश्तों पर प्रतिबंध लगा सकती है |आज वह पति का प्यार किसी के साथ बाँटने को तैयार नहीं है |पति के जीवन में दूसरी स्त्री को वह देखना भी नहीं चाहती ,फिर भी पुरूष दूसरी स्त्री से गुप्त-सम्बन्ध रखते हैं |जब यह भेद खुलता है,तो वह आग-बबूला हो जाती है |पति का तो वह कुछ बिगाड़ नहीं पाती,पर दूसरी औरत की दुश्मन बन जाती है |वह उसकी हत्या का षड्यंत्र तक रच डालती है |या फिर साम-दंड-भेद की नीति पर चल कर पति को वापस लौटा लाती है |मधुमिता की हत्या का षड्यंत्र रचा गया,तो फिजा के चाँद को लौटा लिया गया |दोनों ही स्थितियों में स्त्रियाँ ही एक-दूसरी की शत्रु बनीं,पर इसके पीछे कौन था?पुरूष ही न!यही पुरूष की रणनीति है |आनंद वह उठाता है और दंड स्त्री भुगतती है |स्त्री पहली हो या दूसरी दोनों इस तनाव में जीती हैं कि पुरूष उसका नहीं है |वह कभी भी किसी दूसरी के पास जा सकता है |
प्रश्न उठता है कि पहली स्त्री तो सामाजिक परम्परा में बंधकर पुरूष के जीवन में आई है,दूसरी स्त्री क्यों किसी विवाहित पुरूष को चुनती है ?पुरूष का क्या वह तो हर सुंदर स्त्री के लिए ललकता है |इस प्रश्न का उत्तर भी पुरूष-प्रधान व्यवस्था में है |यह व्यवस्था स्त्री को अपने सपने पूरा करने का सीधा रास्ता नहीं देती | ऐसी अवस्था में वह मजबूत पुरूष कंधे का सहारा ले बैठती है|कभी-कभी ही ऐसा होता है कि स्त्री पुरूष में स्वाभाविक प्रेम पनप गया हो या पुरूष ने स्त्री को किसी वजह से मजबूर किया हो |अक्सर दोनों अपनी जरूरत से एक-दूसरे से जुड़ते हैं | वैसे ऐसे रिश्ते के पीछे यौन का आकर्षण भी एक बड़ा कारण है |अभी कुछ दिन पहले लन्दन में हुए एक शोध में कहा गया कि पुरूषों की स्त्रियों के साथ दोस्ती सिर्फ यौनाकर्षण के कारण ही होती है | अकेली,बड़ी उम्र तक अविवाहित,परित्यक्ता,विधवा ,आश्रय-हीन,परिवार से उपेक्षित स्त्रियाँ भी ऐसा कदम उठा लेती हैं | साथ-साथ काम करने वाले स्त्री-पुरूष के बीच भी अंतरंग रिश्ते बन जाते है | रिश्ते बन जाने के बाद दूसरी स्त्री को महसूस होता है कि उसके भीतर के दादी-परदादी वाले संस्कार अभी मरे नहीं हैं और भारतीय समाज अभी इतना आजाद-ख्याल नहीं हुआ कि अवैध रिश्तों को आसानी से स्वीकार कर ले |तब उसकी महत्वाकांक्षा भी उसके अंदर की आदिम स्त्री के आगे हार जाती है और वह पारम्परिक पत्नी और माँ बनने के लिए छटपटाने लगती है |ऐसी मन:स्थिति में वह प्रेमी-पुरूष पर दबाव बनाने लगती है |वह भूल जाती है कि रिश्ते बनाते समय उसने सामाजिक मर्यादा की शर्त नहीं रखी थी |वह तो खुद इस रिश्ते को सबसे छिपाती थी |जब उसने पहले पत्नी और माँ का अधिकार नहीं चाहा था ,फिर यह सब उसे कैसे मिले ?पुरूष उसे यह दे ही नहीं सकता |यह सब तो उसके पास पहले से ही होता है,पूरी सामाजिक मान्यता व प्रतिष्ठा के साथ |दूसरी स्त्री यह भी भूल जाती है कि अगर पुरूष उसे यह सब देगा,तो पहली स्त्री के जायज हक मारे जाएंगे |एक स्त्री की बर्बादी पर दूसरी स्त्री अपना घर कैसे आबाद कर सकती है ?रहा पुरूष तो वह यौनाकर्षण में दूसरी स्त्री को अतिरिक्त आत्मविश्वास से भर देता  है | वह भूल जाता है कि यह बस नवीनता का आकर्षण है ,जो जल्द ही अपनी चमक खो बैठेगा और यही होता है दूसरी स्त्री को देह-स्तर पर हासिल करते ही उसका नशा हिरन हो जाता है |उसे लगने लगता है कि देह के स्तर पर हर स्त्री एक जैसी ही होती है |अब उसे दूसरी स्त्री के लिए अपना सब-कुछ दाँव पर लगाना मूर्खतापूर्ण कदम लगता है और वह बदलने लगता है | चाँद के साथ अलगाव के दिनों में फिजा ने कई बार यह बात कही कि चाँद ने उसके साथ धोखा किया है और उसकी घनिष्टता और संसर्ग पाने के लिए विवाह का ढोंग रचाया था |पुरूष के इस बदलाव को जब दूसरी स्त्री नहीं सह कर पाती तब वह उससे छुटकारे के लिए गर्हित कदम तक उठा  लेता है |फंसने के बाद वह वापस पहली स्त्री की शरण में आ जाता है ,जो अपने बच्चों,परिवार,समाज व अपनी पराश्रयता के कारण खून का घूँट पीकर भी उसे क्षमा कर देती है |पुरूष भी सारा दोष दूसरी स्त्री पर डालकर सबकी सहानुभूति हासिल कर लेता है| मारी जाती है तो दूसरी स्त्री |एक तो वह पुरूष के प्रेम से वंचित हो जाती  है ,दूसरे समाज भी उसे क्षमा नहीं करता | कहीं ना कहीं उसके मन में भी यह अपराध-बोध होता है कि उसने एक स्त्री का हक छीना था |इन सारी विसंगतियों के कारण वह टूटने लगती है | यह कहा जाता है कि महत्वाकांक्षी स्त्री ही दुर्दशा को प्राप्त होती है पर यह सच नहीं है | अनुराधा बाली तो आर्थिक या किसी भी रूप से कमजोर नहीं थी फिर क्यों हुआ उसका ऐसा अंत?अक्सर दूसरी स्त्री का अकेलापन उसपर इतना हॉवी हो जाता है कि वह मृत्यु को गले लगा लेती है ?मर्लिन मुनरो ,जिसको लाखो चाहने वाले थे,अपने सुसाइड नोट में लिखती है कि-मैं एक ऐसी बच्ची की तरह हूँ ,जिसे कोई प्यार नहीं करता| | परवीन बॉबी हो या मधुमिता,फिजा या कोई और दूसरी स्त्री होने की पीड़ा ही इनका नसीब बना |
ऐसा नहीं कि पहली स्त्री बहुत सुखी होती है |उसे भी हर पल यह कचोटता रहता है कि उसके पति ने उसके स्त्रीत्व का अपमान किया , पर वह पति-त्याग का साहस नहीं जुटा पाती और ना ही हत्या या आत्महत्या उसका विकल्प बनता है क्योंकि उसपर बच्चों,परिवार,रिश्तों और समाज की जिम्मेदारियां दबाव बनाती हैं और उसका सहारा भी बनती हैं | कुछ विद्रोह करती हैं,तो अपना घर तबाह कर लेती हैं |डायना का जीवन इसका उदाहरण है |अपने विवाह की पार्टी में पति की प्रेमिका कैमिला पार्कर को देखकर उसके सपनों को जबरदस्त ठेस लगी | |डायना नौकरानी से ब्रिटेन के शाही परिवार की बहू बनकर भी खुश नहीं रह सकी क्योंकि उसे पति का ध्यान व प्यार नहीं मिला |उसने दो बार आत्महत्या की कोशिश भी की और अंतत:पति से अलग हो गई |कोई भी सम्वेदनशील स्त्री अपने प्यार को किसी दूसरी स्त्री से बाँट नहीं सकती|
फिर भी ऐसे रिश्ते बनते रहे हैं और बनते रहेंगे | सोचना दूसरी स्त्री को ही होगा कि क्या वह  अपने पुरूष के साथ निरपेक्ष सखी-भाव से खड़ी होकर स्त्री की पहचान और अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ सकती है ?क्योंकि उसके समर्पित संघर्ष की कद्र यह समाज तो शायद ही करे | दूसरी स्त्री के लिए आत्मनिर्भरता भी एक जरूरी शर्त है,वरना उसका रिश्ता साधारण स्त्री-पुरूष के रिश्ते में बदलकर अपनी सुंदरता खो सकता है |आत्मनिर्भर स्त्री ही बिना कुंठित हुए तीव्रता और साहस के साथ समाज की बंद कोठरियों की अर्गलाएँ अपने लिए खोल सकती है |दूसरी स्त्री को कुछ पाने के लिए एडजस्टमेंट की भी जरूरत होगी ,क्यों कि पुरूष द्वारा प्रदत्त बराबरी तब तक उसकी अपनी नहीं हो सकती,जब तक वह उसे अपने भीतर पैदाकर जीने की कोशिश नहीं करेगी |निश्चित रूप से दूसरी स्त्री के सामने कड़ी चुनौतियाँ हैं |मुझे तो लगता है स्त्री को पुरूष की स्त्री बनने के बजाय पहले सिर्फ स्त्री बनना चाहिए|एक पूर्ण,आत्मनिर्भर,स्वाभिमानी स्त्री ,तभी वह कठपुतलीपन से छुटकारा पा समाज से अपने अधिकार पा सकेगी ,फिर वह पुरूष के साथ किसी भी नम्बर के बगैर एक स्त्री के रूप में साझीदार हो सकती है |सच यह भी है कि पहली स्त्री को पछाड़कर दूसरी स्त्री कभी पुरूष से बराबरी का हक नहीं हासिल कर सकती |आखिर औरत की लड़ाई औरत से क्यों हो ?असल लड़ाई तो पुरूष से है |औरतें पुरूष की वजह से एक-दूसरे की शत्रु हो जाती हैं |स्त्री अपनी स्वतंत्र सत्ता तब तक नहीं खोज सकती,जब तक वह समाज में किसी पुरूष के सहारे भावनात्मक सुरक्षा ,सच्चरित्रता,मान-प्रतिष्ठा या अर्थ के लिए निर्भर रहेगी |’निर्भरता उसे पुरूष का गुलाम बना देती है |पुरूष स्वयं तो यौन सम्बन्धों के प्रति ईमानदारी नहीं बरतता है पर बड़ी आसानी से अपने लिए दूसरी स्त्री की व्यवस्था कर लेता है |वह दूसरी स्त्री से तो अपने लिए निष्ठा चाहता है,पर खुद अराजक बना रहता है ,यही बात चिंतनीय और निंदनीय है|

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