Thursday 7 June 2012


महिला-लेखकों की उम्र कम क्यों ?
कुछ वर्ष पूर्व अमेरिका के कैलीफ़ोर्निया स्टेट विश्वविद्यालय के लर्निंग रिसर्च इंस्टीट्यूट के विज्ञानी जेम्स कॉफ़मैन ने ‘जर्नल ऑफ डेथ स्टडीज में अपनी एक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी कि ‘कवियों की उम्र कम होती है|’ इस रिपोर्ट में उन्होंने अमेरिका,चीन,तुर्की और पूर्वी यूरोप के १९८७ कवियों-लेखकों के जीवन का अध्ययन किया था| इस क्रम में रचनाकारों का जो वर्गीकरण उन्होंने किया,उनमें कहानी-लेखक,कवि,नाटक,रचनाकार और गैर-कथा-लेखक शामिल थे,पर उन्होंने अन्य रचनाकारों की अपेक्षा कवियों [विशेषकर महिला कवियों की]| पर ज्यादा खतरा बताया था |उनके अनुसार अन्य विधाओं के रचनाकार कवियों से कुछ ज्यादा जीते हैं |कारण- एक उपन्यासकार अपने पूरे जीवन में जितना काम करता है,उससे दोगुना काम कवि २० से ३० वर्ष की उम्र में ही कर डालते हैं |इसी कारण कवि कई मानसिक रोगों से ग्रस्त होकर या तो ज्यादा समय अस्पताल में बिस्तर पर गुजारते हैं या फिर आत्म-हत्या कर लेते हैं |अन्य विधाओं के मुकाबले ऐसे कवियों की,विशेषकर महिला-कवियों की संख्या बहुत ज्यादा है,जिन्होंने आत्म-हत्या की कोशिश जरूर की होती है |कॉफ़ मैन ने इस आत्म-हत्या की प्रवृति को ‘सिल्विया प्लाथ इफेक्ट’नाम दिया था |दरअसल सिल्विया प्लाथ एक मशहूर कवयित्री और उपन्यासकार थी,जिसने १९६३ में महज ३० वर्ष की उम्र में आत्म-हत्या कर ली थी |कॉफ़ मैन के इस रिपोर्ट के मद्देनजर मैं भारतीय महिला-रचनाकारों[सिर्फ महिला-कवि नहीं] पर विचार करना चाहती हूँ |
मेरे हिसाब से कॉफ़ मैन की यह रिपोर्ट उनके दिमाग की पारम्परिक पुरूष-ग्रंथि की उपज है | प्राचीन काल से मान्यता रही है कि स्त्रियों के पास दिमाग कम होता है या होता ही नहीं |ऐसे ही तो नहीं उन्हें पठन-पाठन से अलग रखा गया था |उनके लिए ‘तंदुल-मात्र’ प्रज्ञा ही मान्य एवं स्वीकृत रही |यानी भात पकाते समय एक चावल को टटोल कर भात के पकने की जानकारी देनेवाली बुद्धि |पर आज तो वैज्ञानिकों ने सिद्ध कर दिया है कि आकार में पुरूष से नाम-मात्र का छोटा होने के बावजूद बुद्धिमत्ता व गुणवत्ता में स्त्री का मस्तिष्क जरा-सा भी कम नहीं होता,तो फिर कैसे मान लें कि महिला-लेखक पुरूष-लेखक की तरह दिमाग का इस्तेमाल नहीं कर सकती |मेरे हिसाब से महिला-लेखकों की असामयिक मृत्यु के दूसरे कारण ज्यादा महत्वपूर्ण हो सकते हैं |महिला-लेखकों को एक साथ कई मोर्चों पर लड़ना पड़ता है और यह सब व्यवस्थागत यानी  पुरूष-वर्चस्व के कारण है |पहले तो घर-परिवार,मित्र-रिश्तेदार,समाज-संस्कार,परम्परा-रिवाज को उनसे ढेरों अपेक्षाएं होती हैं,जिसे पूरा करने ही उनका सारा समय निकल जाता है,सारी ऊर्जा चुक जाती है|यदि फिर भी आंतरिक ऊर्जा समेटकर वे कुछ लिखती हैं,तो उसे चोरी,नकल या फिर किसी लेखक की अनुकम्पा का प्रतिफलन मान लेने का चलन है |यदि इस अग्नि-परीक्षा से भी वे गुजर गईं,तो पुरूष आलोचक उनके लेखन पर ‘दोयम दर्जे की,सीमित दायरे वाली व्यक्तिगत रचना’ का ठप्पा लगाते देर नही करते | वे पत्र-पत्रिकाओं में नहीं छपतीं,तो दो कौड़ी की रचना  लिखने वाली कही जाती हैं और छपती हैं,तो ‘उसे संपादकों की कृपा’ या ‘स्त्री होने का लाभ’ कहा जाता है |सफल महिला-लेखक को चंचला से चरित्र-हीन तक की संज्ञा कब और कहाँ दे दी जाए,इसकी गारंटी नहीं ?
कृष्णा अग्निहोत्री की आत्म-कथा “और..और ...औरत”में महिला-लेखन की दुश्वारियों का अच्छा चित्रण है |साहित्य में व्याप्त राजनीति,षड्यंत्र,नैतिक पतन,दोहरे चरित्र का उन्होंने पर्दाफाश किया है |आत्म-कथा को पढते समय जाने कितने चेहरे सामने दिखने लगते हैं,अनगिनत लेखिकाओं का अनुभव सामने बोलने लगता है |यह किसी विशेष क्षेत्र या खास लेखिका के साथ नहीं,बल्कि कमोवेश हर जगह व हर लेखिका के साथ है |कृष्णा लिखती हैं –“खंडवा में कई साहित्यिक संस्थाएं एवं साहित्यिक लोग हैं,परन्तु आपस में दो-दो व्यक्तियों की दलबन्दी है |सब एक-दूसरे की कटाई करते हैं,मानवीय गुणों से शून्य हैं |आप मर भी रहे हों,तो वे आपके लिए डॉक्टर नहीं लायेंगे,लेकिन यदि इन्हें अपनी किसी गोष्ठी की शोभा बढ़ानी हो,तो आपको सादर आमंत्रित करेंगे,मानवीय मूल्यों की परख यहाँ लगभग शून्य है|”कृष्णा अग्निहोत्री की यह पीड़ा तब-तक मेरी भी पीड़ा बनी रही,जब तक मैंने ऐसे साहित्यिक संस्थाओं एवं लोगों की परवाह की थी|खंडवा की ही तरह गोरखपुर के साहित्यिक माहौल में ऐसी स्त्री-विरोधी मानसिकता को आज भी देखा जा सकता है|
कृष्णा अग्निहोत्री ने बड़े साहस से ऐसे साहित्यिक लोगों को बेनकाब किया है,पर मैं सिर्फ उस मानसिकता को बेनकाब करूंगी,जिसके कारण साहित्यिक माहौल प्रदूषित है |कृष्णा लिखती हैं ”नए साहित्यिक लोग अधिकांशत: संकीर्ण हैं,कुछ अच्छा व्यवहार भी देते हैं|....[?]खेमों से मुझे काटा जाता है |.वे[?]...सिर्फ माखनलाल चतर्वेदी के नाम का वट-वृक्ष इतना चौड़ा कर देना चाहते हैं कि दूसरा ऊंचा पेड़ खंडवा में सर ना निकाले|उनका नाम भी उनके साथ होता है |......ने अपने कुछ चापलूसों को आगे लाने की कोशिश की है,पुस्तक प्रकाशन एवं पुरस्कार दिलवाकर गुट पक्का कर लिया है |अफसरों व राजनीतिज्ञों की चाटुकारिता से उनका स्वार्थ सिद्ध होता है,इसीलिए वे उनके सम्मेलनों व गोष्ठियों के अध्यक्ष व मुख्य अतिथि के रूप में सम्मानित होते हैं |”पूरा का पूरा कथन आज के साहित्यिक-परिवेश को नंगा कर रहा है|हाँ,ये स्त्री-पुरूष सभी लेखकों के साथ संभव है |पर कृष्ण कहती हैं ‘पुरूष लेखक राजधानी जाकर अपना नम्बर प्रत्येक समिति में लगा सकते हैं,लेकिन मेरा नाम भी आ जाए,तो ये महाशय कटवाते रहते हैं |” यह पीड़ा स्त्री की है क्योंकि वह पुरूष की तरह ना तो जुगाड़ लगा पाती है,ना ही उस तरह की चापलूसी व भाग-दौड़ ही कर सकती है |जो चिकने-चुपड़े कामयाब नए लेखक लेखिकाओं को “स्त्री होने के लाभ-वश छपने वाली”बताते हैं,उनमें कई खुद अपनी देह का अप्राकृतिक दुरूपयोग कर सफल हुए होते हैं |काश कोई इस विषय पर शोध करता,तो एक नया ‘विमर्श’ सामने आता |
कृष्णा के अनुसार उनकी किताब”निष्कृति”पर कुछ लोगों ने गोष्ठी आयोजित की,पर ”प्लान मुझे धो देने का था |जैसे कई महारथियों ने अकेले अभिमन्यू को मार दिया था,उसी तरह शहर के लगभग ८-९ साहित्यकारों ने एक पूर्व नियोजित योजनानुसार मुझ पर आक्रमण कर दिया कि ‘इतनी पुस्तकें क्यों लिख रही हैं |महिला हैं,इसलिए छप रही हैं |इन्हें तो साहित्य से निवृति ले लेनी चाहिए,इन्होंने अनुचित साहित्य लिखा है |’ इस घटना में कोई भी अतिशयोक्ति नहीं हो सकती,क्योंकि ऐसा ही कुछ मेरी पुस्तक”जब मैं स्त्री हूँ”के विमोचन के समय हुआ था |साहित्यिक महारथियों ने मुझे धो देने की पूरी साजिश रची थी | कृष्णा कहती हैं कि जलन व ईर्ष्या से कई साहित्यकार कुछ भी कहते तथा करते थे |कई हमेशा से आलोचक थे,पर एकदम  से नहीं नकारते थे,पर साहित्यिक ऊँचाई भी नहीं देना चाहते थे |यशवंत व्यास प्रशंसक थे,पर जब वे खंडवा आए और कुछ सस्ते साहित्यकारों के अतिथि बने,तो कुछ बदल गए | पहले वे मन के साफ़ चश्में से मुझे देख रहे थे|अचानक वे काले चश्मे से ही मुझे देखने लगे |सहज ना रह गए |कह भी दिया –“आपके पास तो दिल्ली वाले संपादकों की लम्बी पंक्ति है,आप मुझे क्यों पूछेंगी ?”यह है सबसे घातक वार !जो अकेले संघर्षरत लेखिकाओं का नसीब बन जाता है |पर जो स्त्री परिवार को सँभालते हुए भी लेखन कर रही हैं,उनकी भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है |अभी हाल में चन्द्रकिरण श्रीवास्तव की आत्मकथा “पिंजरे की मैना” पढ़कर मैं हिल गयी | वे पारिवारिक दायित्वों को पूरा करने के बाद लिखा-पढ़ा करती थीं |जब वे ६५ वर्ष की हुईं,तब जाकर विष्णु प्रभाकर के सौजन्य से उनका एक कहानी-संग्रह छप पाया | यह बात उनके पति को हजम नहीं हुई |उन्होंने अपने जानने वालों से कहा कि ‘अपने पुराने सम्बन्धों के कारण विष्णु जी ने मेरी पत्नी की पुस्तक छपवाई |इसका नतीजा यह हुआ कि प्रकाशक ने उनके दूसरे कहानी-संग्रह की पांडुलिपि लौटा दी |पति क गुस्सा इतना था कि ‘अब विष्णु प्रभाकर ही नहीं,घर के हर वर्ग का पुरूष उन्हें अपनी पत्नी का प्रेमी लगने लगा-चाहें वह कोई संभ्रांत परिचित हो या अखबार देने वाला |’कल्पना की जा सकती है कि उम्र के इस पड़ाव पर पति के इस बर्ताव से चन्द्र किरण जी कितनी आहत हुई होंगी ?यह वे पति थे,जिनकी सबसे बड़ी खूबी इश्क लड़ाना रहा था |जब वे डिप्टी कलक्टर हो गए थे,तब जहाँ भी उनकी पोस्टिंग होती थी,वे किसी ना किसी महिला से इश्क लड़ा बैठते थे और अपनी माशूका को घर भी ले आते थे |ऐसे ही एक कांड में उनकी नौकरी जाती रही थी,पर चन्द्र किरण ने उनका साथ नहीं छोड़ा था |अब बुढ़ापे में वे पत्नी के चरित्र को उछाल रहे थे |चन्द्र किरण इसे भी सह गयी |जवाब भी दिया तो इस तरह-“बस मैंने लिखना बंद कर दिया |किसी साहित्यिक समारोह में जाना बंद कर दिया और कॉलोनी के भी कीर्तन,विवाह,जन्मदिन,मुंडन आदि में जाना छोड़ दिया |’यह आत्म-त्याग क्या सिर्फ महिला-रचनाकार होने के नाते नहीं था ?कृष्ण का अफसर पति भी ऐसा ही अय्याश था |उसके जीवन में निरंतर दूसरी आती रहीं और कृष्णा को सब-कुछ सहना पड़ा |कभी-कभी तो खुद   उसपर भी लड़की को भेजने के लिए दबाव डालता था |ख़ैर कृष्णा ने युवावस्था में ही पति का घर छोड़कर नयी राह बना ली,पर क्या उसका परित्यक्ता होना उसके जीवन व साहित्य का अवरोधक नहीं बना ?हर जगह,हर क्षेत्र में उसे “सहज-सुलभ”स्त्री नहीं माना गया ?लेखिकाओं के प्रति लेखकों का दृष्टिकोण भी अक्सर सामंती होता है,भले ही वे नए हों,आर्थिक परेशानियों से जूझ रहें हों |अधिकांशत: वर्तमान समय में आगे बढ़ने के सारे हथकंडे जानते हैं कि कब किस पार्टी से जुडना है या किस पत्रिका से जुडना है या किस व्यक्ति की प्रशंसा करनी है ?दल बदलते भी उन्हें देर नहीं लगती |कृष्णा के साहित्यिक व्यक्तित्व को दबाने में कई नामवर लेखक भी शामिल रहे |कुछ लेखकों ने उनको महत्व भी दिया,तो अपने निजी स्वार्थ-वश और स्वार्थ पूरा ना होते देख दूर हो गए |सारिका के संपादक राजेन्द्र अवस्थी से लेखिका का परिचय खंडवा से दिल्ली जाते समय स्टेशन पर हुआ था |अवस्थी जी ने उन्हें स्टेशन बुलवाया,फिर उसके घर गए |’अवस्थी जी ने शाम किसी सुनसान रास्ते पर टहलने की बात की |स्पष्ट संकेत कि वे उससे कुछ बात करना चाहते हैं |दुर्भाग्य-कथा सुनकर कृष्णा ने चाहा कि वे कहीं अच्छी नौकरी में सेटल करवाने में सहयोग करें,पर ”मैं अनुभव कर रही थी कि वे कुछ क्षणों को भी अकेले नहीं रहना चाहते थे और यह बात भी नहीं समझना चाहते थे कि भारतीय ब्राह्मण परिवार में लड़कियों को इतनी छूट नहीं होती कि वे अजनबियों से रात देर तक बात करती रहें |”बहन के इलाज के लिए कृष्णा बम्बई जाती है,जहाँ वे अपनी पत्नी व ५ बच्चों के साथ रहते थे |उनकी पत्नी उनके रसिक स्वभाव के कारण उनसे असंतुष्ट रहती थी |अवस्थी जी कहते –स्त्रियाँ खुद उनके पीछे रहती हैं| यदि उन्हें पसंद की स्त्री मिली,तो उसकी ही होकर रहेंगे|प्रकारांतर से वे कृष्णा को अपने प्रति आकृष्ट करना चाह रहे थे |वे उसके रूप,भोजन,हँसी की प्रशंसा करते तथा कई प्रकार की मदद[आर्थिक नहीं] करते |”अंतिम दिन तक सड़क पार करते समय मेरा हाथ पकडकर तेजी से भागते |आत्म-निर्भर बनाते,ट्रेन या बस की थकावट से थका मेरा सिर अपने कंधे पर टिका लेते |“उन दिनों कृष्ण अकेलेपन की गिरफ्त में फड़फड़ाती,अतृप्त आत्मा थी |उसकी भावनाओं पर कोमा लग चुका था,फिर भी अवस्थी के रूप में उसे सिर्फ एक दोस्त की जरूरत थी |वह पत्नी की पीड़ा से परिचित थी,इसलिए अवस्थी जी की पत्नी का हक नहीं छीनना चाहती थी,जबकि वे अपनी पत्नी की निंदा कर उसके प्रति अपनी चाहत व्यक्त करते रहते थे |कृष्णा सोचती कि पत्नी शारीरिक रूप से सुंदर,गृहकार्य दक्ष व उनके पाँच बच्चों की माँ है,फिर भी वे उसे शक्की-झगडालू,बार-बार मायके चली जाने वाली बता रहे हैं,ताकि कृष्णा को पा सकें,पर वह ऐसा नहीं चाहती थी |सतर्कता के बावजूद अवस्थी जी के परिवार में उसकी वजह से हलचल मच गयी |अवस्थी जी ने उससे कहा –‘तुम अपने पति से तलाक ले लो,तभी हम मिल-जुल सकते हैं |कोई तूफ़ान ना खड़ा होगा |’पर वे खुद तलाक के लिए राजी ना थे |कृष्णा उनके दबाव पर क्रोधित होकर एक दिन बोल पड़ी –‘मैं रखैल बनकर नहीं जी सकती और आवेश के क्षणों में सुख के लिए कोई मेरी भावना से कोई भी खिलवाड़ करे,तो मुझे अच्छा नहीं लगेगा |”तब वे झल्ला पड़े-‘तुम शिकायत बहुत करती हो|समझना नहीं चाहती कुछ|;अवस्थी जी कृष्णा को अनुकूल ना पा कर बदल गए और उसकी मदद करना बंद कर दिया |अब जब भी वह नौकरी दिलाने की बात करती,वे तलाक की बात करते|इस तरह उसे मजबूर करना चाहा |कृष्णा  कहती है –उन्होंने मेरी दैनिक समस्याओं,संघर्षों व तपन से दूरी ही बनाए रखा |
फिर भी कृष्णा अग्निहोत्री एक बड़ी लेखिका बनी,पर वे कहीं से टूटी भी |वे कहती हैं –‘मनुष्यता के प्रति सजग रहने वाली मुझे अंदर तक इस समाज व शहर ने कुचला है...पर इस रोज की टकराहट से मैं आंतरिक शक्ति एकत्रित के मैं लगातार लिख रही हूँ |अपनी जीवन-यात्रा को सफल बनाने वाली अस्मिता की लड़ाई में जूझती,पसीना बहाती इस स्त्री को उसकी साहित्यिक प्रगतिधरा में बहते देख मनुष्यों के लिए ऐसा था जो अकेले रहकर तड़प-तड़पकर रक्त लिखने वाली महिला की हस्ती को छूकर कहना-मानना चाहते है कि देखा हमने कैसा पचाया,बुद्धु बनाया,नाटक रचा,हाथ मिलाया और भाग आए |’
महिला लेखकों के कम उम्र का रहस्य लेखन में ज्यादा दिमाग खपाना नहीं है,बल्कि यह व्यवस्था है,जिसके बारे में कृष्णा अग्निहोत्री कहती हैं –“इस सौदाई दुनिया में जीकर मैंने उपेक्षाएँ ही सहीं,अपनों से आघात झेले और अब बार-बार की पुनरावृति मुझे तोड़ने लगी है |”
यह टूटन ही कभी-कभी आत्मघाती कदम उठाने को उकसाती है | महिला रचनाकारों के कम-उम्र का रहस्य इस दृष्टि से भी ढूँढना चाहिए |

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